सम्पादकीय

शाश्वत सुख


-डा. गदाधर त्रिपाठी
केवल मनुष्य ही नहीं, इस धरतीका प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और अपने पूरे जीवनमें जो भी कार्य करता है, वह सभीका सभी केवल सुख पानेके लिए ही करता है। हां, यहांपर निश्चयात्मक रूपसे इस विषयमें तो कुछ नहीं कहा जा सकता कि मनुष्येतर जीव किसे सुख मानता है और उसे कैसे सुख मिलता है तथा वह सुख पानेके लिए क्या करता है किन्तु मनुष्यके जीवनमें चार प्रकारकी प्राप्तियां ऐसी होती हैं, जिन्हें पाकर व्यक्ति सुखी होता है और जिन्हें पानेके लिए जीवनभर प्रयत्नशील भी बना रहता है। यह चार हैं- अपना सुन्दर, स्वस्थ और रोगरहित शरीर, अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रियां, अपार सम्पत्ति तथा जीवनमें मिलनेवाला यश। इसीलिए एक उपनिषद्में जब किसी जिज्ञासुने अपनी जिज्ञासा प्रकट की कि व्यक्ति अपने जीवनमें सबसे अधिक किसे चाहता है तो उसकी जिज्ञासाका समाधान करते हुए वहांपर यह कहा गया कि इस संसारमें कोई भी व्यक्ति सबसे पहले और सबसे अधिक स्वयम्को चाहता है और उसके बाद ही वह किसी दूसरेके हिताहितका विचार करता है। यही कारण है कि जीवनभर इसका पूराका पूरा जोर अपने सुखकी सामग्री इक_ी करनेपर होता है और जीवनभर यह अपनी सुन्दरता तथा स्वास्थ्यके लिए सचेष्ट रहता है। ऐसी ही मन:स्थिति व्यक्तिकी पत्नी तथा पुत्र और पुत्रीकी भी पानेकी होती है। हर कोई चाहता है कि उसकी पत्नी सर्वांग सुन्दरी और सुशीला हो। जीवनभर अपने पतिकी सेवा सर्व समर्पण भावसे करे। उसके पुत्र और पुत्रियां आज्ञाकारी और चतुर हों। समय-समयपर वह अपने ज्ञान-कौशल से न केवल अपने घरकी समृद्धि बढायें, अपितु अपने माता-पिताके सम्मानवर्धनके हेतु भी बने। ऐसी ही स्थिति व्यक्तिके जीवनमें सम्पत्ति पानेकी लालसाके सम्बन्धमें भी होती है और यह अपनी इस लालसाको पूरी करनेके लिए कभी-कभी तो अनुचित मार्गपर न चलनेका विवेक भी खो बैठता है। यश पाना तो सामान्यत: दुष्कर है ही किन्तु व्यक्ति उसके पानेकी कामना भी करता ही है। किन्तु इस सृष्टिकी विचित्रता यह है कि व्यक्तिको पानेके लिए इसमें बहुत कुछ है और उस सबकी पानेकी इच्छा भी इसके मनमें पूरी तरहसे है। किन्तु इसकी विडम्बना यह है कि यह सब पानेका या कि खो देनेका अधिकार मनुष्यके पास नहीं है। न तो शरीर, पत्नी, पुत्र-पुत्रियां यह अपनी इच्छासे पा सकता है और न ही अपने बलसे जबतक चाहे तबतक उन्हें अपने पास रख सकता है। यही गति धन और यशकी भी है। उसका पाना या खोना भी उसी जगत्पतिके हाथमें है, जो इसका संचलक और नियामक है। इसीलिए विद्वज्जन कहते हैं कि इस नितान्त अस्थिर जगत्में सुखकी खोज न करके उस परम प्रभुके पद पंकजोंमें अपना मन लगाओ और शाश्वत सुख पाओ।