News सम्पादकीय

बंगालमें हिंसा और ममताका रवैया


पश्चिम बंगालमें चुनावी हिंसा हमेशा पूरे देशका दिल दहलाती है। निस्संदेहए वर्तमान चुनावमें चुनाव आयोगकी सख्तीका असर हुआ है, लेकिन तीसरे दौरके मतदानमें कूचबिहार के एक विधानसभा क्षेत्रमें हुई हिंसा पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने जो रवैया अख्तियार किया है वो हिंसा से कहीं ज्यादा डरावना है। मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी अगर चुनाव की सुरक्षा ड्यूटी में लगे सुरक्षा बलको ही अपराधी घोषित करने लगे तो फिर कानूनके राजकी बात कौन करेगा। चुनाव आयोगके पर्यवेक्षकोंकी रिपोर्ट बताती है कि केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल या सीआईएसएफ को मजबूरीमें स्थिति नियंत्रित करने के लिए गोली चलानी पड़ी। इसे आत्मरक्षार्थ गोली चालन भी कहा जा सकता है क्योंकि ये ऐसा नहीं करते तो कुछ जवान मारे जाते, घायल होते इनमें से कई के हथियार तक छीने जा चुके होते। पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट बताती है कि ३००-३५० लोगों की भीड़ने सुरक्षाबलोंपर हमला किया, इनके हाथोंसे हथियार छीननेकी कोशिश की। पहले इन्होंने हवा में फायर किया और जब स्थिति नहीं संभली तो भीड़ पर गोली चलानी पड़ी। कोई हिंसक भीड़ अगर चुनाव प्रक्रियामें बाधा डालने लगे, मतदानकर्मियों को पीट देए काफी कोशिशोंके बाद भी न माने, सुरक्षाबलों को भी निशाना बना दे तो फिर विकल्प क्या बचता है। स्थानीय पुलिस अधीक्षक तकके बयान चुनाव आयोग की बातों की पुष्टि करते हैं।
एक व्यक्तिकी भी गोली चालन में मृत्यु दुखद है। कई बार ऐसी कार्रवाई अनेक लोगोंकी जानकी रक्षाके साथ कानून और व्यवस्था कायम रखनेका कारण भी बनती है। ममता सुरक्षाबलों को अपराधी कहतीं हैं तो इसका अर्थ है कि वो अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओंके अपराधिक दुस्साहसों को जानते हुए भी अनदेखीकर रही हैं। इसका अर्थ बतानेकी आवश्यकता नहीं। हिंसापर दुख और पीड़ा व्यक्त करने तथा राज्यके लोगोंसे चुनावमें कानून को हाथमें ना लेने की स्वाभाविक अपील करनेकी जगह मुख्यमंत्रीका पूरा रवैया उकसाने और उत्तेजित करने वाला है। चुनाव आयोग को निशाना बनाना तथा उसे एमसीसी यानी मोदी कोड ऑफ कंडक्ट कहना केवल दुर्भाग्यपूर्ण नहीं खतरनाक राजनीति है। सच तो यही है कि चुनाव प्रक्रिया आरंभ होनेके पहले से ही ममता बनर्जी ने जिस तरहका आक्रमक रुख अपनाया उसकी स्वाभाविक परिणति हिंसा ही होनी थी। आप अगर केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल को भाजपाकी बल कहेंगी, आप बार.बार बयान देंगी कि सुरक्षा बल भाजपाके लिए वोट डालने का दबाव डालती है तो फिर पहले से ही हिंसक समर्थकों में क्या संदेश जाएगा। ममता ने सात अप्रैलको कहा कि सीआरपीएफ का एक समूह घेराव करो तो दूसरा समूह वोट डालते रहो। यह सीधे-सीधे सुरक्षाबलोंके कार्यमें बाधा डालने तथा उनके खिलाफ हाथापाई-मुठभेड़ आदि के लिए उकसाना था।
वो लगातार सुरक्षाबलोंपर तृणमूलके विरोध और भाजपाके पक्ष में काम करनेका आरोप लगा रही हैं। इससे पूरे प्रदेशमें ममता, तृणमूल समर्थकों, कार्यकर्ताओं तथा सत्ता से जुड़े भारी संख्यामें निहित स्वार्थी तत्वों के अंदर सुरक्षा बलोंके खिलाफ गुस्सा और उत्तेजना बड़ा है। वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को निशाना बनाती हैं। चुनावमें राजनीतिक निशाना बनाया जाना बिलकुल स्वाभाविक है किंतु उनके बयानों की ध्वनि यह है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों अपने पदोंका दुरुपयोग करते हुए भाजपाके पक्षमें जबरन मतदान करवानेकी गैर कानूनी कार्रवाई में संलिप्त हैं। वो कहती हैं कि अमित शाह सुरक्षाबलोंको आदेश देते हैं कि भाजपाके लिए वोट कराओ। इसके साथ चुनाव आयोगको लगातार आक्षेपित करते हुए कह रही हैं कि वह भाजपा को जितानेके लिए कामकर रहा है। जब जनप्रतिनिधित्व कानूनों के उल्लंघनके मामलेमें उनको नोटिस जारी होता है तो कहती हैं कि देखो चुनाव आयोग भाजपाको नोटिस जारी नहीं करता। कुल मिलाकर ममता बनर्जी ने अपने समर्थकों, कार्यकर्ताओं व भाजपा विरोधियोंको यह संदेश दिया है कि मोदी और शाह तो उसके विरुद्ध है ही चुनाव आयोग और चुनावी ड्यूटी में लगे सुरक्षा बल भी तृणमूल को हराने में लगे हैं। यानी मेरे अकेले पर सब टूट पड़े हैं। जाहिर है, कम समझ रखने वाले और पहले से हिंसा करने के अभ्यस्त उन तृणमूल समर्थकों और कार्यकर्ताओंको लगा है कि जब सभी दीदी को हराने में ही लगे हैं तो उनसे हमको टकराना होगा। एक समुदाय के अंदर तो उन्होंने यह भय पैदा कर ही दिया है कि भाजपा सत्तामें आ गई तो आपकी खैर नहीं। उनको आक्रामक होना ही है। दूसरे, पश्चिम बंगालमें लंबे समयसे कोई चुनाव काफी हद तक २०१९ लोकसभा को छोड़कर सहज, शांतिपूर्ण और निष्पक्ष नहीं हुआ। पहले कांग्रेस हिंसा और धांधलीसे चुनाव जीतती थी। बाद में माकपाके नेतृत्वमें वामदलों ने आगे बढ़कर हिंसा और धांधली को अपनाया। इनकी हिंसा का शिकार होती व जूझती हुई सत्ता तक आने वाली ममता बनर्जीने हिंसा और धंाधंलीको ही मतदानका पर्याय बना दिया। हालांकि वामदलोंके साथ टकरावमें उनकी लोकप्रियता जितनी चरम पर थी उसमें वो राजनीतिक हिंसा को रोकनेके लिए काम कर सकतीं थीं। दुर्भाग्यसे उन्होंने ऐसा नहीं किया। उनका भी सूत्र अपने पूर्ववर्तियोंकी तरह यही रहा कि चुनावके पहले हिंसक वातावरण बनाओए विरोधियोंको डराओ ताकि वे मतदान करने ना निकलें और जैसे चाहो धांधली करो। अगर कोई साहस करके मतदान केंद्र तक चला जाए तो उस पर हमला करो ताकि दूसरे ऐसा करनेका की सोच भी ना सके। चुनाव परिणामके बाद पता चले कि कुछ लोगों ने गुप्त रूप से हमारे खिलाफ मतदान किया है तो फिर उसके खिलाफ इतनी हिंसा करो कि उसकी दशा देखकर दूसरे डर जाएं। इसमें पुलिस प्रशासन की भूमिका हमेशा मूकदर्शक की रही है।
२०१८ के पंचायत चुनाव में २०,००० से ज्यादा उनके उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हुए क्योंकि चुनाव पूर्व ही हिंसा से ऐसा माहौल बनाया गया कि भय से दूसरे उम्मीदवार खड़े ही नहीं हुए या जो हुए उनके विरुद्ध किस तरह की हिंसा, आगजनी आदि हुई इसकी कुछ घटनाएं पूरे देश ने मीडियाके माध्यम से देखी। जीते लोगों तक को अपना स्थान छोड़कर भागने की नौबत तक आ गई थी। भाजपा ने तृणमूल विरोधियों और अपने समर्थकों के अंदर २०१६ से अभियानोंके द्वारा यह विश्वास पैदा करनेकी कोशिश की आप सब हिम्मत करके राजनीतिक लड़ाई के लिए आगे आएं हम आपके साथ हैं। प्रदेश के ही नहीं, भाजपाके राष्ट्रीय नेता हिंसा में मारे गए। घायल हुए, शिकार हुए समर्थकों-कार्यकर्ताओंके घर अवश्य जाने लगे।