सम्पादकीय

मौलिक अधिकारमें स्वास्थ्य


चिन्ता जताते हुए सुप्रीम कोर्टने कहा है कि इस अभूतपूर्व महामारीसे पूरा विश्व युद्ध लड़ रहा है। यह कोरोनाके खिलाफ विश्वयुद्ध है। साथ ही कोर्टने यह भी कहा है कि इसमें सस्ता यानी वहन करने योग्य इलाज अति आवश्यक है। यह सही है कि कोरोना संक्रमण जंगलमें आगकी तरह फैला विश्व एवं स्वास्थ्य विभाग सम्भल पाते कि संक्रमणने लाखों जिन्दगियोंको लील लिया। नियमोंके पालनमें जबतक सरकारें सचेत हुईं तबतक लोगोंने नियमोंकी अनदेखी करके कोरोनाको विस्तार दे दिया। हालांकि शुरुआतमें लोग भले ही डरे-सहमे नजर आये, परन्तु धीरे-धीरे लोगोंमें बेफिक्रीसे कोरोनाने अपने डरावने डैनेको इस कदर फैलाया कि मृतकोंकी संख्या नम्बरोंसे होते हुए आंकड़ोंमें दर्ज होने लगी। हालांकि भारतीय आयुर्वेद पद्धतिसे लोगोंने अपनी प्रतिरोधक क्षमताको बढ़ानेके लिए टीकाके अभावमें आयुर्वेदकी शरणमें स्वयंको सुरक्षित रखनेका रास्ता ढूंढऩेकी अवश्य कोशिश की। सरकार भी दृढ़प्रतिज्ञ नजर आयी, नियमोंका पालन न करनेवालोंपर सख्त हुई। अत: प्रत्येक स्तरपर सतर्कता आवश्यक है। अदालतने कहा भी कि किसीको भी दूसरेकी जानसे खेलने और दूसरोंके मौलिक अधिकारको बाधित करनेकी इजाजत नहीं दी जा सकती। भले ही भारतसे लेकर विश्वके कई देश कोरोना वैक्सीन विकसित करनेका दावा कर रहे हों परन्तु अब भी यह पूर्णरूपेण सुरक्षित नहीं कहा जायगा। कोरोना टीका लगनेके बाद हरियाणाके मंत्री अनिल विज संक्रमित हो गये। अदालतका कहना भले ही निष्पक्ष एवं अनुकरणीय हो कि स्वास्थ्य प्रत्येक व्यक्तिका मौलिक अधिकार है परन्तु भारत जैसे अति जनसंख्यावाले देशमें कोरोना टीका प्रत्येक व्यक्तिको मिलना ‘टेढ़ी खीरÓ ही नजर आ रही है। परन्तु यह असम्भव नहीं है। भारतमें सरकारी स्वास्थ्य सेवाओंका दो दशक पूर्व अत्यन्त बुरा हाल था। चिकित्सकोंकी कमी, दवाओंका अभाव था। आज भी ग्रामीण अंचलमें सरकारी स्वास्थ्य सेवाओंका हाल किसीसे छिपा नहीं है। देश आज भी डाक्टरोंकी कमीसे जूझ रहा है। बड़े शहरोंमें बड़े अस्पतालोंपर अत्यधिक बोझ है। कई मामले ऐसे भी सामने आये जहां चिकित्सकों एवं स्वास्थ्यकर्मियोंने मरीजोंके साथ इतनी लापरवाही की कि मरीजका जीवन ही जोखिममें पड़ गया। कई बार गम्भीर मरीजोंकी सिर्फ इसलिए जान चली गयी क्योंकि चिकित्सकोंने घोर लापरवाही की। अब जबकि सुप्रीम कोर्टने स्वत: संज्ञान लेते हुए कहा है कि अच्छा स्वास्थ्य मनुष्यका मौलिक अधिकार है तो यह अत्यन्त प्रासंगिक है। निश्चित रूपसे सरकारको इसपर गाइडलाइन लाना चाहिए और अपने देशवासियोंको सुरक्षित जीवन जीनेका भरोसा देना चाहिए।
ज्वलन्त प्रश्न
हाथरसके बूगढ़ी गांवमें युवतीके साथ सामूहिक दुष्कर्मके बाद हत्याके मामलेमें सीबीआईने हाथरसके विशेष न्यायालय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियममें दो हजारसे अधिक पेजकी चार्जशीट दाखिल किया है। इस प्रकरणमें सीबीआईने पीडि़त युवतीके अन्तिम बयानको चार्जशीटका आधार बनाया है। इसके साथ ही आरोपित लवकुशको भी बालिग माना है। हालांकि साथमें सीबीआईने यह भी कहा है कि जबतक अदालत आरोपियोंको दोषी न ठहराये, उन्हें अपराधी न माना जाय। सीबीआईने ६७ दिनोंकी जांचके बाद पीडि़ताके अन्तिम बयानको ही आधार बनाया। अदालत अब चार्जशीटका अवलोकन कर रही है। मृत्यु पूर्व बयानमें युवतीने दुष्कर्मकी बात तो कही थी, परन्तु पुलिसने मेडिकल, पोस्टमार्टम एवं फोरेंसिक जांचमें दुष्कर्म न होनेकी पुष्टि की थी। हालांकि पुलिसने घटनाके बाद एक सप्ताहमें ही चारों आरोपियोंको गिरफ्तार भी कर लिया था। तभीसे चारों जेलमें हैं। परन्तु इस घटनासे राजनीतिक उबाल शिखरपर पहुंचा था। चूंकि युवती दलित समाजसे थी अत: उसपर राजनीतिक बवण्डर भी जबरदस्त हुआ। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि आजके प्रगतिशील समाजमें भी जातिवादकी जड़ें गहरी हैं। दबंग समाज अपना वर्चस्व स्थापित करनेके लिए इस प्रकारकी घटनाओंको अंजाम देते हैं। अफसोस तो इस बातका है कि तमाम सख्त कानूनोंके बावजूद देशभरमें जमीनी स्तरपर महिलाओंके खिलाफ असुरक्षा और अपराधोंकी स्थितिमें कोई फर्क नहीं आया। हालांकि उत्तर प्रदेशके मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथने राज्यको अपराधमुक्त बनानेके लिए कड़े कदम उठाये हैं। हाथरस मामलेमें उठे बवण्डरपर योगी आदित्यनाथने तीन सदस्यीय एसआईटी गठित कर पूरे प्रकरणकी गहनतासे जांचके निर्देश दिये थे। बादमें राज्य सरकारकी सिफारिशपर सीबीआईने ११ अक्तूबर, २०२० को अपना केस दर्ज कर जांच शुरू कर दिया था। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरोकी रिपोर्टमें बताया गया कि महिलाओंके खिलाफ अपराधोंके मामलेमें स्थिति गम्भीर है। कई बार खबरें ऐसी भी आयी हैं जहां दुष्कर्म पीडि़ता पुलिस थानोंके चक्कर लगाते-लगाते इतनी टूट गयी कि मृत्युको ही गले लगा लिया। कई बार नन्हीं बच्चियां भी इन दरिन्दोंके निशानेपर आ गयीं। लखीमपुर खीरीमें तीन वर्षकी बच्चीके साथ दुष्कर्म और उसकी हत्याकी घटनाने सभ्य समाजको झकझोर कर रख दिया। समाजमें ऐसी विकृति गम्भीर चिन्ताका विषय है। इंटरनेटपर आसानीसे उपलब्ध नीले कैक्टसने ऐसी संस्कृतिको भी जन्म दिया है जहां पुरुषोंकी नग्नता क्रूर अट्टïहास करती नजर आती है और विस्तृत नभमें असुरक्षित-सी कोमलांगना अपने निष्कलंक आंचलको समेटनेकी असहज कोशिशमें तार-तार हो रही हैं। सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि समाजकी मानसिकता कैसे बदली जाय।