सम्पादकीय

सामाजिक कमजोरीको दर्शाता धर्मान्तरण


 राघवेन्द्र सिंह

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्टï्र है। यहां हर धर्मको माननेवालेको पूरी छूट है कि वह अपने धर्मके अनुसार अपनी जीवन पद्धति सुनिश्चित करे हमारा संविधान हर व्यक्तिको उसकी रुचि एवं आस्थाके अनुसार ईश्वर चयनकी स्वतन्त्रता भी देता है। इसीके अनुसार उसे दूसरी स्वतन्त्रताओंकी तरह बाकायदा संविधानप्रदत्त धार्मिक अधिकार भी प्राप्त हैं। फिर क्यों देशमें प्रलोभन या भयका वातावरण बना धर्मान्तरण कराया जाता है, चिन्तनका विषय है। धर्मान्तरणके संदर्भमें संविधानके भाग-३ के अनुच्छेद २५ के अनुसार लोक व्यवस्था सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भागके अन्य उपबन्धोंके आधीन रहते हुए सभी व्यक्तियोंको अन्त:करणकी स्वतन्त्रता और धर्मके अबाध रूपसे मानने, आचरण, प्रचार करनेका समान अधिकार होगा। किन्तु यदि कोई धर्मपरिवर्तनके लिए जोर-जबरदस्ती करता है या किसी गरीब व्यक्तिको धनका लोभ देकर धर्म परिवर्तन करवाता है तो यह निश्चित ही अनुचित होगा। इस स्थितिमें न्यायालयका दरवाजा खटखटा कर अनुचित काररवाईको रुकवाया जा सकता है। अनुच्छेद-२६ के अनुसार लोक-व्यवस्था सदाचार और स्वास्थ्यके अधीन रहते हुए प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी अनुभागको यह चार अधिकार प्राप्त होगें-(क) धार्मिक और धमार्थ प्रयोजनोंके लिए संस्थाओंकी स्थापना और पोषण। (ख) अपने धर्म विषयक कार्योंका प्रबन्धन करना। (ग) चल और अचल सम्पत्तिके अर्जन और स्वामित्व और (घ) ऐसी सम्पत्तिका विधिके अनुसार प्रशासन करना। अनुच्छेद-२७ के अनुसार किसी भी व्यक्तिको किसी विशेष धर्मकी अभिवृद्धि या उसके पोषणमें व्ययके लिए कोई करकी अदायगीके लिए बाध्य नहीं किया जायेगा। १९५० के दशकमें मध्य प्रदेशमें हुए एक व्यापक धर्मान्तरणपर प्रस्तुत रिपोर्टके अनुसार ईसान मिशनरियां धनके प्रभावका इस्तेमाल कर आदिवासी, गरीब, उपेक्षित हिन्दू समाजके लोगोंका धर्मान्तरण कराती थीं। स्टेनिश लास बनाम मध्य प्रदेश राज्यके विवादमें सर्वोच्च न्यायालयने कहा कि भारतीय संविधान किसी व्यक्तिको यह मूल अधिकार नहीं देता कि वह अन्य व्यक्तिको धर्मान्तरण करनेके लिए बाध्य करे अथवा प्रलोभन दे। २३ अगस्त, २००८ को स्वामी लक्ष्मणानन्द जीकी हत्या इसी विषयको लेकर की गयी थी, क्योंकि स्वामीजी लगातार उड़ीसामें हो रहे धर्मान्तरणका विरोध कर रहे थे। उनकी हत्यासे पहले भी स्वामीजीपर कई बार प्राणघातक हमले हुए थे। यह बात भी सही है देशमें धर्मान्तरण कई विषयोंको लेकर है जैसे शेष समाजका धर्मान्तिरित व्यक्तिके प्रति घृणा, उसके साथ जानवरों-सा व्यवहार, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, आर्थिक लाचारी, जबरन एवं इसी प्रकारके अन्य साधन जो धर्मपरिवर्तनके लिए औजारके रूपमें प्रयोग होते हैं।

धर्मान्तरण करवानेवाली संस्था या व्यक्ति जहां जिस प्रकारके यंत्रकी आवश्यकता होती है उसका बाखूबी इस्तेमाल करते हैं। बहुत ही कष्टïका विषय है देशकी संवैधानिक व्यवस्थामें जबरन, प्रलोभन या लालचके द्वारा धर्मपरिवर्तन नहीं कराया जा सकता। फिर देशके हर भागमें किसी न किसी रूपमें संवैधानिक व्यवस्थाके विपरीत धर्मान्तरण कराया जाता है और धर्मान्तिरित व्यक्ति या समूह धर्मपरिवर्तनके बाद निरीह या बेबस हो जाता है, क्योंकि वह भली-भांति जानता है कि अब उसके लिए हिन्दू समाजके दरवाजे हमेशाके लिए बन्द हो गये हैं अब वह चाहकर भी दुबारा वापस नहीं जा सकता। देशकी कानून व्यवस्था उसे भले ही धर्मान्तिरित न माने परन्तु हिन्दू समाज उसे पुन: स्वीकार नहीं करता। समाजके एक वर्गके साथ जानवरोंसे भी बुरा बर्ताव होने लगा, उसे अछूत समझा जाने लगा, उसका निवास गांवके बाहर होता था, उच्च जातिके लोग वहां नहीं जाते थे, उनके साथ बद्तर व्यवहार होता था, समाजका सबसे गंदा कार्य करनेकी जिम्मेदारी उन्हींकी होती थी फिर भी उनको भरपेट भोजन प्राप्त नहीं होता था। अन्य धर्मोंके लोगोंने हिन्दू धर्मके इन्हीं कुरीतियों एवं कमजोरियोंको अपना अस्त्र बना, उनका लाभ धर्मान्तरणके लिए किया। समाजमें धर्मान्तरणके लिए कई ऐसे उदाहरण भी हैं जिसमें उच्च जातिके प्रभावशाली लोगोंने किन्हीं कारणोंके चलते अन्य धर्मके व्यक्तिके घर भोजन या पानी ग्रहण कर लिया इसीपर उसे हिन्दू धर्मसे बहिष्कृत कर दिया गया तो मजबूरी वश अपने परिवारके साथ उन्होंने धर्मपरिवर्तन कर लिया।

सन् १९५६ में डा. भीम राम अम्बेडकर जीके नेतृत्वमें हजारों दलितोंने धर्मपरिवर्तन किया, उन्होनें अपनी पुस्तक दलित वर्गको धर्मान्तरणकी आवश्यकता क्यों है, के संदर्भमें लिखा है हिन्दू धर्म और समाजकी ओर यदि सहानुभूतिके लिए देखा जाय तो चारों तरफ अंधकार नजर आयेगा। क्या हिन्दू धर्मके ठेकेदारों, प्रबुद्धवर्ग या सवर्ण जातियोंने उनकी पीड़ापर ध्यान दिया या उनके आक्रोशको समझनेका प्रयत्न किया। लम्बे समयकी आन्तरिक बुराइयोंको दूर करनेका संकल्प लिया। विवेकानन्द सरीखे हिन्दू धर्मके समाज सुधारकोंने धर्मान्तरणके लिए हिन्दू धर्मकी कमियों तथा कमजोरियोंको ही मुख्य रूपसे जिम्मेदार ठहराया। वेदान्तका यह महाज्ञाता हिन्दू धर्मके इस व्यवहारिक भेदभाव पूर्ण चरित्रको समझ रहा था और उसमें परिवर्तनकी मार्मिक पुकार लगा रहा था। आज सुखद पहलू यह है कि प्राचीन समयसे आज नीची समझी जानेवाली जातियोंमें जागरूकता आने लगी है, उनमें भी शिक्षित वर्ग एवं समाज सुधारक तैयार हो रहे हंै जो अपने समाजकी चिन्ता एवं उनके अधिकारोंकी लड़ाई ईमानदारीसे लड़ते हैं, परन्तु परिवर्तनकी यह बयार काफी धीमी है, जिसे और तेज होनेकी आवश्कयता है, हिन्दुओंके प्रबुद्ध वर्ग एवं उच्च जातियोंको चाहिए वह अपनी सामाजिक कमियोंको बेहिचक स्वीकार करें, उसमें सुधारकी प्रक्रिया तेज करें ताकि दूसरे समाजके अनुचित प्रभाव उनके ऊपर न पड़ सके। धर्मान्तरण करवानेवाली संस्था या व्यक्तिको भी धार्मिक कमियों या कुरीतियोंका लाभ नहीं उठाना चाहिए, बल्कि समस्याओंका समाधान नि:स्वार्थ भावसे करना चाहिए तथा इस विषयपर देशका कानून और भी कड़ा होना चाहिए, जिससे किसी भी हालमें अनुचित ढंगसे धर्मानतरण न कराया जा सके।