सम्पादकीय

स्वास्थ्य क्षेत्रमें भारतकी उपलब्धि


रवि कान्त त्रिपाठी

विगत एक वर्षमें कोविड-१९ ने दुनियाको अनेक सबक दिये हैं। उन देशोंको सबसे ज्यादा जो स्वस्थ्य सेवा क्षेत्रमें सबसे आगे थे। लेकिन भारतने अपनी सीमित व्यवस्थामें जिस बेहतरीन तरीकेसे स्वयंको सभांला वह स्वयंमें विश्वके लिए उदाहरण है और विश्वमें इसकी प्रशंसा भी हो रही है। यथार्थको समझते हुए इस वर्षके वार्षिक बजटमें स्वास्थ्यके क्षेत्रमें अबतककी सबसे बड़ी वृद्धि की गयी। इस वर्ष स्वास्थ्य बजटमें लगभग १३७ प्रतिशतकी वृद्धि की गयी, जो अबतककी सबसे बड़ी वृद्धि है। अबतककी अवधारणा यही रही है कि देश और समाज सदा स्वस्थ रहे जिससे उसकी उन्नतिमें कोई बाधा न हो लेकिन एक बात गौर करनेकी है कि आज भी देशके बड़े शहरोंके बड़े अस्पतालोंपर मरीजोंको लेकर बहुत अधिक दबाव है। एम्स पीजीआई और अन्य बड़े मेडिकल कालेजोंमें मरीजोंकी भींड़, डाक्टरोंपर दबाव, आपरेशनकी लंबी प्रतिक्षा सूची-ऐसे दृश्य हैं जो गंभीर चिंतनको मजबूर करते हैं। प्रधान मंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजनाके विस्तार स्वरूप केंद्र सरकारने कुल २२ एम्सकी स्थापनाकी स्वीकृति दी है जिसमेंसे सात एम्स काम कर रहे हैं और छह एम्स शीघ्र शुरू होनेवाले हैं शेष निकट भविष्यमें शुरू होंगे। इसके अतिरिक्त प्रत्येक बड़े शहरमें उच्च क्षमताके सुपर स्पेशियालिटी मेडिकल कालेज स्थापित हैं और बहुतसे मेडिकल कालेज अन्य छाटे-बड़े शहरोंमें बननेवाले हैं जो निकट भविष्यमें प्रारम्भ होंगे। लेकिन सोचनेकी बात ये है कि क्या हमारी आबादीको देखते हुए ये अस्पताल पर्याप्त होंगे ?

हमारे देशकी पैंसठसे सत्तर प्रतिशत आबादी गावोंमें रहती है और उन्हें अपना बेहतर इलाज करानेके लिए शहरोंकी ओर जाना पड़ता है। जबकि शहरी और ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओंकी तुलना करें तो ग्रामीण क्षेत्रोंमें १९८१० सरकारी अस्पतालोंमें पौने तीन लाखसे अधिक बेड हैं और शहरी क्षेत्रोंके ३७७२ सरकारी अस्पतालोंमें कुल बेडकी संख्या सवा चार लाखसे अधिक है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रोंकी स्वास्थ सुविधाओंका अंतर स्पष्ट है। प्राइवेट अस्पताल शामिल नहीं हैं। वैसे भी इन प्राइवेट अस्पतालोंमें सामान्य शहरी या ग्रामीण गरीब जानेसे कतराता है। इसकी दो मुख्य वजह है- इलाजका महंगा होना एवं छले जानेका डर और दूसरा गुणवत्तापूर्ण इलाजका अभाव। २०२०-२१ के आर्थिक सर्वेक्षणके अनुसार सरकारी अस्पतालोंमें शिशु मृत्युदर एक प्रतिशतसे भी कम है जबकि निजी अस्पतालोंमें साढे तीन प्रतिशतसे भी अधिक है। यदि खर्चकी तुलना करें तो सरकारी अस्पतालोंकी तुलनामें निजी अस्पतालोंमें कैंसरका इलाज लगभग पौने चार गुना, दिलका इलाज लगभग पौने सात गुना, चोटिल होनेपर लगभग छह गुना, पेटकी बीमारीमें लगभग सवा छह गुना और सांसोंकी बीमारीपर लगभग सवा पांच गुना महंगा पड़ता है। सरकारी और निजी अस्पतालोंमें इलाजके खर्चमें इतना अंतर किसी भी सामान्य व्यक्तिको सोचनेपर विवश करता है। इस वर्षके बजटमें स्वास्थ्यके क्षेत्रमें १३७ प्रतिशतकी सबसे बड़ी वृद्धि की गयी है, ताकि बड़े कदम उठाये जा सकें तभी तो आनेवाले दिनोंमें ७५००० स्वास्थ्य केंद्र खोले जानेकी बात कही गयी है वैसे ही ६०२ जिलोंमें क्रिटिकल केयर हास्पिटल खोलने और १७ पब्लिक हेल्थ यूनिट चालू करनेकी बात है। लेकिन इसके बावजूद हमारे देशमें अब भी १४ लाख डाक्टरों, २० लाख नर्सोंकी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संघटन प्रति एक हजार लोगोंपर एक डाक्टरकी सिफारिश करता है परन्तु यहां वास्तविकता इससे कोसों दूर है। स्पष्ट है कि स्वास्थ्यके क्षेत्रमें बहुत बड़ी शुरुआतकी जरूरत है। अच्छी बात यह है कि वर्तमानमें अस्पतालोंमें नयी-नयी तकनीकि, सुविधाओं और सेवाओंका लगातार विस्तार हो रहा है। नये-नये मेडिकल कालेज खुल रहे हैं फिर भी अनेक सुधारोंकी निरंतर जरूरत होती है। अस्पतालोंका घनत्व शहरोंकी ओर अधिक है, गांवो और कस्बोंकी ओर कम है। गंभीर और अति गंभीर मरीजोंके इलाजके लिए शहरोंकी ओर दौड़ लगाना पड़ता है ऐसेमें बेहतर है कि स्वास्थ्यके क्षेत्रमें दर्शन और तकनीकीके समन्वयपर आधारित आवश्यकताओंके हिसाबसे विस्तृत विश्लेषणात्मक अध्ययन करके वृहद निष्कर्षपर पहुंचा जाय। अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य सुविधाओंका विकास गांवोंको आधार बनाकर किया जाय जिसके केंद्रमें प्रत्येक ब्लाक और तहसील होंजिसे आधार बनाकर जिले एवं कमिश्नरीतक अस्पतालोंको श्रृंखलाबद्ध स्थापित किया जाय जिसमें सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, सब डिवीजनल और जिला अस्पताल एवं मंडलीय अस्पताल शामिल हों। ऐसा करनेसे ब्लाकसे कमीश्नरीके बीच अस्पतालोंका एक शंक्वाकार ढांचा खड़ा होगा। जो समाजको व्यवस्थित इलाज देनेमें बहुत ही कारगर भूमिका निभायेगा।

देशमें बेहतर चिकित्सकीय व्यवस्था स्थापित करनेके लिए जरूरी है कि अबतक बेतरतीब स्थापित किये गये सभी छोटे-बड़े अस्पतालोंको अब ब्लाक तहसील जिला और मंडलतक सुविधाओं के बढ़ते क्रममेंएक व्यवस्थित रूप दिया जाय अर्थात यह सुनिश्चित हो कि प्रत्येक ब्लाक और तहसीलमें छोटा किंतु उन्नत किस्मका अस्पताल हो जहां छोटे पैमानेपर सभी सुविधाएं उपलब्ध हों, जिनमें कुछ विशेषज्ञ डाक्टर, उन्नत पैथालाजी भी हो, ताकि इलाज बेहतर हो। इन अस्पतालोंकी ग्रेडिंग भी तय की जाय, ताकि लोग इन अस्पतालोंकी क्षमतासे परिचित हो सकें। वर्तमानके पीएचसी और सीएचसी किसी छोटे क्लिनिकसे ज्यादा बोध नहीं दे पाते। उसी प्रकार प्रत्येक जिला अस्पतालको भी सर्व सुविधा सम्पन्न किया जाना चाहिए जहां सभी गंभीर बीमारियोंका इलाज हो सके। इसके ऊपर प्रत्येक मंडल मुख्यालयपर भी मल्टी स्पेशियालिटी विशेषताओंवाला एक अस्पताल होना चाहिए। जो पीजीआईके स्तरका हो और सबके शीर्षपर एम्स हो, छोटे और बड़े राज्योंमें एम्सकी संख्याके बारेमें अलग-अलग नियम हो सकते हैं।

इस श्रेणीबद्ध विस्तारका दार्शनिक पक्ष यही है कि प्रत्येक व्यक्तिको यदि वह ग्रामीण है तो उसे सामान्य इलाजके लिए अपने ब्लाक या तहसीलसे बाहर और गंभीर बीमारियोंके इलाजके लिए अपने जिले या कमिश्नरीसे बाहरकी दौड़ न लगानी पड़े। उसी प्रकार छोटे शहरोंके लोगोंको बड़े शहरोंकी ओर न भटकना पड़े। ऐसी व्यवस्थासे मरीजों और उनके परिजनोंको दूरकी भागदौड़ नहीं करनी पड़ेगी और घरके आसपास बेहतर इलाज भी उपलब्ध हो जायेगा साथ ही उनके पैसेकी भी बचत होगी। स्वास्थ्य सेवाओंके निरंतर सुधार और उन्नतिके बावजूद हमारा देश डब्ल्यूएचओके मापदण्डसे बहुत पीछे है लेकिन जिस प्रकार निरंतर नये-नये स्वास्थ्य संस्थान खोले जा रहे हैं और उनका विस्तार एवं आधुनिकीकरण केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा किया जा रहा है उससे वह दिन दूर नहीं जब हम एक समयपर इन वैश्विक मापदण्डोंको पा लेगें इसके लिए सिर्फ इच्छाशक्तिको जगाये रखनेकी जरूरत है। इस बजटमें केंद्र सरकारने एक बड़ी शुरुआत की है राज्योंको भी साथ बढऩेकी जरूरत है। बेहतर और सुचारु ढांचा तभी स्थापित हो सकेगा जब लोक स्वास्थ्य और आयुर्विज्ञान अपने श्रेष्ठतम रूपमें होंगे।