सम्पादकीय

ओलीके विरुद्ध जनतंत्र


विष्णुगुप्त
नेपाल प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओलीके खिलाफ जनआन्दोलनसे उनकी पाटीमें ही बगावतकी स्थिति थी। ओली एक ऐसे अध्यादेशको राष्टरपतिसे स्वीकृति दिलायी थी जो लोकतंत्र विरोधी था इस विधेयकके द्वारा ओलीको ऐसा अधिकार मिल गया था जिससे संवैधानिक पदोंपर अपनी इच्छानुसार मोहरोंका पदास्थापन कर सकें। उनकी पार्टी और विपक्ष एक स्वरमें उक्त अध्यादेशकी वापसीकी मांग कर रहे थे। संसदके अंदरमें इस अध्यादेशकी शक्ति परीक्षण होनेवाला था। शक्ति परीक्षण होता तो निश्चित तौर केपी शर्मा ओलीकी हार होती। जब केपी शर्मा ओलीने देखा कि संसदके अंदर उनके अध्यादेशका समर्थन मिलना मुश्किल है और संसदमें उनकी पार्टी भी उनके खिलाफ है तब उन्होंने प्रतिनिधि सभा यानी संसदको भंग कर मध्यावधि चुनावमें जाना ही अपनी महत्वाकांक्षाके लिए जरूरी समझा। प्रधान मंत्रीके तौरपर केपी शर्मा ओली अतिवादी हो गये थे। चीनके हाथों नेपालकी विरासतके साथ खिलवाड़ किया। चीनके कहनेपर भारत विरोधका अभियान चलाया। चीनको खुश करनेके लिए अपनी ही पार्टी और अपने नेताओंको हाशियेपर रख दिया। फलस्वरूप वह घरके रहें, न घाटके रहें। अपनी पार्टीके साथ ही आम जनताके बीच भी अलोकप्रिय हो गये।
मध्यावधि चुनावको लेकर नेपालमें विवाद बढ़ा। लोकतंत्रकी स्थिरतापर प्रश्नचिह्नï खड़ा हुआ। विवाद इस विषयको लेकर है कि एक ऐसे प्रधान मंत्रीको जिनके पास अपनी पार्टीके अंदर ही समर्थन नहीं है वह क्या संसदको भंग कर मध्यावधि चुनावकी घोषणा करा सकता है, क्या राष्ट्रपतिको संसद भंग करने और मध्यावधि चुनाव करानेके अधिकार हैं। इसपर सुप्रीम कोर्टमें कई चुनावी याचिकाएं दायर हो चुकी हैं। दायर याचिकाओंमें मध्यावधि चुनावमें नेपालको ढकलनेको लेकर प्रश्न खड़े किये गये हैं। लोकंतत्रमें संविधान ही सर्वश्रेष्ठ होता है, मध्यावधि चुनावसे लेकर शासन और प्रशासनकी सभी क्रियाएं भी संविधानगत ही होती है। अब प्रश्न खड़ा होता है कि मध्यावधिको लेकर संविधानकी दृष्टि क्या है। क्या संविधान मध्यावधि चुनावकी स्वीकृति प्रदान करता है। क्या संविधान अल्पमतके प्रधान मंत्रीकी सिफारिशको सीधे स्वीकार करनेकी अनुमति प्रदान करता है। मध्यावधि चुनावको लेकर नेपालका संविधान खामोश है। संविधान निर्माताओंने मध्यावधि चुनावको लेकर कोई अहर्ताएं ही तय नहीं की थी। इस कसौटीपर नेपालका संविधान अधकचरी संविधानकी श्रेणीमें शामिल है।
राष्ट्रपतिपर भी प्रश्नचिह्नï लगा है। दुनियाभरमें संविधानसे अलग भी परम्पराएं प्रमुख भूमिकाएं निभाती थी। जहां संविधान गौण होता है वहांपर राष्ट्रपतिका विवेक महत्वपूर्ण हो जाता है। जब नेपालका संविधान मध्यावधि चुनावको लेकर खामोश है तब राष्ट्रपतिको अपने विवेकसे काम लेना चाहिए था। राष्ट्रपतिको अन्य विकल्पोंपर भी विचार करना चाहिए था। किसी अन्य नेता या फिर किसी अन्य दलको सरकार बनानेका अवसर दिया जाना चाहिए था। यदि राष्ट्रपति अन्य किसी नेता या फिर अन्य किसी पार्टीको अवसर दिया होता तो हो सकता था कि मध्यावधि चुनावसे बचा जा सकता था। माओवादी नेता प्रचंड स्थायी सरकार बना सकते थे। प्रचंड इसके लिए सक्रिय भी थे। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी सक्रिय सरकार देनेके लिए तैयार बैठी थी। ऐसा तब संभव होता जब राष्ट्रपति निष्पक्ष होकर नेपालके लोकतंत्रकी चिंता करते और मध्यावधि चुनावको नेपालकी अर्थव्यवस्थाके लिए खतरनाक मानते। कहा तो यह जा रहा है कि नेपालके राष्ट्रपति और केपी शर्मा ओलीके बीच इस मामलेमें जुगलबंदी रही है। नेपालकी वर्तमान राष्ट्रपति स्वयंके बलपर नहीं, बल्कि केपी शर्मा ओलीकी कृपापर राष्ट्रपतिकी कुर्सी हासिल की है। इसलिए राष्ट्रपतिने संसद भंग कर मध्यावधि चुनावकी घोषणा करते समय अन्य विकल्पोंपर ध्यान ही नहीं दिया।
नेपालका वर्तमान राजनीतिक गतिरोध लोकतंत्रके लिए हानिकारक साबित होनेवाले हैं। नेपालमें लोकतंत्र बाल्यावस्थामें है और लोकतंत्रकी हत्या हो गयी। यह लोकतंत्रकी हत्या व्यक्तिगत अहंकार और अति महत्वाकांक्षासे हुई है। लोकतंत्रके लिए नेपालमें कितनी बड़ी लड़ाई लड़ी गयी है, वर्षों-वर्षोंतक लोकतत्रके लिए संघर्ष हुआ, अंतहीन बलिदानकी कहानियां लिखी गयीं। माओवादी हिंसाका लंबा इतिहास रहा है। माओवादी हिंसाने दुनियाभरमें उफान पैदा किया। माओवादी हिंसा कभी नेपालकी राजशाहीपर कब्जा करनेके लिए तत्पर थी, माओवादी सेना राजशाहीकी सेनापर भारी पड़ रही थी। तब भारतने राजशाही सेनाको मदद की थी, राजशाही सेनाको हथियार देनेके साथ माओवादियोंसे लडऩेके लिए राजशाही सेनाको प्रशिक्षण भी दिया था। अंतरराष्ट्रीय दबावके कारण राजशाहीको झुकना पड़ा। माओवादी अपने सिद्धांतसे हटे और लोकतंत्रको अपनाये। माओवादियों और अन्य कम्युनिस्टोंने मिलकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनायी थी। पिछले संसदीय चुनावोंमें माओवादियों और कम्युनिस्टोंके गठबंधनको सत्ता मिली थी। पुराने कम्युनिस्ट नेता केपी शर्मा ओलीको प्रधान मंत्री बननेका अवसर मिला था। माओवादियों और कम्युनिस्टोंको नेपालमें सत्ता इसलिए मिली थी कि लोकतांत्रिक राजनीतिक धाराका प्रतिनिधित्व करनेवाली नेपाली कांग्रेस खुद अलोकप्रिय हो गयी थी, उनमें अहंकारकी लडाई तेज थी। ऐसी स्थितिमें नेपालकी जनताके पास माओवादियों और कम्युनिस्टोंको सत्ता सौंपनेके अलावा कोई विकल्प ही नहीं था।
नेपालके उदाहरणसे स्पष्ट हो गया कि कम्युनिस्ट कभी भी लोकतंत्रकी सरकार कुशलता और हिंसाविहीन चला नहीं सकते हैं। कम्युनिस्ट सिर्फ तानाशाहीकी सरकार चला सकते हैं। चीन और सोवियत संघकी तानशाही इसके उदाहरण हैं। इसके अलावा जहां भी दुनियामें लोकतंत्रकी सरकारमें कम्युनिस्ट शासक बने वहांपर अराजकता और हिंसा पसरी और अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, विकास और जनहितके साधन गौण हो गये, लोकतंत्रकी मांग करनेवाले लोग सूलीपर टांग दिये जाते हैं। चीनके थ्येनमैन चौक इसका उदाहरण है, जहांपर लोकतंत्रकी मांग करनेवाले पांच लाख छात्रोंकी हत्या की गयी। लेनिन और स्टालिनने लाखों विरोधियोंको मौतका घाट उतराये थे जो उनकी तानाशाहीका समर्थन नहीं करते थे। नेपालमें भी कम्युनिस्टों और माओवादियोंने लोकतंत्रका हरण करने और अपनी तानाशाही चलानेकी काफी प्रयास किये हैं, परन्तु उन्हें असफलता ही हाथ लगी है। माओवादी और कम्युनिस्ट विरोधी जनतापर अब भी हिंसा बरपती रहती है, यही कारण है कि डरके कारण माओवादियों और कम्युनिस्टोंको समर्थन मिलता रहा है।
मध्यावधि चुनाव सीधे तौरपर लोकतंत्रकी असफलताकी कहानी कहती है। नेपालके अंदरमें वर्तमान लोकतांत्रिक पद्धति और संविधानके प्रति लोगोंका गुस्सा बढता जा रहा है। राजशाहीकी वापसीकी मांग भी इधर जोर पकड़ रही है। राजशाहीकी मांगको लेकर बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए हैं जिसमें लाखों लोग शामिल हुए हैं। नेपालमें राजशाहीकी मांग एक आश्चर्यजनक घटना मानी जा रही है। राजशाही भी कोई अच्छी शासन प्रक्रिया नहीं है। लोकतंत्र ही नेपालको विकासके मार्गपर ले जायेगा। लेकिन लोकतंत्र इसी तरह बार-बार पराजित होता रहेगा, केपी शर्मा ओली जैसा नेता अपने अहंकारमें लोकतंत्रको इसी तरह रौंदतें रहेगे तो फिर जनविरोधी अन्य राजनीतिक विचार प्रक्रियाएं भी जनशक्ति हासिल करती रहेगी। फिर भी हर परिस्थितिमें नेपालमें लोकतंत्र जिंदा रहना चाहिए।