सम्पादकीय

ग्रामोन्मुख बने कौशल विकास


अशोक भगत  

दुनियाकी दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्यावाला देश भारत रोजगारके मामलेमें बेहद पिछड़ा माना जाता है। मानव सभ्यता विकासके प्रथम चरणसे ही प्रगतिका मापदंड रोजगार ही रहा है। इसमें यदि कोई देश पिछड़ा है तो अमूमन यह मान लिया जाता है कि उसकी आर्थिक प्रगति कमजोर है। आंकड़ोंके अनुसार भारतमें मात्र ३.७५ प्रतिशत लोगोंके पास सरकारी नौकरी है। निजी संघटित क्षेत्रकी बात करें तो यहां कुल नौकरियोंका दस प्रतिशत रोजगार हैं। रोजगारके शेष अवसर असंघटित क्षेत्रोंमें उपलब्ध हैं या ऐसा कहें कि असंघटित क्षेत्र भारतकी वह आर्थिक रीढ़ है, जिसने आर्थिक मंदी जैसी वैश्विक चुनौतियोंसे विगत बरसोंमें भारतको बचाये रखा है। असंघटित क्षेत्र ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहां बड़ी संख्यामें रोजगार उपलब्ध है, लेकिन यहां अधिकतर श्रम कानून लागू नहीं होते और श्रमिकोंका बड़े पैमानेपर शोषण होता है। भारतमें जनसंख्या वृद्धि की दर ढाईसे तीन प्रतिशत है। प्रत्येक वर्ष लगभग एकसे डेढ़ करोड़ युवा बेरोजगारीकी कतारमें खड़े हो जाते हैं। इतने बड़े मानव संसाधनका प्रबंधन बेहद दुरूह कार्य है। महामारीने अर्थव्यवस्थाको इस बीच शिथिल कर दिया है। सेंटर शॉर मॉनिटरिंग इकोनॉमीके एक ताजा अध्ययनमें यह बात सामने आयी है कि कोविड-१९ के कारण अप्रैल, २०२१ तक ७५ लाख लोगोंकी नौकरी चली गयी है। अप्रैलके बाद भी इसमें सुधार होनेके बदले और ह्रास ही हुआ है। आंकड़े बताते हैं कि कोरोनासे केवल रोजगारपर ही नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है, अपितु जीवन, स्वास्थ्य, भोजन और पर्यावरणपर भी इसका असर पड़ रहा है। भारत एक नये संकटकी ओर बढ़ रहा है। ऐसेमें सरकार और समाज दोनोंकी जिम्मेदारी बढ़ गयी है। फिलहाल मनरेगाके तहत ग्रामीण क्षेत्रोंमें थोड़े रोजगार तो मिल रहे हैं, लेकिन यह दूरगामी परिणाम देनेवाला नहीं है।

इसलिए कोई ऐसी योजना बनानी होगी, जो समेकित रोजगार विकासपर काम करे और प्रत्येक वर्ष बेरोजगारीमें हो रहे इजाफेको नियोजित और प्रबंधित कर सके। भारत सरकारने २००९ में राष्ट्रीय कौशल विकास निगमकी स्थापना की थी। इसका उद्देश्य पूरे देशमें एक प्रशासनिक निकायके तहत सभी कौशल कार्यक्रमोंको लागू करना था। इन प्रयासोंको गति नरेंद्र मोदीके नेतृत्ववाली सरकारने २०१४ में प्रदान की। वर्ष २०१५ में सरकारने कौशल विकास कार्यक्रमोंके तहत २०२२ तक ५० करोड़ युवाओंको प्रशिक्षित करनेका राष्ट्रीय लक्ष्य तय किया। इसकी प्राप्तिके लिए राज्य सरकारोंकी भूमिका भी सुनिश्चित की गयी। राज्योंमें कौशल विकास केंद्र स्थापित किये गये और बड़े पैमानेपर लोगोंको स्वरोजगारका प्रशिक्षण दिया जाने लगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्र सरकारकी यह महत्वाकांक्षी योजना बेहद प्रभावी रही है, लेकिन इसमें कुछ ऐसी खामियां हैं, जिन्हें ठीक कर इसे और प्रभावशाली बनाया जा सकता है।

कोविड कालमें इसका उपयोग कर सरकार अर्थव्यवस्थाको जल्दी पटरीपर ला सकती है। उदाहरणके तौरपर इस योजनाके तहत कौशल कार्यक्रमोंकी रूप-रेखाका पुनर्गठन किया जा सकता है यानी आपूर्ति-संरचनासे मांग संचालित करनेके लिए कौशल निर्माणकी नयी नीतिके पुनर्गठन और निर्माणकी आवश्यकता है। उसी प्रकार योजनाओंका रूपांतरण होना चाहिए। राज्य और केंद्रीय स्तरपर सरकारें विभिन्न विभागोंके तहत कई कौशल निर्माण कार्यक्रम चला रही हैं। राज्यमें लगभग २२ विभाग कुछ अन्य प्रकारके कौशल निर्माण कार्यक्रमोंको लागू कर रहे हैं। राज्यमें एक प्रशासनिक निकायके तहत सभी कौशल निर्माण कार्यक्रमोंको परिवर्तित करनेके लिए एक नीति होनी चाहिए, ताकि एक विशिष्ट भौगोलिक स्थानमें कोई हस्तक्षेप न हो क्योंकि वर्तमान संरचना प्रशिक्षुओं और उनके माता-पिताके बीच भ्रम पैदा करती है। इसे परिमार्जित करनेकी जरूरत है। साथ ही कौशल विकास कार्यक्रमको बैकवर्ड और फॉरवर्ड लिंकेजकी द्विपक्षीय प्रणालीसे जोडऩेसे बेहतर परिणाम आ सकेंगे। यह अनुभव किया गया है कि कौशल कार्यक्रम समावेशी नहीं हैं, लाभार्थी और प्रशिक्षण भागीदारके बीच हमेशा एक आकांक्षी बेमेल है, इसलिए हमें एक ऐसा ढांचा तैयार करना होगा, जिसमें समुदायोंको शामिल किया जा सके और उनकी आकांक्षाओंके आधारपर कार्यक्रमोंको समुदायोंमें डिजाइन और कार्यान्वित किया जा सके। इसके साथ सामुदायिक उद्यमिता कार्यक्रम और कौशल निर्माण कार्यक्रममें एकरूपताकी आवश्यकता है। इसमें तकनीकी पक्षका हस्तक्षेप भी बेहद जरूरी है। कौशल विकास कार्यक्रमोंमें प्रशिक्षणका अधिकांश प्रारूप भारी उद्योगों और बड़े औद्योगिक संयंत्रोंको ध्यानमें रखकर बनाया गया है, जबकि इस क्षेत्रमें रोजगारके अवसर बेहद कम हैं और यह बड़े औद्योगिक घरानोंके हितमें है। व्यापक परिप्रेक्ष्यके लिए प्रशिक्षण व्यवस्थाको पारंपरिक मोडमें लाना होगा। इसे भारतकी विशाल और पारम्परिक कृषि व्यवस्थाके साथ जोडऩा होगा। ऐसे तकनीकी प्रशिक्षण देने होंगे, जिसकी जरूरत किसानोंको पड़ती है और जो रोजमर्राके जीवनमें उपयोगी साबित होता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्थाकी आवश्यकताओंको जोड़कर ही विकासकी अवधारणाकी पूर्णता हासिल की जा सकती है। इसे नगरोन्मुख नहीं, ग्रामोन्मुख बनाना होगा। पारंपरिक हस्तशिल्पको भी इसके साथ जोडऩा होगा। तभी हम बेरोजगारीको नियोजित और प्रबंधित कर सकेंगे। समावेशी विकासके लिए नगरीय और ग्रामीण परिवेशको साथ रखते हुए कौशल विकासका उन्मुखीकरण समयकी मांग है।