सम्पादकीय

संसदमें भी चाहिए सुशासन


डा. सुशील कुमार सिंह   

लोकतंत्रकी धारासे जनताके हित पोषित होते हैं लेकिन जिस तरह संसदमें हो-हल्ला हो रहा है उसे देखते हुए लगता है कि हंगामेसे यह मानसून सत्र तर-बतर रहेगा। वैसे इस बातका पहले ही अंदाजा था कि संसदमें कई मुद्दोंपर संग्राम होंगे। परन्तु यह नहीं मालूम था कि शासन चलानेवाले ही अनुशासन और सुशासनकी परिभाषा भूल जायंगे। गौरतलब है कि राज्यसभामें सूचना प्रौद्योगिकीमंत्रीसे पर्चा छीनकर जिस तरह तृणमूल कांग्रेसके एक संसदने फाड़ा और उसे हवामें उड़ाया वह गरीमामय तो बिल्कुल न था। हालांकि सत्रतक उक्त माननीय निलंबन झेलेंगे। उपराष्टï्रपतिने भी इसे संसदीय लोकतंत्रपर हमला कहा है। परन्तु यह भी समझना है कि ऐसी नौबत आती ही क्यों है। हो न हो सरकारको भी ऐसी स्थितिमें अपने हिस्सेका विचार करना चाहिए। संसदके भीतर सब कुछ अच्छा हो इसे देखते हुए हमेशा सत्रसे पहले सर्वदलीय बैठक बुलायी जाती है। ऐसा इस बार भी हुआ जब १८ जुलाईको सत्रके एक दिन पहले सर्वदलीय बैठक बुलायी गयी। रोचक यह है कि बैठकके बाद विपक्षी दलोंने अलग बैठक कर संसदमें सरकारको घेरनेकी रणनीति बनायी। गौरतलब है पेट्रेाल और डीजलकी बढ़ती कीमतसे जनता कराह रही है, महंगी भी एक मुद्दा है और इसके अलावा पिछले आठ महीनेसे किसान आंदोलनरत् हैं और नतीजे ढाकके तीन पात हैं। अब वही किसान जंतर-मंतरपर किसान संसदके रूपमें अपना सत्र चलाये हुए हैं। इसके अलावा फोन हैकिंगके मामलेने तो संसदमें युद्ध ही छेड़ दिया है। देखा जाये तो विपक्ष और सरकारके बीच दो-दो हाथ होना पहलेसे ही तय माना जा रहा था जो होता दिख भी रहा है। दूसरी लहरमें कोई भी कोरोना पीडि़त आक्सीजनकी कमीसे नहीं मरा यह बात भी सरकारकी ओरसे स्पष्टï की गयी है। इस मामलेको लेकर भी विपक्ष और शायद जनतामें भी एक भ्रम ही फैल गया है। गौरतलब है कि अप्रैल और मईके महीनेमें दूसरी लहरने कहर ढाया और हमारी चिकित्सीय व्यवस्था चरमरा गयी मगर आक्सीजनकी कमी नहीं हुई यह बात मानसून सत्रमें पता चल रही है।

गौरतलब है कि १९ जुलाईसे शुरू मानसून सत्र १३ अगस्ततक जारी रहेगा। सरकारकी यह कोशिश रहेगी कि कई बकाये विधेयक, कानूनका रूप लें। वैसे सरकारने कहा है कि वह सभी मुद्दोंपर बातचीतके लिए तैयार है सरकारकी कोशिश है कि १३ अगस्ततक चलनेवाले सत्रके दौरान कमोबेश २० बिल पारित करवाये जायें। एक तरफ संसदमें कई उम्मीदोंको अवसर देनेका प्रयास है तो दूसरी ओर प्रदर्शनकारी किसान भी अपनी तैयारीमें जुटे हैं। मानसून सत्रका एक सप्ताह बीतनेके बाद भी आशाके अनुरूप कुछ होता दिखाई नहीं दिया। कहा जाय तो इन दिनों संसद राजनीतिक अखाड़ा बना हुआ है। कूबत और कदकी लड़ाईमें मानसून सत्र भी मानो सावनकी बरसातका सामना कर रहा है। विधेयककी सूचीपर एक नजर डाली जाये तो दिवाला और दिवालियापन संहिता (संषोधन) विधेयक २०२१, सीमित देयता भागीदारी (संशोधन) विधेयक २०२१, पेंशन फंड नियामक और विकास प्राधिकरण (संशोधन) बिल, जमा बीमा और ऋण गारंटी निगम (संशोधन) विधेयक, आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक, २०२१ अध्यादेशकी जगह लेगा, छावनी विधेयक, २०२१, भारतीय अंटार्कटिका बिल आदि हो सकते हैं। इसके अलावा कुछ अहम बिल भी और देखे जा सकते हैं मसलन पेट्रोलियम और खनिज पाइपलाइन (संशोधन) विधेयक, २०२१, बिजली (संशोधन) विधेयक, २०२१, व्यक्तियोंकी तस्करी (रोकथाम और पुनर्वास) विधेयक, २०२१ और कुछ अन्य विधेयकों को भी सूचीबद्ध किया है। गौरतलब है सरकार ने संसद के मानसून सत्रमें पेश करनेके लिए १७ नये विधेयकोंको सूचीबद्ध किया है।

कामकाजके लिहाजसे देखा जाय तो पहली लोकसभा (१९५२ से १९५७) में ६७७ बैठकें हुई थीं। पांचवीं लोकसभा (१९७१ से १९७७) में ६१३ जबकि दसवीं लोकसभा (१९९१ से १९९६ ) में यह औसत ४२३ का था। मोदी शासनकालसे पहले १५वीं लोकसभा (२००९ से २०१४) में ३४५ दिन ही सदन की बैठक हो पायी। १६वीं लोकसभाकी पड़ताल यह बताती है कि यहां बैठकोंकी कुल अवधि १६१५ घण्टे रही लेकिन अतीतकी कई लोकसभाके मुकाबले यह घण्टे काफी कम नजर आते हैं। एक दलके बहुमतवाली अन्य सरकारोंके कार्यकालके दौरान सदनमें औसत २६८९ घण्टे काममें बिताये हैं लेकिन यहां बताना लाजमी है कि काम इन घण्टोंसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। हालांकि १६वीं लोकसभा में किस तरह काम किया, किस तरह के कानून बनाये, संसदीय लोकतंत्रमें कैसी भूमिका थी, क्या सक्रियता रही और लोकतंत्रके प्रति सरकारका क्या नजरिया रहा इन सवालोंपर यदि ठीकेसे रोशनी डाली जाये तो कामके साथ निराशा भी नजर आती है। लोकसभाके उपलब्ध आंकड़े यह बताते हैं कि मोदी शासनके पहले कार्यकालके दौरान लोकसभामें कुल १३५ विधेयक मंजूर कराये गये। जिसमें कईयोंको राज्यसभामें मंजूरी नहीं मिली। हालांकि जीएसटी, तीन तलाक और सवर्णोंको दस फीसदी आरक्षण समेत कई फलकवाले कानून इसी कार्यकालकी देन है। अब १७वीं लोकसभाका दौर जारी है। रिपोर्ट २०२४ में मिलेगा। यह दौर कोरोना कालका है और आर्थिक मन्दीका भी साथ ही बेरोजगारी भी सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। बजटसे लेकर तमाम आर्थिक पैकेजके बावजूद भी स्थितियां अभी काबूमें नहीं हैं। विकास दर धूल चाट रही है और समस्याओंका अम्बार लगा हुआ है। सबके बावजूद सियासी गुणा-भागकी चिंतासे सरकार उबर नहीं पा रही है। जबकि हकीकतमें सरकार माई-बाप होती है उसे हर मिनटका हिसाब जनताके हितमें खर्च करना चाहिए।

प्रधान मंत्री मोदी कहते रहे हैं कि अच्छे दिन आनेवाले हैं परन्तु संसदके बुरे दिन न आये इसकी भी चिंता करनेका वक्त है। कोरोना कालमें संसद सत्रको लेकर भी दिन बहुत कम ही अच्छे रहे हैं। अब मौजूदा मानसून सत्र देशके हितमें समर्पित कर यदि अच्छे नतीजेमें बदल दिया जाये तो कुछ कोर-कसर पूरी की जा सकती है। संसदके भीतर भी सुशासन हो, सुचिता हो और गरीबी, निरक्षरता, शिक्षा और चिकित्सा सहित बेरोजगारीकी समस्यासे मुक्तिवाली गूंज उठे इसकी फिक्र पक्ष हो या विपक्ष सभीको होनी चाहिए। वास्तवमें यह सरकार और विपक्षके लिए यक्ष प्रश्न बन चुका है कि सामाजिक-आर्थिक नियोजनकी कमजोर दशाके लिए उत्तरदायी कौन है। संसद निजीपनकी शिकार नहीं होनी चाहिए। १६वीं लोकसभामें कांग्रेस ४४ पर थी और अब ५२ में सिमटकर रह गयी है जबकि मौजूदा सरकार पहले भी गठबंधन समेत ३०० के पार थी और अब तो भाजपा अकेले ही इस आंकड़ेको छुआ है जाहिर है ताकतके साथ और मजबूती आयी  है। फिलहाल संसदको पक्ष और विपक्ष दोनों चाहिए। देशको सीख देनेवाले सियासतदान भटकावसे बचते हुए उन कृत्योंको अंगीकृत करें जहांसे देशकी भलाईकी गंगा बहती हो, न कि भ्रमकी।