सम्पादकीय

संकटमें विनिर्माण उद्योग


आर.डी. सत्येन्द्र कुमार

विनिर्माण उद्योग संकटमें रहा है। मार्चमें यह संकट गहनतर हो गया है। इतना ही नहीं, उसमें सुधारके भी फिलहाल कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। इसके लिए एक हदतक कोविड केसमें उभारको मुख्य रूपसे जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। हालांकि विनिर्माण उद्योगकी विसंगतियोंकी भी भूमिका स्वीकार की जा रही है। फरवरीमें पीएमआई ५७.५ था जो गिरकर ५५.४ पर आ गया। दिलचस्प तथ्य यह है कि यह आंकड़ा उस दिन सामने आया जब भारतीय रिजर्व बैंककी मौद्रिक नीति समिति पालिसी रेट तय करनेके लिए बैठक कर रही थी। इस समितिके अनुसार मांगमें विफल महामारीमें उभारके चलते कुप्रभावित हुई थी जो सुननेमें वैसे सहज, स्वाभाविक एवं प्रत्याशित-सा प्रतीत होता है। कमसे कम विशेषज्ञों एवं विश्लेषकोंकी यही राय बनती थी। उनकी रायसे प्रभावित लोग भी कम नहीं थे।हकीकत जो भी हो, इस गिरावटसे एक हदतक ऐसा लगा था कि कि कोविडने गजब ढाना शुरू कर दिया है और यह तो अभी शुरुआत है। जब शुरुआतमें ऐसी स्थिति है तो आगे चलकर स्थितिकी भयावहताकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। वैसे यह तो रही सहज प्रतीत होनेवाली स्थितिकी। अब जरा भारतीय अर्थव्यवस्थाके व्यापक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्यमें इस मुद्देपर विचार करना होगा। यथार्थसे व्यापक एवं गहन साक्षात्कारके लिए इस मुद्देपर व्यापक वैज्ञानिक हकीकतसे साक्षात्कार करना होगा।

आर्थिक विशेषज्ञोंका मानना है कि विनिर्माण क्षेत्र हा या कोई अन्य क्षेत्र हो, उससे जुड़े मुद्देपर व्यापक परिप्रेक्ष्यमें विचार जरूरी है। ऐसी सोचका सहारा लेनेपर विशेषज्ञोंने पाया है कि देशका विनिर्माण क्षेत्र हा या और कोई बुनियादी आर्थिक क्षेत्र हो, उसपर विदेशी पूंजी काफी हदतक हावी रही है। यह एक अप्रिय लेकिन कठोर सच है। जब हम देशमें कार्यरत पूंजीका वैज्ञानिक अध्ययन करते हैं कि देशमें शिखरस्थ उद्योगों और सेवाओंमें देशी पूंजीके मुकाबले विदेशी पूंजीका वर्चस्व रहा है। इसके दूरगामी परिणाम सामने आते रहे हैं। हालांकि उनकी पर्दादारीकी विविध स्तरोंपर कोशिश होती रही है। समयके साथ विविध क्षेत्रोंमें विदेशी पूंजीका वर्चस्व बढ़ता ही रहा है। एक सिलसिला जो आज भी जारी है। सरकारोंमें परिवर्तनसे इस कठोर एवं अप्रिय हकीकतमें कोई परिवर्तन नहीं आता रहा है। यह स्थिति आज भी बरकरार है और जबतक व्यवस्थामें बुनियादी एवं गुणात्मक परिवर्तन नहीं होता, यह स्थिति बनी रहेगी। ऐसा आर्थिक एवं अन्य किस्म एवं श्रेणीके विशेषज्ञोंका मानना है। यह सच है कि यह विचार समय-समयपर व्यक्त होते रहे हैं और कमोबेश आज भी व्यक्त हो रहे हैं और भले ही विश्लेषकोंके एक तबके अनुसार वे अल्पमतका प्रतिनिधित्व करते रहे हैं लेकिन उनके महत्वको नकारा नहीं जा सका है। हालांकि न काटनेकी हर सम्भव कोशिशें की जाती रही है-एक सिलसिला जो आज भी जारी है और आगे भी जारी रहनेकी सम्भावना है। इस सम्भावनाको नकारनेवालोंकी कमी नहीं रही है लेकिन नकारनेके प्रयासोंके बावजूद उन्हें नकारा नहीं जा सका है। व्यवहारमें ऐसा ही है।

इस श्रेणीके प्रतिनिधियोंका मानना है कि कोविडके चलते विनिर्माण क्षेत्रकी जो इतनी त्वरित दुर्दशा हुई है वह न हुई होती यदि राजनीतिक एवं अन्य मूल्योंमें त्वरित गिरावट दर्ज नहीं हुई होती। जब यह कहा जाता है तो महामारीके दुष्प्रभावको कम कर आंका और दर्शाया नहीं जा रहा होता। इसके विपरीत यह दर्शानेका प्रयास किया जाता है कि यदि व्यापक स्तरकी नीतिगत कमजोरी न रही होती तो कोविडके बावजूद विनिर्माण या किसी अन्य क्षेत्रमें इतनी त्वरित गिरावट दर्ज न होती। दरअसल इस देशमें ऐसे लोगोंका बाहुल्य है जो नीतिगत कमजोरियोंकी पर्दादारीके अभ्यस्तसे हो चुके हैं। इसके चलते वह हकीकतसे साक्षात्कार करनेसे कतराते ही नहीं, भय भी खाते हैं। वह वैचारिक कायरताके शिकार हैं। ऐसा भारतमें ही है। ऐसा भी नहीं, दुनियाके अधिकतर देशों ऐसी कायराना हरकतोंके तो आदी लोग हैं। मौजूदा दौरमें ऐसे लोगोंकी संख्या घटनेसे रही। उल्टे उनकी संख्या कहीं धीमी रफ्तार तो कहीं तेज गतिसे बढ़ रही है। जबतक व्यवस्थामें बुनियादी परिवर्तन नहीं होतो, यही स्थिति कमोबेश बनी रहेगी। लेकिन हताश होनेकी कतई जरूरत नहींहै। कोविडकी काली छाया कमसे कम एक आह्वïान तो कर ही रही है और वह यह है कि सिरका अधिकाधिक इस्तेमाल करो, भावनाओंमें मत बहो। भावनाओंका महत्व है लेकिन वह विचारोंकी जगह नहीं ले सकती। समस्या तब पैदा होती है जब हम विचारोंको पृष्ठïभूमिमें धकेलकर भावनाओंमें बहने लगते हैं। भावनाओंका महत्व है लेकिन उनके साथ बहनेके अपने खतरे हैं जो किसी भी विवेकशील व्यक्तिसे छिपे नहीं हैं।

स्पष्टï है कि कोविडकी काली छाया हर चीजपर मंडरा रही है। यह कबतक मंडराती रहेगी, कोई भी निश्चित रूपसे नहीं कह सकता। लेकिन इसके चलते समस्याओंके बुनियादी पहलुओंको नजरअन्दाज करना बौद्धिक कायरता नहीं तो फिर और क्या है। अब यह वक्त दरअसल चेतनाके दरवाजोंपर दस्तक दे रहा है जो अज्ञान या एकांगिताके चलते लम्बे अरसेसे बंद पड़े हैं। ऐसा नहीं कि कोई भी इस दस्तकको सुन नहीं पा रहा है। ऐसे बहुतसे लोग हैं जो यह दस्तक सुन पा रहे हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि जब ऐसे लोग विनिर्माण या किसी अन्य समस्यापर कोविडके प्रभावका अध्ययन करेंगे तो उस हकीकतको नहीं भूलेंगे। ऐसा नहीं होगा कि यह बिल्कुल बेअसर साबित होगा।