सम्पादकीय

परमसत्ताका विस्तार हैं श्रीकृष्ण


हृदयनारायण दीक्षित

श्रीकृष्ण परिपूर्ण हैं। वे इकाई और अनंत भी हैं। प्रकृतिकी चरम संभावना। सहज संसारी। असाधारण मित्र। अर्जुनसे मित्रता हुई तो उसका रथ हांका। उसे विषाद हुआ। संपूर्ण तत्व-ज्ञान उड़ेल दिया। संशय नहीं मिटा तो दिखाया विश्वरूप।

हम सब विश्वमें हैं। विश्वका भाग हैं। विश्वमें रमते हैं। लेकिन विश्वदर्शनमें रस नहीं लेते। सूर्योदयके उगनेका भी दर्शन नहीं करते। हवाएं सहलाती आती हैं, हम उन्हें धन्यवाद भी नहीं देते। अनेक रूपोंसे भरा-पूरा यह विश्व हमारे भीतर विस्मय नहीं पैदा करता। गीताकारके अनुसार श्रीकृष्णने अपने भीतर विश्वरूप दिखाया। सच है यह बात। हमारे आपके सबके भीतर भी है विश्वरूप। श्रीकृष्ण जैसा मित्र मिले तो बात बने, या अर्जुन जैसे विषादी जिज्ञासु हों हम तो बन सकती है बात। श्रीकृष्ण ऐसी ही संभावना हैं। नाचते अध्यात्मके रसपूर्ण प्रतीक। नटखट, मनमोहन और बिन्दास रसिया।

श्रीकृष्ण भारतकी दिव्यगंध हैं। संपूर्ण रसोंके महारस, मधुरस। नृत्यरत भगवत्ता। निष्काम कामना। आधुनिक दार्शनिक कांटका परपजलेस परपज। जीवनके हरेक रंग और आयाममें उनकी उपस्थिति है। वे रूप, रंग, हाव, भाव और गतिशीलतामें सुदर्शन हैं। सभी लोकोंके मनमोहन। दर्शन आत्मबोध होता है। तर्क-प्रतितर्क आधारित निष्कर्ष होते हैं दर्शनमें। लेकिन वे गतिशील नहीं होते। श्रीकृष्णका सुदर्शन गतिशील चक्र भी है। इस चक्रके केन्द्रमें प्रेम सत्य है और परिधिपर संसार। काल नियंता है इस चक्रका। कालमें जन्म है और कालमें ही तरुणाई। कालमें ज्ञान है और कालके अतिक्रमणमें मुक्ति। सुदर्शन चक्रमें दर्शनके साथ कालबोध भी है। यह चक्र घूम रहा है। बारंबार। सृष्टि-चक्र चल रहा है। श्रीकृष्ण गीतामें बताते हैं, ऐसा कोई समय नहीं था अर्जुन! जब हम या तुम नहीं थे। हमारा तुम्हारा यहां बार-बार आना-जाना हुआ है। मैं यह बात जानता हूं लेकिन तुम नहीं जानते। ठीक बात है। प्रकृति सदासे है। रूप परिवर्तनशील हैं, अनित्य हैं। मूल चेतना नित्य है, सदासे है। श्रीकृष्ण परमके प्रतिनिधि हैं। संपूर्णताका बोध आसान नहीं। इसकी अनुभूति विरलोंको ही हो पाती है। फिर अनुभूतको शब्द देना कठिन है। जाने हुए को समझाना और भी कठिन। सभी जानकारों ने अपनी अनुभूति शब्दोंके माध्यमसे ही बतायी है। भक्त भी शब्द-प्रयोग करते हैं, भजन गाते हैं, नृत्य करते हैं लेकिन पूरा अनुभव तब भी नहीं बता सकते। भारतने श्रीकृष्णको ईश्वरका अवतार कहा। सर्वज्ञ कहा। प्रेमको आधार बनाकर प्रेम-अवतार कहा। महाभारतके कर्मको आधार बनाकर कौटिल्यका पूर्ववर्ती राजनीतिज्ञ भी बताया, लेकिन शब्दोंकी सीमा है। असीमको सीमाबद्ध करनेके लिए भक्तका हृदय चाहिए। अस्तित्व अनन्त है, असीम है, लेकिन भक्त असीमको श्रीकृष्णके व्यक्तित्वके भीतर देखनेमें सफल हुए। भावशक्ति अपरम्पार होती है। श्रीकृष्ण भारतीय भावशक्तिके भी महानायक हैं।

श्रीकृष्ण आकांक्षारहित परम वैभवके विधाता हैं। संग और असंगका असंभव संग। कृष्णदर्शन का मुख्य सूत्र ही है- अनासक्ति। रागका भरपूर आस्वाद लेकिन रागसे विराग। रसपूर्ण जीना लेकिन  रस-आसक्तिसे दूर रहना। कर्म-अभ्यासमें डूबना लेकिन वैराग्यमें रहना-अभ्यासेन वैराग्येण च। जीवनके सभी अवसरोंपर संग-संग प्रति प्रसंग असंग गति। युद्धमें पूरे मनसे सम्मिलित रहना लेकिन युद्ध नहीं करना। कृष्णने राज्य और राजनीतिमें जमकर हस्तक्षेप किया लेकिन राजसत्तासे दूर रहे। साधारण किसानकी तरह गोपाल बने। असाधारण कलाकारकी तरह मुरलीधर। हथियार भी असाधारण ही रखा। सुदर्शन चक्र।

श्रीकृष्णसे जुड़े स्थान, नदीनाम, पर्वत और नगर क्षेत्र प्रत्यक्ष हैं लेकिन कुछ वामपंथी विद्वान उन्हें इतिहास-पुरुष नहीं मानते। वे श्रीकृष्णको महाभारतके रचनाकार कविकी कल्पना मानते हैं। महाभारत वस्तुत: इतिहास है, काव्य तो है ही। श्रीकृष्णकी जन्मतिथि १८ जुलाई, ३२२८ ईसा पूर्व बतायी जाती है। श्रीकृष्ण ३२२८-३१०२ ई. पूर्व हैं। महाभारत युद्ध संभवत: ३१३८ ई. पूर्व हुआ था। उन्होंने इसी युद्धके प्रारम्भमें अर्जुनको गीताका प्रबोधन दिया था। भारतका उपनिषद्-प्रवचन महाभारत कालके बहुत पहलेका है। गीतामें उपनिषदों और उनसे जुड़े संदर्भ हैं। ऋग्वेद सबसे पुराना है। ऋग्वेदके समाजमें मनुष्योंके बड़े समूहका नाम ‘जनÓ है। ऋग्वेदमें अनेक ‘जनोंÓ के उल्लेख हैं लेकिन पांच जनोंकी चर्चा ज्यादा है। इन पांचमें एक चर्चित गण ‘यदुÓ है। श्रीकृष्ण इसी समूहसे सम्बंधित थे परन्तु इनके कुलका नाम था- वृष्णि। महाभारतके आदि पर्वमें उन्हें ‘वृष्णि प्रवीरÓ और पान्डवोंको ‘कुरु प्रवीरÓ बताया गया है। यदु शाखामें वृष्णिके अलावा अंधक और भोज भी प्रतिष्ठित कुल थे। महाभारत (उद्योग पर्व) के अनुसार सैकड़ों वृष्णि, अंधक और भोज लेकर कृष्ण-बलराम द्वारिकाकी ओर गये थे। कृष्ण-बलराम इस समूहमें अपनी नेतृत्व-क्षमताके कारण प्रमुख हैं, लेकिन वे राजा नहीं हैं। यहां श्रीकृष्णकी भूमिका प्रमुख नेता की है।

गीताके प्रवक्ता श्रीकृष्ण दार्शनिक हैं। वे कपिल दर्शनके सांख्यशास्त्री हैं। वे बादमें पतंजलि द्वारा संहिताबद्ध किये गये प्राचीन योगदर्शनके व्याख्याता हैं। यहां वे बहुदेववादी भी हैं, बहुरूपिया हैं। एकेश्वरवादी भी हैं। उन्हें ईश्वर जाना गया है। वे भक्ति मार्गी हैं, भक्ति वेदान्ती भी हैं। वे प्रकृति हैं, पुरुष हैं, चेतन हैं, परब्रह्मï भी हैं। वे योगेश्वर भी हैं। आनंद प्रत्येक जीवकी सहज प्यास है। ईश्वरको सत्ï-चित्ï-आनन्द कहा गया। लेकिन देखा गया रूपोंमें। ऋग्वेदके ऋषि गाते हैं, एक ही परम ऊर्जा रूपं-रूपं-प्रतिरूपोंमें प्रकट होती है। रात्रि एक रूप है, जगत्-आच्छादित करती है। सूर्य तेजोमय हैं। चन्द्र-सौन्दर्यकी कलाएं मनोहारी हैं। दीपित नक्षत्र आनंद-मगन करते हैं। सृष्टिकी ध्वनि-प्रकृति मधुछंदा है। रस-प्रवृत्तिमें मधुरस है। वायु-प्रवाहोंमें मधुवातायन है। रूप, रस, स्पर्श, गंध और श्रवणके आनन्दमें परमसत्ता अखण्ड है। यह प्रकृति अखण्ड परमसत्ताका विस्तार है। वह अव्यक्त है, प्रकृति व्यक्त है। व्यक्तकी इकाई व्यक्ति है, सीमित है। भारतीय चिन्तनमें श्रीकृष्ण अव्यक्त और व्यक्तकी परिपूर्ण आभावाले व्यक्ति हैं। वे इतिहास हैं। इतिहासमें हैं। पुराण हैं, अध्यात्म हैं और विश्वरूपा हैं। भारतका मन श्रीकृष्णमें रमता है। आज श्रीकृष्णकी जन्मतिथि है। उन्हें प्रणाम।