सम्पादकीय

चुनाव परिणामोंकी प्रतिध्वनि


ए. कुमार  

चार राज्य और एक केंद्रशासित प्रदेशके चुनाव परिणामोंका विश्लेषण  बता रहीं थी की केरल हर पांच वर्षपर सत्ता बदलनेकी परम्पराको इस बार तोड़ेगा। तमिलनाडुमें न अन्नाद्रमुक सरकारके विरुद्ध व्यापक माहौल था और न द्रविड़के पक्षमें। बावजूद द्रमुकका पलड़ा भारी था। २०१६ में जयललिताके नेतृत्वके प्रभावमें तमिलनाडुने सत्तापरिवर्तनकी परम्पराको तोड़ा था। मुख्य मंत्री पलनीस्वामीके विरुद्ध आक्रोश नहीं था, लेकिन लगातार तीसरी बार पार्टी नेतृत्ववाले गठबंधनको सत्तामें लानेके लिए ज्यादा चमत्कारी व्यक्तित्व चाहिए। बावजूद इनका गहराईसे विश्लेषण करना होगा कि ऐसा क्यों हुआ। केरलमें कांग्रेस नेतृत्ववाला लोकतांत्रिक मोर्चा सत्तामें क्यों नहीं कर सका यह प्रश्न बड़ा है। पश्चिम बंगालका वातावरण बता रहा था कि वहांकी पारम्परिक राजनीतिमें परिवर्तन होनेवाला है। वह परिवर्तन सत्ताके स्तरपर होगा या नहीं होगा इसे लेकर विश्लेषकोंमें लगातार मतभेद था। चुनाव परिणामने पश्चिम बंगालके लिए तीन बातें स्पष्ट कर दी। एक, पांच दशकसे ज्यादा समयतक राजनीति और सारे तीन दशकतक सत्ता चलानेवाला वाम मोर्चा चुनावी तौरपर प्रदेशमें खत्म हो चुका है। दो, कांग्रेसके लिए इससे बुरा चुनाव कुछ हो भी नहीं सकता। लोकसभा चुनावमें भी कांग्रेस यहां नौ विधानसभा क्षेत्रोंमें आगे थी। तीन, बंगालके बारेमें आम धारणा यही थी कि वहां वाम अभिमुख राजनीति ही सफल होगी। सत्तामें कोई रहे भले उसकी विचारधारा माक्र्स और लेनिनकी विचारधारा नहीं हो लेकिन व्यवहारिक स्तरपर उसे वाम नीतियोंकी ओर उन्मुख होना पड़ेगा। बंगालके भद्र पुरुषोंने कल्पना नहीं की थी कि हिन्दू और हिन्दुत्व केंद्रीय राष्ट्रीयताकी बात उठानेवाली भाजपा वहां दूसरी मुख्य शक्ति बन जायगी। यह तीसरी बात पश्चिम बंगालकी राजनीतिके वर्तमान और भविष्यके लिए महत्वपूर्ण है।

हालांकि २०१८ के पंचायत चुनावमें भाजपाने दस्तक दे दिया था। २०१९ लोकसभा चुनावमें वह दूसरी मुख्य पार्टी बनी और चुनाव परिणाम इस बातका गवाह है भले परिणामोंसे वह बिल्कुल संतुष्ट नहीं होगी लेकिन वह दूसरे स्थानपर स्थापित हो गयी है। जिस राज्यमें २९ प्रतिशतके आसपास मुस्लिम वोट हो और उनके अन्दर यह भय हो कि भाजपा आ गयी तो खैर नहीं वहां भाजपाका बहुमत पाना आसान नहीं हो सकता। तृणमूलकी जीतका अन्तर वहां बहुत ज्यादा है जहां-जहां मुस्लिम मत या तो निर्णायक हैं या प्रभावी। वस्तुत: जिस तरह २०१९ में ज्यादातर मुसलमानोंने भाजपाके विरुद्ध तृणमूलके पक्षमें एकमुश्त मतदान किया ठीक वही प्रवृत्ति विधानसभा चुनावमें भी कायम रही है। जिस तरह देशके स्तरपर नरेन्द्र मोदी सर्वाधिक लोकप्रिय हैं ठीक उसी तरह पश्चिम बंगालमें ममता बनर्जीके सामने दूर-दूरतक कोई नेता नहीं, जो उनकी लोकप्रियताके सामने टिक सके। पूरे प्रदेशमें चुनाव उन्हींके नामपर लड़ा जा रहा था। इस तरह उनके नेतृत्वकी धाक फिरसे साबित हुआ है। भाजपाके पास उस स्तरका प्रदेशमें कोई चेहरा नहीं जिसे वह सामने लाती या संदेश देती कि भविष्यमें यह प्रदेशका नेतृत्व कर सकते हैं। ममताके तेवरको देखते हुए यह साफ है कि वह मोदी सरकार और भाजपाके विरुद्ध ज्यादा आक्रामक होंगी तथा अभीसे विपक्षी एकजुटताकी कोशिश करेंगी। भाजपाको इसके लिए प्रदेशसे देश स्तरपर तैयार रहना होगा। हालांकि चुनाव परिणाम भाजपाकी अपनी ही कसौटियों और अपेक्षाओं निरुत्साहित करनेवाला है लेकिन उसकी पहली सफलता यह है कि उसने पश्चिम बंगालकी राजनीतिको दो धु्रवीय बना दिया है। दूसरी ओर असम ऐसा प्रदेश है जहांके बारेमें माना जा रहा था कि नागरिकता संशोधन कानून एवं राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तो भाजपाके विरुद्ध जायगा ही कांग्रेसका बदरुद्दीन अजमलकी पार्टी एआईयूडीएफके साथ गठबंधन भी असर दिखायगा। पिछले विधानसभा चुनावमें यह माना गया था कि मुस्लिम मत कांग्रेस और एआईयूडीएफमें बंट गयी थी और यह भाजपाके विजयका प्रमुख कारण था। विश्लेषण करना होगा कि उनकी एकजुटताके बावजूद भाजपा अपने सहयोगियोंके साथ सत्ता बनाये रखनेमें क्यों सफल हुई है। बराक घाटीमें उसको समर्थन मिलना बताता है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता संशोधन कानून भाजपाके खिलाफ नहीं, बल्कि पक्षमें गया है। यदि भाजपा इतनी सीटें हासिल करनेमें कामयाब रही तो इसका वैचारिक निहितार्थ भी है। न भूलें कि गैर-दलीय भाजपाके वैचारिक विरोधी शक्तियोंने स्वाभाविक ही एकजुटता दिखाई। इसका मतलब है कि भाजपाकी विचारधारा और नीतियोंके प्रति एक व्यापक समर्थन आधार कायम हो गया है। शहरी क्षेत्रोंमें भाजपाके कमजोर प्रदर्शनका यह बड़ा कारण है। किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपाने अपनी विचारधारा और उसके आधारपर बढ़ते समर्थनके कारण प्रदेशमें ऐसा दबाव बनाया कि ममता बनर्जीने स्वयंको निष्ठावान हिन्दू और हिन्दुओंका समर्थक घोषित करना शुरू कर दिया। यदि वह मंचोंसे प्रतिदिन दुर्गा पाठ करनेवाली, पूजा करनेवाली घोषित करती हैं, मंत्र पढ़ती हैं, अपना गोत्र बताती हैं तो इन सबको क्या कहा जायगा। इसका निष्पक्ष उत्तर यही है कि भाजपा भले सीटोंके मामलेमें काफी पिछड़ गयी, उसने मुख्य विपक्षी पार्टीको भी राजनीतिक हितके लिए ही सही हिंदुत्वको स्वीकार करनेके लिए विवश कर दिया है। यह इतना बड़ा परिवर्तन है जिसकी कल्पना पांच वर्ष पूर्वतक शायद ही किसीने की होगी। जाहिर है यदि भाजपा इसी प्रकार पश्चिम बंगालमें सघन रूपसे काम करती रही तो केवल चुनावी राजनीति ही नहीं, नीतियोंमें भी लम्बे समयतक हिंदू और हिंदुत्व केंद्रीय राष्ट्रीयताकी गूंज सुनाई देगी। इसमें सबसे बड़ी समस्या वर्तमान कांग्रेस और वाम मोर्चेके साथ हो गयी है। उनके सामने सबसे कठिन प्रश्न खड़ा हुआ है कि अपनी राजनीतिके भविष्यका वैचारिक ताना-बाना कैसे बुने। यह बात सही है कि केरलमें पी. विजयनके नेतृत्वमें वाम मोर्चेने दोबारा वापसी कर चुनावी इतिहास कायम किया है लेकिन उन्होंने भी अंतमें सबरीमालाके भक्तोंका समर्थन किया और कहा कि हम तो अय्यप्पा भक्तोंके साथ हैं। इसी तरह द्रमुक जैसी नास्तिक पार्टीने अपने चुनाव घोषणापत्रमें मंदिरोंके जीर्णोद्धारके लिए तथा हिंदू तीर्थयात्रियोंके लिए बजटमें प्रावधान करनेकी घोषणा की, इन चुनाव परिणामकी यह ऐसी ध्वनि है जिसका प्रभाव लंबे समयतक कायम रहेगा।

चुनाव परिणामोंने पहलेसे हताश और अपने भविष्यको लेकर उद्विग्न कांग्रेसके नेताओंके चिन्ता बढ़ा दी है। सोनिया गांधी परिवार और राहुल गांधीके राजनीतिक नेतृत्व क्षमतापर प्रश्न उठानेवालोंके स्वर आनेवाले समयमें मुखर होंगे। केरलसे सांसद राहुल गांधी यदि पूरी ताकत लगाकर भी परम्पराके अनुसार गठबंधनको सत्तातक पहुंचानेमें कामयाब नहीं हुए तथा असममें बेहतर प्रदर्शन नहीं किया तो पुन: इसका अर्थ यही निकाला जायगा कि उनके और परिवारके किसी व्यक्तिके अंदर जनताको आलोडि़त कर अपने पक्षमें मत दिलवानेकी क्षमता लगातार क्षीणतर प्रमाणित हो रही है। आखिर केरल और असममें राहुल गांधी और प्रियंका वाड्राके अलावा कांग्रेसके बड़े नेता प्रचारमें नहीं देखे गये। जो कुछ भी हुआ उसकी जिम्मेदारी तो अंतत: और राहुलके सोनिया परिवारके ही सिर आयगी। इस तरह परिणाम केवल यहींतक सीमित नहीं है। इसकी प्रतिध्वनियां आनेवाले समयमें कई स्तरोंपर सनाई देगी।