सम्पादकीय

भ्रष्टाचार समाप्ति बिना विकास बेमानी


श्यामसुन्दर मिश्

हमारे नीति-नियंता एवं देशके कर्णधारोंने देशके बैंकिंग एवं औद्योगिक क्षेत्रोंमें उल्लेखनीय प्रगति करते हुए यह मान लिया है कि  देश शीघ्र ही विश्वकी आर्थिक महाशक्तियोंमें शुमार हो जायगा। किन्तु विचारणीय है कि क्या आर्थिक प्रगतिसे ही आम जनताको सुख-शान्ति एवं सुरक्षा मिल जाती है। कटु सत्य है कि जबतक आम इनसानको रोटी-कपड़ा-मकान एवं सुरक्षा प्राप्त नहीं हो जाती देशको पर्यटन हब एवं औद्योगिक क्रान्तिका लाभ नहीं मिल सकता। क्योंकि इनसका लाभ चंद उद्योगपतियों एवं राजनेताओंको ही मिल पाता है, जो देशकी आबादीका बीस प्रतिशतसे भी कम ही होंगे। इनकी उपलब्धियोंको देशकी उपलब्धि घोषित करना आम जनताके साथ घोर विश्वासघात है। इनसानकी मूलभूत आवश्यकता रोटीके लिए किये गये प्रयासोंसे अन्नकी रिकार्ड पैदावार तो हुई किन्तु भण्डारणके लिए जिम्मेदारोंकी गैर-जिम्मेदाराना हरकतों एवं भ्रष्टïाचारके चलते एक-चौथाई अन्न सड़ जाता है एवं एक-चौथाईसे अधिक कालाबाजारियोंकी गोदामोंमें पहुंचकर उनकी एवं अधिकारियोंकी तिजोरियां भरती हैं। शेष अनाज जो बामुश्किल चालीस प्रतिशत ही कहा जा सकता है। सार्वजनिक वितरण प्रणालीके माध्यमसे गरीब एवं असहायोंके नामपर नाम मात्रके मूल्यपर बेचनेकी व्यवस्था करके अपनी पीठ थपथपानेका प्रयास किया जाता है। जबकि जमीनी हकीकत यह है कि राशनकार्ड बनानेवालोंमेंसे अधिकांश भ्रष्टïाचारकी मानसिकताके अलावा जातिवाद, पार्टीवाद एवं राजनेताओंकी मानसिकताको अनुरूप अपात्रोंका ही चयन ज्यादा करते हैं बीपीएल कार्ड जैसी योजनाएं गरीबों एवं असहायोंके लिए वरदान ही कही जायगी। अकाल एवं कोरोना जैसी महामारियोंमें गरीबी रेखाके नीचे जीवन जीनेवालोंकी भूख मिटाने एवं अन्य समस्याओंके निराकरणके लिए मोदी सरकारने जो अभिनव प्रयास किये हैं उसकी जितनी भी तारीफ की जाय, कम है। किन्तु आंकड़े बताते हैं कि कोरोना कालमें देशमें अरबपतियोंकी संख्यामें उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। सरकारी नौकरियों एवं व्यापारमें लगे लोगोंके भी हजारों बीपीएल कार्ड शासन व्यवस्थाको मुंह चिढ़ानेके लिए पर्याप्त है। इसके बावजूद अपनी योजनाओंके धुंआधार प्रचारमें आम जनताकी धरोहर लुटानेमें कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही है। योजनाओंकी जानकारी देना तो उचित है किन्तु उसकी सफलताके कागजी आंकड़े प्रस्तुत कर आम जनताको प्रभावित करनेके प्रयास हास्यास्पद है, क्योंकि कागजोंपर पांच मीटरकी जगह ५०० मीटर सड़कोंका निर्माण दिखा देने जैसे अनक कार्य प्रचलनमें आ चुके हैं। विचारणीय विषय है कि एक करोड़की राशिसे पूरे किये जानेवाले प्रोजेक्टका चालीस प्रतिशत कमीशनमें चला जाय एवं तीस प्रतिशत अधिकारियोंकी बंदरबांटमें तो ईमानदारसे ईमानदार कार्यदायी संस्था उस प्रोजेक्टको कितना मजबूत एवं टिकाऊ बना सकती है। वैसे भिन्न-भिन्न सरकारोंमें कमीशन राशि घटती-बढ़ती रही है किन्तु ऐसा सम्भव न हो सका है कि पूरीकी पूरी धनराशि निर्माण एवं कल्याण कार्यक्रमोंमें निर्बाध रूपसे लगातार ईमानदारी एवं निष्ठïासे सामाजिक सरोकारसे जुड़े कार्य पूरे किये गये हों। अब संस्कार देनेवालोंकी बात करें तो कुलपतिसे लेकर शिक्षा विभागका कोई भी घटक भ्रष्टïाचार, व्यभिचार एवं फर्जी आधारपर नियुक्तियोंसे अछूता नहीं रहा है। व्यवस्थातंत्रकी चक्कीमें योग्यता एवं निष्ठïाएं निरन्तर पिस रही हैं। माना कि उद्योगपति देशकी रीढ़ एवं शान हैं किन्तु हवसके चलते देशकी व्यवस्था एवं संसाधनोंको अपना गुलाम बनाकर वह आम जनताका कितना भला कर रहे हैं यह सर्वविदित है। छोटे-मोटे उद्योगके लिए आमजनोंको दस-बीस हजारके ऋणके लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं यह सभी जानते हैं। किन्तु बड़े उद्योगपतियोंको हजारों करोड़का ऋण बिना किसी गारण्टी अथवा व्यवधानके दे दिया जाता है। क्योंकि उसमें बैंक अधिकारियोंके हित छिपे रहते हैं। साथ ही सांसद, विधायक, एवं मंत्रियोंका दबाव भी। अत: वे लोग ऋण चुकानेके दायित्वसे स्वयंको मुक्त मानने लगे हैं। विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे अनेक लोग अकूत धनराशि विदेशोंमें ट्रांसफर कर वहां शिफ्ट हो गये और वहांकी नागरिकता ग्रहण करके स्वयंको सुरक्षित कर लिया। उनसे ऋण वसूलना तो दूर उन्हें भारत लाकर दंडित करना भी मुश्किल है। देर-सबेर उन्हें ले भी आये तो धन वसूली नाम मात्रकी ही सम्भव है, क्योंकि स्वहित एवं सत्ताधीशोंके दबावमें दिये गये ऋणको वसूलनेमें सम्भवत: उन्हें आत्मग्लानि होती होगी। अत: एनपीए अर्थात्ï रकमको बट्टïे खाते डालनेकी प्रथा ईजाद कर ली गयी है। छोटे-मोटे कारोबारी अथवा उद्योगपतिका ऋण भी बट्टïे खातेमें डाला गया हो ऐसा भूले-भटके ही हुआ हो। इतना जरूर है कि वोटके लालचमें किसानोंके छोटे-मोटे ऋण माफ करनेकी घटनाएं प्रकाशमें आती रहती हैं। प्रश्न यह उठता है कि शासन-प्रशासन अथवा बैंक सभी आम जनताकी गाढ़ी कमाईके कस्मोडियन हैं मालिक नहीं, फिर किस आधारपर बिना गहन छानबीपके मात्र साखका हवाला देते हुए हजारों करोड़के ऋण बांट दिये जाते हैं। क्या डूबी रकमकी वसूली जिम्मेदारोंकी निजी सम्पत्तिसे सम्भव है। यदि नहीं तो क्यों बड़े-बड़े ऋण देकर आंकड़े पेश किये जा रहे हैं कि हमने विकासके लिए इतने लाख करोड़के ऋण बांटे। जबकि सत्य यह है कि उन्होंने अपने चेहतों एवं शुभचिंतकोंको ऋण बांटकर अपने सिंहासनको मजबूत करनेका ही प्रयास किया है, क्योंकि यह शुभचिन्तक ही उनकी चुनावी वैतरणीको पार लगानेमें सहायक होते हैं। सत्ताकी ललक ऐसी होती है कि उसमें प्रवेश करते ही ईमानदारसे ईमानदार व्यक्तिकी मानसिकता बदल जाती है। कोई बिरला ही अपने सिद्धान्तोंपर अडिग रहता है किन्तु उसकी आवाज नक्कारखानेमें तूतीकी आवाज बनकर रह जाती है।

प्रधान मंत्री मोदीने कश्मीर समस्याको हल करके अपनी दृढ़ संकल्पशक्तिका प्रदर्शन किया है और पांच सौ वर्षोंसे लटक रहे राम मन्दिर मुद्देका सर्वमान्य समाधान करके असम्भवको भी सम्भव कर दिखाया है। आम जनोंको सहायता राशि डायरेक्ट खातेमें पहुंचाकर भ्रष्टïाचारपर लगामका दावा किया है किन्तु तू डाल-डाल, मैं पात-पातकी तर्जपर भ्रष्टïाचारी लाभार्थीका चयन करते समय ही वसूली कर लेते हैं। भ्रष्टïाचार और अनुशासनका अभाव उनकी सभी योजनाओंकी छीछालेदर करनेमें कोई कोरकसर नहीं छोड़ रहे। इनपर लगाम लगाये बिना कागजी आंकड़े पेश करके खुद ही अपनी पीठ थपथपाना मोदीके समस्त कल्याणकारी योजनाओंका मजाक ही कहा जायगा। काम स्वयं बोलता है उसे प्रचारकी आवश्यकता नहीं। इस सत्यको प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीको स्वीकार करना ही होगा। भ्रष्टïाचारका खात्मा किये बिना विकासकी कल्पना ही बेमानी है।