सम्पादकीय

पिछड़ रहा आर्थिक विकास


 डा. भरत झुनझुनवाला

संविधानके निर्माताओंने कल्याणकारी राज्यकी कल्पना की थी। यह कहनेकी जरूरत नहीं कि जनकल्याण हासिल करनेके लिए सरकारी कर्मियोंकी नियुक्ति करनी ही होगी। जैसे हाईवे बनवानेके लिए अथवा सार्वजनिक वितरण प्रणालीको लागू करनेके लिए सरकारी कर्मियोंकी नियुक्ति करना आवश्यक होता ही है। सोच है कि सरकारी कर्मी अपने कार्योंका निष्ठापूर्वक सम्पादन करके देशके आर्थिक विकासमें योगदान देंगे और जन-कल्याण हासिल करेंगे। लेकिन यदि सरकारी कर्मियोंको सरकार इतना अधिक वेतन देने लगे कि विकास और जन-कल्याण दोनों ठप हो जाय तो हम संविधानकी भावनाओंके विपरीत चल पड़ते हैं। ऐसी स्थितिमें सरकारी कॢमयोंका कल्याण प्राथमिक और जनकल्याण गौण हो जाता है। विश्व बैंकने वैश्विक परिदृश्यमें सरकारी वेतन नामसे अध्ययन किया। इसके अनुसार वियतनाममें देशके नागरिककी औसत आयकी तुलनामें सरकारी कर्मीका औसत वेतन ९० प्रतिशत होता है।

यदि वियतनामके नागरिककी औसत आय सौ रुपये है तो सरकारी कर्मीका औसत वेतन ९० रुपये है। चीनमें यदि नागरिकका औसत वेतन सौ रुपये है तो सरकारी कर्मीका औसत वेतन ११० रुपये बैठता है। लेकिन भारतमें यदि नागरिकका औसत वेतन सौ रुपये है तो सरकारी कर्मीका औसत वेतन ७०० रुपये है। यह बात विश्व बैंककी रिपोर्ट बताती है। इतना सही है कि वियतनाम और चीनके नागरिकका औसत वेतन आज भारतकी तुलनामें अधिक है। लेकिन जब इन देशोंके नागरिकका औसत वेतन भारतके समतुल्य था तब भी सरकारी कर्मियोंका वेतन इसी अनुपातमें था। गौर करनेकी बात यह है कि वियतनाम और चीन दोनों ही हमसे बहुत अधिक तीव्रतासे आर्थिक विकास हासिल कर रहे हैं। इससे संकेत मिलता है कि भारतकी आर्थिक विकासके दरके न्यून होनेके पीछे एक कारण यह हो सकता है कि भारतकी राष्ट्रीय आयका उपयोग सरकारी कर्मियोंकी खपतको पोषित करनेमें खप जा रहा है फलस्वरूप जन-कल्याण और आर्थिक विकास दोनों पीछे होते जा रहे हैं। इसी क्रममें विश्व बैंकने बताया है कि वैश्विक स्तरपर सरकारी खपतमें गिरावट हो रही है। वैश्विक स्तरपर २००९ में सरकारी खपत देशकी कुल आयका १८.० प्रतिशत थी जो कि २०१४ में घटकर १७.२ प्रतिशत हो गयी और २०१९ में घटकर १७.१ प्रतिशत रह गयी।

तुलनामें भारतमें सरकारी खपत बढ़ती जा रही है। वित्त मंत्रालयके आंकड़ोंके अनुसार २०१४ में देशकी आयमें सरकारी खपतका हिस्सा १०.४ प्रतिशत था जो २०२० में बढ़कर १२.६ प्रतिशत हो गया है। स्पष्ट है कि जहां वैश्विक स्तरपर सरकारी खपतमें गिरावट आ रही है वहीं भारतमें सरकारी खपतमें तीव्र वृद्धि हो रही है। यहां यह स्पष्ट करना होगा कि वैश्विक स्तरपर सरकारी खपत लगभग १७ प्रतिशतकी तुलनामें भारतमें १२ प्रतिशत है। कारण यह है कि तमाम देशोंमें सरकारी कर्मियोंकी नियुक्ति अधिक संख्यामें की गयी है। जैसे भारतमें एक लाख नागरिकोंके पीछे १३९ सरकारी कर्मी हैं जबकि अमेरिकामें एक लाख नागरिकोंके पीछे ६६८ सरकारी कर्मी हैं। अमेरिकामें भारतकी तुलनामें सरकारी कर्मियोंकी संख्या लगभग पांच गुना है। यानी भारतमें १२.६ प्रतिशत सरकारी खपतमें १३९ कर्मी नियुक्त हैं तो अमेरिकामें १७.१ प्रतिशत सरकारी खपतमें ६६८ कर्मी नियुक्त हैं। अत: हमें इस बातसे विचलित नहीं होना चाहिए कि वैश्विक स्तरपर सरकारी खपत ज्यादा है। हमें इस बातपर ध्यान देना चाहिए कि भारतमें कम संख्यामें कर्मियों द्वारा अधिक खपत क्यों की जा रही है।

समस्या यह है कि अपने देशमें सरकारी खपतमें वृद्धि हो रही है जबकि वैश्विक स्तरपर इसमें गिरावट आ रही है। चिंताजनक है कि विश्व श्रम संघटनके अनुसार कोविड संकटके दौरान भारतमें सभी कर्मियोंके वेतनमें ३.६ प्रतिशतकी गिरावट आयी है जबकि असंघटित श्रमिकोंके वेतनमें २२.६ प्रतिशतकी गिरावट आयी है। यह गम्भीर है क्योंकि एक तरफ सरकारकी खपतमें वृद्धि हो रही है और दूसरी तरफ नागरिककी आयमें गिरावट आ रही है। स्पष्ट है कि भारतमें सरकारी कर्मी जनताका कल्याण अथवा विकासमें सहयोग देनेके स्थानपर जनता शोषण करने और विकासमें गिरावट लानेकी भूमिका अदा कर रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकारी कर्मी अपना कार्य नहीं करते हैं। वे कार्य करते हैं। उनमेंसे कई इमानदार भी हैं। लेकिन कार्यके लिए जिस प्रकारके वेतन उन्हें दिये जा रहे हैं उनका देशपर विपरीत प्रभाव पड़ता दिख रहा है। राज्योंकी स्थिति और भी कठिन है। केरलमें सरकारका ७० प्रतिशत बजट सरकारी कर्मियोंके वेतन देनेमें खप जाता है और तमिलनाडुमें ७१ प्रतिशत। तमिलनाडुमें सरकारी स्कूलके हेड मास्टरको १०३,००० रुपये प्रति माहका वेतन दिया जा रहा है जो कि निजी स्कूलमें १५,००० रुपये मात्र ही होगा।

इसके बावजूद सरकारी विद्यालयोंमें छात्रोंका रिजल्ट निजी विद्यालयोंकी तुलनामें कमजोर ही रहता है। अतएव यह नहीं कहा जा सकता है कि सरकारी कर्मियोंको अधिक वेतन देनेसे उनकी कार्य कुशलतामें सुधार हुआ है जबकी इनकी कार्य कुशलतामें सुधार करनेके लिए हर वेतन आयोग द्वारा कुछ संस्तुतियां की जाती हैं। इन्हें ठंडे बस्तेमें रख दिया जाता है और केवल वेतन वृद्धिकी संस्तुतियोंको लागू कर दिया जाता है। जैसे पांचवें वेतन आयोगने कहा था कि क्लास ‘एÓ अधिकारियोंका प्रति पांच वर्षपर बाह्य मूल्यांकन कराया जाय। इस संस्तुतिको ठंडे बस्तेमें रख दिया गया था और सरकारी कर्मियोंके वेतनमें लगभग दो गुनासे अधिक वृद्धि कर दी गयी थी। इस परिस्थितिमें सरकारको वर्तमान सरकारी कर्मियोंके वेतनमें कटौती करके इन्हें वर्तमानका केवल सातवां हिस्सा कर देना चाहिए जिससे कि ये वियतनाम और चीनके सामान हो जायं। जैसे यदि किसी कर्मीको आज ७० हजार रुपयेका वेतन प्रति माह मिलता है उसे काटकर केवल दस हजार रुपये देना चाहिए। इस बची हुई रकमसे वर्तमान सरकारी कर्मियोंकी संख्याको बढ़ा दिया जाय। यदि वर्तमानमें यदि दो करोड़ सरकारी कर्मियों हैं तो १२ करोड़ और कर्मियोंको नियुक्त कर कुल १४ करोड़ सरकारी कर्मी नियुक्त कर दिये जायं। ऐसा करनेसे दो विसंगतियां दूर हो जायेंगी। पहली यह कि हमारे सरकारी कर्मियोंका वेतन दूसरे तीव्र विकास करनेवाले देशोंके समतुल्य हो जायगा और दूसरा यह कि सरकारके पास १४ करोड़ कर्मियोंकी एक नयी फौज तैयार हो जायेगी जिससे जन-कल्याण और आर्थिक विकासके कार्य संपादित हो सकेंगे।