आनन्द उपाध्याय
अन्तत: नन्दीग्राममें प्रचार अभियानकी समाप्तिके पूर्व इलाकेमें सुबह ममता बनर्जीने जहां ३० फीसदी मुस्लिम बैंकके अपने परम्परागत वोट बैंकको साधनेके लिए जय श्रीरामके नारे लगानेवालोंको घटिया आदमीका नया तमगा दिया, वहीं दुपहरतक अन्य सभामें बहुसंख्यक समुदायके ७० प्रतिशत मतदाताओंको साधनेकी चाल चलते हुए बाकायदा अपने ब्राह्मïण होनेकी पैंतरेबाजीके नये कार्ड खेल कर अपने शांडिल्य गोत्र होनेकी उद्ïघोषणा कर डाली। इसी तर्जपर बीते दिनों लोकसभा चुनावमें अपने प्रचार अभियानमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके नेता राहुल गांधीको भी सार्वजनिक रूपसे स्वयंको जनेऊधारी होनेके साथ गोत्रका भी सार्वजनिकरण करना पड़ा था। राहुल गांधीका मंदिर परिक्रमा करनेका नया शिगूफा भी हर चुनावी मौकेपर देशकी जनताको देखनेका नया तजुरबा भी हुआ। प्रियंका भी पूरे जोश-खरोशके साथ उत्तर प्रदेशके दौरेमें कहीं गंगाजीमें डुबकी लगाती दिखती हैं तो कहीं मंदिरमें आराधना करते नजर आने लगी हैं। २०१४ से पहले भाजपाको छोड़ बाकी सभी छोटे-बड़े यहांतक कि नवोदित दलोंके नेताओंमें रोजाइफ्तार पार्टीमें बढ़-चढ़कर शामिल होनेकी बाकायदा होड़-सी लग जाती थी। ईदमिलन समारोहमें चलनेवाले फोटो सेशन इन नेताओंको वोट बैंककी गारंटी कार्ड मुहैया करानेका सर्वसुलभ साधन लगते रहे। मजारोंपर चादरें चढ़ानेसे लेकर वार्षिक उर्स समारोहोंमें शामिल होना प्राथमिकतामें दर्ज होता था। बहुसंख्यक समुदायके आध्यात्मिक या धार्मिक आयोजनोंसे पर्याप्त दूरी बनाकर चलने और नाक-मुंह सिकोडऩेमें अल्पसंख्यकोंको खुश करनेकी स्टाइल समाहित होती थी। परन्तु कहते हैं परिवर्तन प्रकृतिका नियम है और इस परिवर्तनके दौरका आगमन नरेन्द्र मोदीके नेतृत्वमें बहुसंख्यकोंके मुद्दोंको प्रभावी तौरपर पुरजोर तरीकेसे उठानेका जो सुनियोजित राष्ट्रव्यापी जन-अभियान चलाया गया उसने राष्ट्रवाद और हिन्दुत्वके मुद्देको आखिरकार राष्ट्रीय विमर्शके सर्वोच्च पायदानपर ला खड़ा कर दिया। २०१४ में पूर्ण बहुमतके साथ वर्षों बाद भाजपाकी केन्द्रीय सरकार और देशके अधिकांश प्रमुख राज्योंमें भाजपा सरकारें बननेके बादसे बहुसंख्यक समुदायसे समुचित मनमुताबिक दूरी बनाकर चलने एवं धार्मिक आस्था और सामाजिक महत्वके प्रतीकोंके प्रति वितृष्णाका भाव रखनेकी नीतिका अन्तत: परित्याग करनेको अन्य दलीय नेताओंको विवश ही नहीं होना पड़ा है अपितु भाजपाकी पारम्परिक स्टाइलका ही अनुसरण, अनुकरण करनेको मजबूर भी होना पड़ा है।
इस आपाधापीमें कई बार तो ममता बनर्जी सहित अन्य सभी रीजनल एवं नेशनल पार्टियोंमें बाकायदा प्रतिस्पर्धा शुरू हो गयी है। भाजपाकी दमदार दावेदारीके चलते ममता बनर्जी, जो अबतक पश्चिम बंगालमें अपनी जीतके प्रति ओवर कान्फिडेंसमें थीं, को भी जमीनी हकीकतसे रूबरू होकर अपनी मुस्लिम तुष्टीकरणकी सुस्थापित छविको धोनेके लिए चुनावी मंचोंसे कभी चंडीपाठ तो कभी सरस्वती एवं दुर्गा जीकी स्तुति करते हुए भाषण शुरू करनेको मजबूर होना पड़ा है और तो और भाजपाके लिए लगभग कापीराइटसे हो चुके और प्राय: हर चुनावमें बहुतायतसे प्रयुक्त होनेवाले नारे, जय श्रीरामकी वैकल्पिक काटके तौरपर जय सिया रामके नारेको ईजाद करना पड़ा है। यह वही ममता हैं, जो बीते दिनों जय श्रीरामके नारेसे इतना चिढ़ जाती थीं कि अपना काफिला रुकवा कर नारे लगानेवालोंको न सिर्फ डांट पिलाती थीं वरन अरेस्टतक करवानेका फरमान जारी कर देती थीं, जिनकी सरकारके चलते दुर्गा पूजाके दौरान माताकी मूर्तियोंके विसर्जनको परम्पराओंके अनुसार नियत तिथिको विसर्जित होनेपर रोक लगाये जाने और मुहर्रमके ताजियेके जुलूसोंको निकालनेकी विशेष अनुमति दिये जानेकी घटनाकी चर्चा और आलोचना न सिर्फ बंगालमें हुई, अपितु पूरे देशके बहुसंख्यक हिन्दू समुदायने इस उपेक्षात्मक रवैयापर गम्भीर क्षोभ भी व्यक्त किया था। पश्चिम बंगालकी जनता सब बखूबी देख रही है। बंगलादेशी मुस्लिम घुसपैठियोंके लिए रेडकारपेट वेलकमका तो आरोप लगता ही रहा, रोहिग्या घुसपैठियोंको भी कथित रूपसे अपने वोट बैंकमें और इजाफा करनेकी नीयतके चलते आखोंको मूंद कर बस्तियां बसानेका मौका देकर राष्ट्रीय सुरक्षा एवं सम्प्रभुताके संवेदनशील मुद्देपर गम्भीर लापरवाही बरती जानेका भी आरोप भाजपाकी ओरसे लगाया जाता रहा है, आधार कार्ड, मतदाता पहचान-पत्र और राशन कार्डतक जारी किये गये हैं।
अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं एवं सत्तामें अपना वर्चस्व स्थापित करनेकी होड़के कारण कांग्रेस सरकारके समयसे गुपचुप रूपमें शुरू घुसपैठ तीन दशकोंके कम्युनिस्ट पार्टी सरकारके दौरान अनवरत न केवल जारी रही, बल्कि बढ़ती गयी। रही-सही कसर दस सालके टीएमसी सरकारके मौन स्वीकृति प्रदान कर बंगलादेश एवं म्यांमारके मुसलमान घुसपैठियोंको भारी संख्यामें कथित शरण ही नहीं दी गयी अपितु इन्हें सरकारी संरक्षणका कवच पहनाकर अपने वोट बैंकको अभेद्य बनानेके लिए कोई जतन नहीं छोड़ा गया है। यही कारण है कि असमके साथ पश्चिम बंगाल अवैध घुसपैठियोंके काले कारनामोंको भुगतनेके लिए अभिशप्त है। हथियारों, नशीली दवाओं, गायों एवं गौवंशकी तस्करी, मानव तस्करी सहित आतंकवादी गतिविधियोंके जरिये समानांतर व्यवस्था जैसे भीतरतक जड़ जमा चुकी है। क्या सत्ताके लिए राष्ट्रीयहितोंके मसलोंको बेहयाईपूर्वक तिलांजली देते रीजनल और राष्ट्रीय राजनीतिक दलोंके हुक्मरानों एवं इनके नेतृत्वकारी मुखियाओंका जमीर इन्हें कचोटता नहीं है। जब म्यांमार सरकारके इन तथाकथित शरणार्थियोंको अगल-बगलका कोई देश शरण देनेको राजी नहीं है, यहांतक कि पाकिस्तान, बंगलादेश और अन्य मुस्लिम राष्ट्रतक तैयार नहीं हैं तो क्या वोट बैंककी गिद्ध दृष्टिके चलते भारतकी सुरक्षा एवं सम्प्रभुतासे खिलवाड़ करनेका अप्रत्यक्ष षड्यन्त्र रचनेवाले दलोंपर बलात् घुसपैठका दायित्व ऐसे राज्य सरकारपर सीधे तौरपर नहीं तय किया जाना चाहिए। यह आम चुनाव सूबेकी जागरूक जनताको उनके द्वारा पूर्वमें की गयी अपनी गलती सुधारनेका एक अवसर देनेके साथ असम एवं विशेषकर पश्चिम बंगालकी आम जनताके अवसरों, भौतिक आवश्यकताओंकी पूर्ति, राज्यके प्राकृतिक संसाधनोंकी उपलब्धता, रोजगारोंकी सहज प्राप्तिके उनके मौलिक अधिकारोंपर पडऩेवाले संरक्षित लूट-खसोट और डाकेको रोके जानेकी दिशामें ठोस अवसर ही नहीं अपितु अपने अस्तित्वकी लड़ाईमें विजय हासिल करनेके मार्गमें मीलका पत्थर साबित हो सकेगा। अन्यथा चंडीपाठ और गोत्र उद्ïघोषणाकी मीठी गोलियां कालान्तरमें आम जनताके लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकती हैं।