सम्पादकीय

किसानोंकी आड़में राजनीति


डा. शंकर सुवन सिंह
हालमें किसानों द्वारा भारत सरकारपर एमएसपी(मिनिमम सपोर्ट प्राइस) पर कानून बनानेपर जोर दिया जा रहा है, जिसके चलते किसान आंदोलित हैं। सरकार एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर कानून बनानेको राजी नहीं है। सरकार किसानोंको यह आश्वासन जरूर दे रही कि एमएसपी खत्म नहीं होगा और किसानोंकी फसल सरकार एमएसपीपर खरीदती रहेगी। सरकार किसानकी फसलके लिए एक न्यूनतम मूल्य निर्धारित करती है, जिसे एमएसपी कहा जाता है। एमएसपीमें सरकारकी तरफसे गारण्टी होती है कि हर हालमें किसानको उसकी फसलके लिए तय दाम मिलेंगे। यदि मंडियोंमें किसानको न्यूनतम समर्थन मूल्य या उससे ज्यादा पैसे नहीं मिलते तो सरकार किसानोंसे उनकी फसल एमएसपीपर खरीद लेती है। इससे बाजारमें फसलोंकी कीमतोंमें होनेवाले उतार-चढ़ावका किसानोंपर असर नहीं पड़ता। स्वतंत्रताके बाद शुरुआती दशकोंमें किसानोंकी फसलोंका अत्यधिक उत्पादन हो जानेपर उन्हें उसके अच्छे दाम नहीं मिल पाते थे। फलस्वरूप किसान अपनी फसलोंका वाजिब दाम पानेके लिए आन्दोलन करने लगे।
तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्रीने १ अगस्त, १९६४ को एल.के. झाके नेतृत्वमें एक समिति बनायी जिसका काम अनाजोंकी कीमतें तय करना था। समितिकी सिफारिशें लागू होनेके बाद १९६६-६७ में पहली बार गेहूंके लिए एमएसपीका ऐलान किया गया। इसके बादसे हर साल सरकार बुवाईसे पहले फसलोंका एमएसपी घोषित कर देती है। देशमें एमएसपी तय करनेका काम कृषि लागत एवं मूल्य आयोगका है। कृषि मंत्रालयके तहत काम करनेवाली यह संस्था शुरुआतमें कृषि मूल्यके नामसे जानी जाती थी। बादमें इसमें लागत भी जोड़ दी गयी, जिससे इसका नाम बदलकर कृषि लागत एवं मूल्य आयोग हो गया। यह अलग-अलग फसलोंके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्यका निर्धारण करती है। वहीं गन्नेका एमएसपी तय करनेकी जिम्मेदारी गन्ना आयोगके पास होती है। एमएसपी तय करनेके बाद सरकार स्थानीय सरकारी एजेंसियोंके जरिये अनाज खरीदकर फूड कॉरपोरेशन आफ इंडिया (एफसीआई) और नेफेड (नेशनल एग्रीकल्चरल को-ऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) के पास उसका भंडारण करती है। फिर इन्हीं स्टोर्ससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिये गरीबोंतक सस्ते दामोंमें अनाज पहुंचाया जाता है। शुरुआतमें केवल गेहूंके लिए एमएसपी तय किया गया था। इससे किसान बाकी फसलोंको छोड़कर सिर्फ गेहूंकी फसल उगाने लगे, जिससे अनाजोंका उत्पादन कम हो गया। फिर सरकारकी तरफसे धान, तिलहन और दलहनकी फसलोंपर भी एमएसपी दिया जाने लगा। फिलहाल धान, गेहूं, मक्का, जई, जौ, बाजरा, चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर, सरसों, सोयाबीन, सूरजमूखी, गन्ना, कपास, जूट समेत बीससे अधिक फसलोंपर एमएसपी दिया जाता है। फसलोंकी बुआईसे पहले एमएसपी तय की जाती है। जबकि कटाईके बाद प्रोक्योरमेंट घोषित किया जाता है। दरअसल साल १९६८-६९ के बादसे ही एमएसपी और प्रोक्यरमेंटको एक जैसा समझा जाने लगा। प्रोक्योरमेंटके लिए अलगसे कोई व्यवस्था नही की गयी।
एमएसपीको ही प्रोक्योरमेंट माना जाने लगा। आज किसान बिल आनेके बाद शोर मचाया जा रहा है कि किसानोंके साथ अन्याय हो रहा है लेकिन १९६९ के बादसे ही एमएसपी और प्रोक्योरमेंटको एकमें ही मिला दिया गया। जिसके चलते हुआ है कि बुआईसे पहले और कटाईके बाद जो फसल उगानेका खर्च बढ़ा उसके बारेमें किसीने सोचा ही नहीं, न पुरानी सरकारने, न ही मौजूदा सरकारने। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी अपनी राजनीति चमकानेके लिए किसान बिलको आधार बना रही है। किसानोंका मसला है और देशका असली किसान सरकारके पक्षमें है। सड़कपर उतरकर आन्दोलन करनेवाला हर व्यक्ति किसान नहीं है। किसानोंकी आड़में राष्ट्र विरोधी तत्व भी अपना हाथ सेंकनेमें कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। एमएसपी और प्रोक्योरमेंट पुराना मसला है अतएव किसानोंको भी चाहिए कि आपसी सहमतिका परिचय दें। देशका असली किसान अपने खेतों खलिहानोंमें है, न कि सड़कोंपर, जो किसान सड़कपर हैं उसको भी राष्ट्रहितके बारेमें सोचना चाहिए, न कि राष्ट्रके विरोधमें। किसानकी बात सरकार मान ले तो राष्ट्रकी अर्थव्यवस्थापर काफी बोझ पड़ जायगा। भारत सरकारको राष्ट्रकी अर्थव्यवस्था भी देखनी है। यहां तो आन्दोलित किसान और विपक्षी पार्टियां सिर्फ और सिर्फ अपना भला देख रहे हैं। किसानोंसे एमएसपीपर खरीदे गये अनाजसे सरकार सिर्फ पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) में राशन बांटती है। बाजारमें किसी अनाजकी कमी होती है तो सरकार अपने भण्डारसे अनाज जारी करती है। भण्डारोंमें रखा सरकारका अधिकतर अनाज खराब हो रहा है।
इसके बावजूद सरकार हर साल किसानोंसे अनाज खरीदती है जो अर्थव्यवस्थाके लिए ठीक नहीं है। कृषि अर्थशास्त्री प्रोफेसर अशोक गुलाटीका कहना है, आज देशमें इतना अनाज है कि देशमें रखनेकी जगह नहीं है। किसान कहता है कि मेरेसे ले लो, चाहे जहां फेंको। आज देशको दलहन और तिलहनकी जरूरत है। इनका काफी आयात होता है। उनके लिए प्रोक्योर करके एमएसपी क्यों नहीं करते हैं। क्या सिर्फ गेहूं और चावलसे आगे बढऩा है हमें। सरकार भले ही बीससे ज्यादा फसलोंके लिए एमएसपी तय करती है, लेकिन आम तौरपर सरकारी स्तरपर खरीद केवल गेहूं और धानकी हो पाती है। ऐसेमें सभी किसानोंको एमएसपीका फायदा नहीं मिल पाता। इसकी वजह यह है कि गेहूं और धानको सरकार पीडीएस प्रणालीके तहत गरीबोंको देती है इसलिए उसे इसकी जरूरत होती है। बाकी फसलोंकी उसे इतने बड़े स्तरपर जरूरत नहीं पड़ती, इसलिए उनकी खरीद नहीं हो पाती।
किसान बिलपर सबसे ज्यादा जोर पंजाब और हरियाणाके किसानका ही क्यों है, क्योंकि एमएसपीका सबसे ज्यादा फायदा पंजाब और हरियाणाके किसानोंको मिल रहा है। पंजाबके किसानोंका ९५ प्रतिशतसे ज्यादा अनाज तो एमएसपीपर बिक जाता है लेकिन बाकी देशके सिर्फ छह प्रतिशत किसान ही अपना अनाज एमएसपीपर बेच पाते हैं। वहीं सरकारके लिए समस्या यह है कि यदि उसने सभी फसलें एमएसपीपर खरीदनी शुरू कर दीं तो सरकारके खजानेपर बहुत ज्यादा बोझ पड़ जायगा। कृषि अर्थशास्त्री विजय सरदानाका कहना है, फसलोंका पूरा प्रोडक्शन निकालते हैं और पूरा एमएसपी खरीदते हैं तो ये पूरा १५ लाख करोड़ होता है, जिस तरहसे किसानोंने घेराबंदी कर दी है, यदि प्राइवेट सेक्टर भी कह दे कि हम नहीं खरीदेंगे तो सरकार क्या करेगी। व्यापारी वर्ग क्या करेगा। वह कहेगा हम बाजारसे नहीं खरीदेंगे, सरकारसे खरीदेंगे तो सरकारको १५ लाख करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे। ऐसेमें किसान खड़ा होगा और कहेगा कि मैं सब कुछ छोड़कर वही उगाऊंगा जो सरकार खरीदेगी। ऐसा होनेपर ३० लाख करोड़ रुपयेका कृषि खरीदका बजट होगा और टोटल रेवेन्यू १६ लाख करोड़ है तो क्या देशपर ताला लगवाना है। किसान अर्थव्यवस्थाकी रीढ़ है तो उसका आंदोलन अर्थव्यवस्थाको कमजोर कर रहा है। अत: न्यूनतम समर्थन मूल्यपर किसानोंका आंदोलन अपरिपक्वताकी निशानी है।