सम्पादकीय

चुनाव परिणामसे चिन्तित कांग्रेस


रमेश सर्राफ धमोरा

हालमें ही देशके पांच राज्योंमें संपन्न हुए विधानसभा चुनावमें कांग्रेसकी स्थिति बहुत खराब रही है। पांचमेंसे किसी भी राज्यमें कांग्रेसकी सरकार नहीं बन पायी है। यहांतक कि कांग्रेसके शासनमें रहे पुडुचेरीमें भी कांग्रेस मात्र दो सीटोंपर सिमटकर रह गयी है। कांग्रेसको असम, केरल और पुडुचेरीमें सरकार बनानेका पूरा विश्वास था। परन्तु वहां भी कांग्रेसकी बड़ी दुर्गति हुई है। देशमें कांग्रेसके गिरते जनाधारको लेकर वरिष्ठ कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजादके नेतृत्वमें पार्टीके २३ बड़े नेताओंने कुछ माह पूर्व कांग्रेसकी अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधीको पत्र लिखकर कांग्रेसको आम जनतासे जोडऩेके लिए संघटन चुनाव करवाने तथा संघटनमें वर्षोंसे मनोनीत होनेवाले आधारहीन लोगोंको हटानेकी मांग की थी। परन्तु कांग्रेसमें जी-२३ गुटके नेताओंके पत्रको कांग्रेस आलाकमानने एक तरहकी बगावत मानते हुए उन्हें पार्टीकी प्रमुख गतिविधियोंसे ही दूर कर दिया। कांग्रेसमें आज भी वर्षोंसे जमे नेताओंका कब्जा है। उन्हींके कहनेपर पार्टी संघटनमें पदाधिकारी बनाये जाते हैं। जी-२३ के नेताओंकी चेतावनीको नजरअंदाज करनेका ही खामियाजा कांग्रेसको पांच राज्योंके विधानसभा चुनावमें भुगतना पड़ा है। आजादीके बाद लगातार २५ वर्षोंतक कांग्रेसके शासनमें रहे पश्चिम बंगालमें तो कांग्रेसका खाता भी नहीं खुल पाया है। पार्टी नेताओंको इसके कारणोंपर खुलकर चिंतन-मनन करना चाहिए। पांच राज्योंके विधानसभा चुनावका विश्लेषण करें तो इस बार पश्चिम बंगालमें कांग्रेसको मात्र तीन प्रतिशत ही मत मिले। परन्तु सीट एक भी नहीं मिली। जबकि २०१६ के चुनावमें कांग्रेसको १२.३ प्रतिशत मत एवं ४४ सीटें मिली थी। विधानसभामें नेता प्रतिपक्षका पद भी कांग्रेसके पास था। परन्तु पांच सालोंमें पश्चिम बंगालमें ऐसा क्या हो गया कि कांग्रेस रसातलपर चली गयी। जबकि पश्चिम बंगालसे ही कांग्रेसके सांसद एवं प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी लोकसभामें कांग्रेस संसदीय दलके नेता भी बनाये गये थे। इतना होनेके बावजूद भी कांग्रेसका शून्यपर आउट होना कांग्रेसको हकीकतसे रूबरू कराता है।

पश्चिम बंगालमें आजादीसे लेकर १९७७ तक कांग्रेसका एकछत्र राज रहा था। वामपंथी सरकार बननेके बाद भी बंगालमें कांग्रेसका बराबरका रुतबा रहता था। परन्तु २०११ के विधानसभा चुनावमें कांग्रेसने अपनी ही नेता ममता बनर्जीके साथ चुनावी गठबंधन किया और मात्र कुछ ही सीटोंपर चुनाव लड़ा था। चुनावके पश्चात ममता बनर्जी मुख्य मंत्री बनीं तो कुछ समयतक उन्होंने कांगेसी नेताओंको भी सरकारमें शामिल किया। परन्तु बादमें उनको निकाल बाहर किया। २०१६ के विधानसभा चुनावमें कांग्रेसने वामपंथी दलोंसे समझौता कर चुनाव लड़ा था। इस बार भी कांग्रेसने गठबंधनमें मात्र ९० सीटोंपर चुनाव लड़ा था। गठबंधनमें चुनाव लडऩेके कारण कांग्रेसका पूरे प्रदेशमें जनाधार समाप्त हो गया। कांग्रेस मात्र कुछ सीटोंतक सिमटकर रह गयी। जिस कारण आज कांग्रेस बंगालमें समाप्त प्राय हो चुकी है। पश्चिम बंगालमें १४ अप्रैलको राहुल गांधीने दो सीटों माटीगारा-नक्सलबाड़ी और गोलपोखरमें चुनावी रैलियां की थीं। माटीगारा-नक्सलबाड़ीके मौजूदा विधायक शंकर मालाकार इस बार सिर्फ नौ प्रतिशत वोट पाकर तीसरे स्थानपर रहे। गोलपोखरमें भी कांग्रेस उम्मीदवार मसूद मोहम्म्द नसीमको सिर्फ १२ प्रतिशत वोट मिले। कांग्रेसको इस बार असममें सरकार बनानेका पूरा भरोसा था। कांग्रेस कट्टरपंथी दल ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंटके नेता बदरुद्दीन अजमल एवं कुछ अन्य छोटे दलोंके साथ समझौता कर ९४ सीटोंपर चुनाव लड़ा परन्तु २९ सीट ही जीत सकी। जबकि बदरुद्दीन अजमलकी पार्टीने १९ मेंसे १६ सीटें जीती। असममें कांग्रेसको इस बार २९.६७ प्रतिशत वोट एवं २९ सीटें मिली है। जबकि २०१६ में ३०.२ प्रतिशत वोट एवं २६ सीटें मिली थी। कहनेको तो कांग्रेसकी तीन सीटें बढ़ी है। परन्तु उसके वोट प्रतिशतमें भी कमी आयी है। बदरुद्दीन अजमलकी पार्टीसे समझौता करनेके कारण कांग्रेसको घाटा उठाना पड़ा।

केरलमें कांग्रेस ९३ सीटोंपर चुनाव लड़कर २५.१२ प्रतिशत मत एवं २१ सीटें जीती है। वहीं २०१६ में कांग्रेसको २१ सीटें एवं २३.८ प्रतिशत वोट मिले थे। कांग्रेसको इस बार केरलमें सत्तापरिवर्तन होनेकी पूरी आशा थी। २०१९ के लोकसभा चुनावमें केरलमें वाम मोर्चेकी सरकार होनेके बाद भी २० मेंसे १९ सीटें जीतकर कांग्रेस गठबंधनने सबको चौंका दिया था। कांग्रेसके सबसे बड़े नेता राहुल गांधी भी केरलके वायनाड लोकसभा क्षेत्रसे सांसद है। चुनावके दौरान उन्होंने केरलमें जमकर चुनावी रैलियां की थी। लेकिन उनको वहां निराशा ही हाथ लगी। यहांतककी राहुल गांधीके लोकसभा क्षेत्रकी सातमेंसे कांग्रेस मात्र दो सीटोंपर ही जीत सकी है। केरलमें कांग्रेसके सबसे पॉपुलर नेता ओमन चांडी है। परन्तु वहां रमेश चेन्निथला भी मुख्य मंत्रीकी दावेदारी पेश कर रहे थे। राहुल गांधी केरलमें अपने विश्वस्त सहयोगी एवं राष्ट्रीय संघटन महासचिव केसी वेणुगोपालको मुख्य मंत्री बनाना चाहते थे। तीनों नेताओंकी आपसी खींचतानमें केरलमें कांग्रेस बुरी तरह हार गयी। राहुल गांधी कांग्रेसकी आंतरिक कलहको काबू नहीं कर सके। जिस कारणसे केरलमें हाथ आनेवाली सत्ता भी कांग्रेससे दूर हो गयी। तमिलनाडुमें कांग्रेसके पास अपना कुछ नहीं है। वहां वह डीएमके गठबंधनके सहारे चुनाव लड़ती रही है। इस बार भी डीएमके गठबंधनके सहारे कांग्रेसने १८ सीटें जीती है। जबकि २०१६ में कांग्रेसको ४.७ प्रतिशत वोट और ८ सीट मिली थी। पुडुचेरीमें कांग्रेसकी सरकार थी। जिसे कुछ माह पहले पार्टी विधायकोंकी बगावतके चलते मुख्य मंत्री वी. नारायण सामीको इस्तीफा देना पड़ा था। तब वहां राष्ट्रपति शासन लग गया था। इस बारके चुनावमें कांग्रेसको १५.७१ प्रतिशत वोट एवं मात्र दो सीटें ही मिली है। जबकि २०१६ में कांग्रेसको ३०.६ प्रतिशत वोट एवं १५ सीटें मिली थी। २०११ में कांग्रेसको २५.०६ प्रतिशत वोट एवं सात सीटें मिली थी। पुडुचेरीमें भी कांग्रेस पूर्व मुख्य मंत्री वी. नारायणसामी सरकारकी गलत नीतियोंके चलते हाशियेपर आ गयी है। वहां कांग्रेसके सहयोगी द्रमुकने छह सीटें जीत ली है। विधानसभा चुनावमें मिली करारी हार एवं सिमटते जनाधारको लेकर कांग्रेसमें चिंता होनी चाहिए। समय रहते कांग्रेसी नेताओंको पार्टीमें आमूलचूल परिवर्तन कर जनाधारवाले नेताओंको अग्रिम मोर्चेपर लाना चाहिए। यदि समय रहते कांग्रेस हारसे सबक लेकर एक नयी शुरुआत करेगी तो फिरसे मुख्यधारामें आ सकती है। वरना यही स्थिति चलती रही तो कांग्रेसको और अधिक बुरे दौरसे गुजरना पड़ सकता है। जिसका जिम्मेदार कांग्रेस आलाकमान ही होगा।