डी. भानू
बहुतसे भारतीयोंकी यह गलत धारणा है कि अमेरिकी राष्ट्रपतिके पास असीमित शक्तियां होती हैं और एक भारतीय प्रधान मंत्रीको नियंत्रणों और संतुलनोंके बीच काम करना होता है। सचाई इससे बिलकुल उलट है। अमेरिकाके राष्ट्रपतिको एक वास्तवमें स्वतंत्र विधायिका, ५० स्वतंत्र राज्य सरकारों, संघीय और राज्य न्यायपालिकाओं और अपनी शक्तियोंपर संवैधानिक सीमाओं इन सबसे जूझना पड़ता है। दूसरी ओर हमारे देशकी प्रणाली प्रधान मंत्रीको इतनी व्यापक कार्य-स्वतंत्रता देती है कि वह एक सम्राटकी तरह कार्य कर सके। अमेरिकाके २३० वर्षोंके इतिहासमें कोई भी राष्ट्रपति तानाशाहके रूपमें काम करनेमें सफल नहीं हो पाया है। हम देख चुके हैं कि कैसे डोनाल्ड ट्रम्पकी महत्वाकांक्षाओंपर अमेरिकी शासन प्रणालीने रोक लगायी। कुछ मुस्लिम देशोंके प्रवासियोंके आनेपर ट्रम्प द्वारा लगायी गयी रोकको तबतक नकार दिया गया जबतक कि उन्होंने धर्मको इसके आधारके तौरपर हटा नहीं दिया, जिसपर अमेरिकी संविधान प्रतिबंध लगाता है। बिना दस्तावेजवाले अप्रवासियोंसे उनके बच्चोंको अलग करनेकी उनकी नीतिपर अब भी अदालतोंमें मुकदमें चल रहे हैं। मैक्सिको बॉर्डरपर दीवार बनानेका उनका प्रयास विफल कर दिया गया, क्योंकि अमेरिकी विधायिकाने इसके लिए धन देनेसे इनकार कर दिया। स्वास्थ्य सेवा ओबामाकेयरको निरस्त करनेका उनका एजेंडा कार्यक्रम उनकी अपनी ही पार्टीके सेनेटर जॉन मैक्केनके एक वोटसे परास्त हो गया। ट्रम्प कुछ ही मनमानियां करनेमें सफल रहे। जैसे कि ईरान परमाणु और पेरिस जलवायु समझौतोंको रद करना। परन्तु वह ऐसा करनेमें इसलिए सफल थे, क्योंकि उनके पूर्ववर्ती बराक ओबामा बिना सेनेटके बहुमतकी मंजूरीसे उन समझौतोंमें शामिल हुए थे, जो अमेरिकाके संविधानकी अवहेलना थी। इसके विपरीत भारतने कई प्रधान मंत्रियोंको हमारी संपूर्ण शासन प्रणालीका दमन करते देखा है। सबसे गुस्ताख उदाहरण तो निसंदेह इंदिरा गांधीकी एमरजेंसी है। शक्तियां एकत्रित कर और संविधानको संशोधित कर उन्होंने हर सरकारी संस्था यहांतक कि राष्ट्रपति कार्यालयको भी अपने अधीन कर लिया। नये संविधानमें शक्तियोंके संतुलनमें परिवर्तनने तो इसे पहचानके काबिल ही नहीं छोड़ा। ऐसा भारतीय संविधानके इतिहासकार ग्रैनविल ऑस्टिनने लिखा।
इंदिरा गांधी निरंकुश शक्तियां एकत्रित करनेवाली प्रथम या अंतिम प्रधान मंत्री नहीं थीं। जवाहरलाल नेहरूने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसादके बार-बार अनुरोधके बावजूद राष्ट्रपतिको कोई भी विवेकाधीन शक्तियां देनेसे इनकार कर दिया था। संविधान सभामें राष्ट्रपतिकी शक्तियोंका विस्तृत विवरण देनेवाले जिस सूचना पत्रका वचन दिया गया था, वह कभी पेश ही नहीं किया गया। वर्ष १९५१ में पंजाबमें नेहरूके राष्ट्रपति शासनके इस्तेमालने प्रधान मंत्रीको राज्य सरकारोंको नियंत्रित करनेकी एक मिसाल कायम कर दी। आज, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी समान परंपराएं निभा रहे हैं, यद्यपि अधिक चतुराईके साथ। वह एक लचीले राष्ट्रपति और चार राज्योंको छोड़ बाकी सबमें भारतीय जनता पार्टीके वफादारोंको गवर्नरके रूपमें तैनात कर चुके हैं। संसद, कैबिनेट और विभिन्न अन्य संस्थाओं-चुनाव आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, सूचना आयोग, वित्त आयोग और इत्यादिपर उनके नियंत्रणकी तुलनामें एक अमेरिकी राष्ट्रपतिको शक्तिहीन दिखता है।
भारतीय प्रणाली तानाशाहोंको सक्षम बनाती है, के इतने उदाहरणोंके बावजूद यह हैरानीकी बात है कि महत्वपूर्ण विचारक अब भी यह विश्वास रखते हैं कि एक भारतीय प्रधान मंत्रीके बजाय अमेरिकी राष्ट्रपतिके पास अधिक शक्तियां होती हैं। एक पत्रिकामें सेप्टर एंड क्राउन, मस्ट टंबल डाउन शीर्षकसे छपे लेखमें पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरमने लिखा, एक प्रधान मंत्रीकी शक्तियां और राष्ट्रपतिकी शक्तियां चाक और पनीरकी तरह हैं। लेकिन भिन्नताएं धुंधली हो रही हैं, संविधान संशोधित करनेसे, जैसे श्रीलंकामें या प्रधान मंत्रीके कार्यालयको अधिक शक्तिशाली बनाकर, जैसा कि भारतमें। चिदंबरमके इस विचारका आधार अमेरिकी राष्ट्रपतिकी शक्तियों संबंधी एक गलतफहमी है। वह लिखते हैं, एक अमेरिकी राष्ट्रपति अत्यधिक शक्तिशाली है, जिसके पास ऋण लेनेकी शक्ति, खर्चनेकी शक्ति, अंतरराष्ट्रीय संधियोंमें शामिल होने या बाहर निकलनेकी शक्ति, न्यायाधीश नियुक्त करनेकी शक्ति और युद्ध आरंभ करनेकी शक्ति है।
परन्तु अमेरिकी संविधान इन शक्तियोंको स्पष्ट रूपसे विधायिकाको प्रदान करता है, राष्ट्रपतिको नहीं। एक राष्ट्रपति विधायी अनुमतिके बिना न ऋण ले सकता है और न ही कोई खर्चा कर सकता है। वह न्यायाधीश नामित करता है, लेकिन उन्हें सेनेटसे मंजूरी मिलनी चाहिए। और वह युद्ध की घोषणा नहीं कर सकता, संविधान केवल विधायिकाको यह शक्ति देता है। युद्ध शक्तियां कानूनके अनुसार राष्ट्रपतिको सेनाएं भेजनेके ४८ घंटोंके भीतर विधायिकाको सूचित करना होता है और कानूनके अनुसार ६० दिनके भीतर अनुमति लेनी पड़ती है। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि चिदंबरम यह विश्वास करते हैं कि एक भारतीय प्रधान मंत्री संयमित है। उन्होंने लिखा, एक सच्ची संसदीय प्रणालीमें एक प्रधान मंत्री अपनी कैबिनेटसे घिरा होता है और मुख्य कैबिनेट मंत्रियोंसे शक्तियां साझा करता है। वह, कानूनके तहत, संसद या संसदीय समितियोंके प्रति प्रतिदिन उत्तरदायी है और हर खर्च संसद द्वारा मंजूर होना चाहिए। परंतु यह नियंत्रण किस कामके जब प्रधान मंत्री, संसदीय प्रणालीके मूल नियमोंके अंतर्गत, अपनी कैबिनेटके हर सदस्यको नियुक्त करता है और जिसके पास संसदमें बहुमतकी गारंटी होती है। हमारी प्रणाली कैबिनेटको एक कोटरी और विधायिकाको रबर स्टैंप बनाती है। प्रतीत होता है कि भारतीय चिंतक मानते हैं कि हमारा देश अब भी संसदीय प्रणालीके सैद्धांतिक मॉडलका पालन करता है। परंतु संसदीय व्यवस्थाकी मातृ प्रणालीने भी इंग्लैंडमें उन संसदीय सिद्धांतोंका पालन वर्षों पहले छोड़ दिया था। विधि विशेषज्ञ सर आइवर जेन्निंग्सने १९४१ में लिखा, सिद्धांत यह है कि सदन सरकारको नियंत्रित करता है। हालांकि सचाई यह है कि सरकारके बहुमतका कोई भी सदस्य सरकारको हराना नहीं चाहता। इसी प्रकार संवैधानिक विद्वान ब्रिटिश वाल्टर बैजहटने १८०० के दशकके अंतमें अपने देशकी प्रणालीके बारेमें लिखा, जिंदा सचाई देखनेवाला एक विवेचक इस व्यवस्थाके कागजी विवरणके प्रति विषमतापर हैरान रह जायगा।
सचाई यह है कि भारतकी विकृत संसदीय व्यवस्था आज प्रधान मंत्रीकी शक्तियोंपर कोई भी लगाम नहीं लगाती। हमारे संविधान निर्माताओंका राष्ट्रपतिमें एक ऐसा निर्वाचित सम्राट जो प्रधान मंत्रीपर नियंत्रणके तौरपर काम कर सके, बनानेका प्रयास असफल हो चुका है और ऐसा ही विधायी नियंत्रणके साथ है, विशेषकर दलबदल विरोधी कानूनके कारण जो सांसदोंको मात्र पार्टी आकाओंका दास बनाता है।
जैसा देश देख रहा है और जैसा कि चिदंबरम स्वयं शोक मनाते हैं, हमने संस्थान खोखले कर दिये हैं, विपक्षके साथ कानूनी आवश्यक विचार-विमर्श पहेली बनकर रह गये हैं, राज्यों और प्रांतोंको धन देनेसे इनकार और राष्ट्रीय संसदमें कानूनोंकी अवहेलना लगातार जारी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि संसदीय मॉडल मूल तौरपर त्रुटिपूर्ण है। इसे वर्ष १७८७ में अमेरिकाके निर्माताओंने नामंजूर कर दिया था क्योंकि यह स्वाभाविक रूपसे एकात्मक है। यह केंद्रको बहुत शक्तिशाली बनाता है और कार्यकारी एवं विधायी शक्तियोंको मिलाकर यह प्रधान मंत्रीको बहुत ताकतवर बना देता है। इसलिए अमेरिकाने एक प्रत्यक्ष रूपसे निर्वाचित मुख्य कार्यकारीका आविष्कार किया। अमेरिकाके निर्माताओंमेंसे एक गवर्नर मॉरिसके शब्दोंमें, यह मैजिस्ट्रेट राजा नहीं है। जनता राजा है। समय आ गया है कि हम भारतीय अपनी त्रुटिपूर्ण संसदीय व्यवस्थाके प्रति सजग हो जायं और अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणालीपर एक व्यवहार्य विकल्पके रूपमें फिर विचार करें।