सम्पादकीय

सरकारी मण्डियोंमें किसान


डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
सरकारी मंडियोंमें सरकारसे लाइसेंस लेकर कुछ लोगोंने अपनी दुकानें भी खोल रखी हैं। बोलचालकी भाषामें इन दुकानदारोंको आढ़तिया कहा जाता है। किसान वक्त-बेवक्त इन आढ़तियोंसे पैसा उधार भी लेता रहता है। परन्तु आढ़तियोंको अपना पैसा मारे जानेका कोई खतरा नहीं होता क्योंकि उसे पता है कि किसान अपनी फसल लेकर उसीकी आढ़तियों या दुकानपर आयगा। मंडीमें चावल या गेहूंकी खरीद आम तौरपर केंद्र या राज्य सरकारोंकी एजेंसियां ही करती हैं। एक बार जब किसान मंडीके अंदर आ जाता है तो फिर वह आढ़तियों एवं सरकारी एजेंसियोंके रहमोकरमपर हो जाता है। मंडीमें इस प्रकारकी लूट-खसोटके किस्से कहानियां पंजाब-हरियाणामें आपको कोई भी किसान फुरसतमें सुना देगा। क्योंकि सरकार धान और गेहूंका न्यूनतम खरीद मूल्य भी घोषित करती है, इसलिए कुछ बड़े किसान छोटे किसानोंका उत्पाद भी खरीद लेते हैं। ऐसे बड़े किसानोंने खुद भी मंडीमें आढ़तियोंके लाइसेंस ले रखे हैं। किसी आढ़तकी दुकानपर कितना माल बिकता है, उस हिसाबसे उसे भी कमीशन मिलता है। इसमें एक और सचाई भी है। बाहरके राज्योंसे कुछ लोग सस्ता धान-चावल खरीदते हैं। उसे सरकारी तंत्र या आढ़तियोंके साथ मिल कर पंजाब या हरियाणाकी मंडीमें लाकर न्यूनतम सरकारी खरीद मूल्यपर बेचकर चोखा पैसा कमा लेते हैं। केंद्र सरकारने इस लूट-खसोटको रोकनेके लिए नये कानून बना दिये कि किसानके लिए अब सरकारी मंडीमें माल बेचनेकी मजबूरी नहीं होगी, वह जहां भी चाहे अपना माल बेच सकता है। जाहिर है इससे बवाल मचता। जिनके निहित स्वार्थोंपर चोट होती, वह हल्ला मचाते ही। वह मचा भी रहे हैं। इन हल्ला मचा रहे समूहोंको देखकर कुछ राजनीतिक दलोंके मुंहमें भी लार टपकने लगी।
कम्युनिस्ट पार्टियां और कांग्रेसी इसमें अग्रणी हैं। इन दोनों राजनीतिक दलोंकी विश्वसनीयता पिछले एक दशकमें सर्वाधिक घटी है। अकाली दलका मामला इनसे थोड़ा अलग था। उसको लगा कि कानून अच्छे हैं या बुरे, अब यह प्रश्न प्रासंगिक नहीं रहा। पंजाबमें कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियोंने इस मामलेको जन-आंदोलन तो बना ही दिया है। यदि अकाली दल इसमें न कूदा तो वह आगामी चुनावोंमें खुद अप्रासंगिक हो जायगा। अकाली दल अभीतक नशा आंदोलनके लगे घावोंको ही नहीं भर पाया था। परिवारवादके दलदलमें तो वह फंस ही चुका है। इसलिए इस आंदोलनसे जुडऩा उसकी राजनीतिक मजबूरी बन गयी थी। लेकिन आंदोलनसे जुडऩेका अर्थ था भारतीय जनता पार्टीसे तीन दशक पुराने संबंधोंको खत्म कर लेना। यद्यपि यह कठिन कार्य था लेकिन अकाली दलके पास अब यही रास्ता बचा था। इसलिए उसने वही रास्ता चुना। यह अलग बात है कि पंजाब भाजपामें भी बहुतसे लोग चाहते थे कि पार्टी इस गठबंधनसे अलग हो जाय क्योंकि इसने प्रदेशमें भाजपाके प्रसारको रोक दिया था। लेकिन किसान संघटनोंके नामपर जिन तीस-चालीस समूहोंने इस आंदोलनको अपने आगोशमें रखा हुआ है, वे भी जानते हैं कि उनके फलको पंजाबके राजनीतिक दल रंग रोगी करके अपना बनाना चाहते हैं।
ऐसा नहीं कि इन समूहों का राजनीतिक दलों या विचारधाराओंसे संबंध नहीं हैं। इनमें अकाली, कांग्रेसी, कम्युनिस्ट इत्यादि सभी प्रकारके समूह हैं। यदि ऐसा न होता तो तीस-चालीसकी जगह एक ही सुदृढ़ किसान संघटन होता। परंतु अब भी अपनी मेहनतका फल किसी दूसरेको क्यों लेने दें। लेकिन शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटीकी नयी अध्यक्षा और अकाली दलकी वरिष्ठ नेत्री श्रीमती जागीर कौरने अपने उतावलेपनमें कई रहस्य खोल दिये। उसने कहा कि आंदोलन तो अकाली दल चला रहा है, उसने रणनीतिके तहत किसान संघटन आगे किये हुए हैं। किसान संघटन अब प्रैस कान्फ्रेंस कर-कर सफाई बगैरह दे रहे हैं। आम आदमी पार्टीके केजरीवाल दिल्ली विधानसभामें कूद-कूद कर कानूनकी प्रतियां फाड़ रहे हैं, ताकि किसान देख लें कि वह उनके समर्थनमें कितना कूद सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्यसे किसान देख नहीं रहे। किसान तो छोडिय़े, इस बार कनाडावाले भी केजरीवालकी ओर नहीं देख रहे जो पिछले विधानसभा चुनावमें केवल उनकी ओर देख रहे थे। उन्होंने कनाडा, अमेरिका इत्यादिमें पाकिस्तानके साथ मिलकर अलगसे मोर्चा संभाला हुआ है। यह अलग बात है कि वे कनाडामें खालिस्तान और किसान आंदोलनको एक ही बता रहे हैं, जबकि सड़कोंपर बैठे किसानोंका इस विदेशी खालिस्तानी आंदोलनसे कुछ लेना-देना नहीं है। योगेंद्र यादव, सीताराम येचुरी, राहुल गांधीतक सब किसान आंदोलनका समर्थन कर रहे हैं। केवल समर्थन ही नहीं कर रहे, बीचमें यह भी बता देते हैं कि यह आंदोलन हम ही चला रहे हैं। अलबत्ता मुझे लग रहा है केवल सामान्य ज्ञानके लिए राहुल गांधी कभी-कभी अर्थशास्त्री मनमोहन सिंहसे जरूर पूछ लेते होंगे कि गुड़की खेती ज्यादा लाभदायक है या गन्ने की। आखिर जिस मामलेको लेकर आंदोलन हो रहा हो, उसकी मोटी-मोटी बातें पता होनी ही चाहिए। लेकिन विपक्षी दलोंकी इस तमाम उछलकूदके बावजूद किसानोंके कंधोंको अपने राजनीतिक प्लेटफार्मके तौरपर इस्तेमाल करनेके बाद भी जो स्थानीय निकायके चुनाव राजस्थान, गोवा और बोडो क्षेत्रमें हुए हैं, वहां आम जनताने भाजपाका साथ दिया है। इन चुनावोंका जिक्र इसलिए हो रहा है क्योंकि इसमें मतदाता गांवका आदमी होता है और गांवमें या तो किसान है या फिर कृषि कार्यपर आश्रित दूसरे वर्ग। यहांतक कि केरलमें भी भाजपाने गांवोंमें पहलेसे ज्यादा अपनी पकड़ बनायी है। सड़कपर बैठा किसान देख रहा है कि उसके नामपर कितनी उछल-कूद हो रही है। किसान जानता है उसका हित कहां है क्योंकि वह जमीनसे जुड़ा हुआ है। केवल सीताराम येचुरीके लिए, कभी कार्लमाक्र्सने भी कहा था कि जमीनपर मेहनत करनेवालेकी मेहनतको बिचौलिया खा जाता था। वर्तमान कानून उसी मेहनतको किसानके ही खातेमें डालनेका प्रयास है, जबकि येचुरी बिचौलियोंके साथ हो लिये हैं