डा. श्रीनाथ सहाय
कोरोना की दो लहरोंके बीच जनसंख्या समस्या बनकर सामने आई। अस्पतालोंमें बिस्तरोंकी संख्याके अलावा टीकाकरण अभियानमें भी उसके कारण अनेक दिक्कतें आ रही हैं। बीते एक-डेढ़ दशकमें परिवार नियोजनका अभियान पूरी तरहसे उपेक्षित था। भले ही सरकारी आंकड़ोंमें उसे जीवित रखा गया हो लेकिन जमीनी सचाई यह है कि सरकारी प्राथमिकताओंमें परिवार नियोजन अब काफी पीछे है। उत्तर प्रदेशके राज्य विधि आयोगने सिफारिश की है कि एक बच्चेकी नीति अपनाने वाले माता-पिताको कई तरह की सुविधाएं दी जायं। वहीं, दोसे अधिक बच्चोंके माता-पिताको सरकारी नौकरीके अधिकारसे वंचित किया जाय। साथ ही, उनपर स्थानीय निकाय, जिला पंचायत और ग्राम पंचायतके चुनाव लडऩेपर पाबंदी लगायी जाय। इसके अलावा, तीसरा बच्चा होनेपर परिवारको सरकारसे मिलने वाली सब्सिडी बंद किये जाने और सरकारी नौकरी कर रहे लोगोंको प्रोन्नतिसे वंचित करनेका प्रस्ताव रखा गया है। यह सभी प्रस्ताव जनसंख्या वृद्धिपर नियंत्रण करके नागरिकोंको बेहतर सुविधाएं मुहैया करानेके उद्देश्यसे तैयार किया गया है। आयोगने जनसंख्या नियंत्रणसे संबंधित पाठ्यक्रम स्कूलोंमें पढ़ाये जानेका सुझाव भी दिया है।
बढ़ती बेरोजगारी, शहरोंमें बेतहाशा भीड़, झुग्गी-झोपड़ीका फैलता जाल अर्थव्यवस्थाके लिए चुनौती है। गरीबी रेखासे नीचे रहनेवालोंकी विशाल संख्या बीते सात दशकमें हुए विकासके दावों को संदिग्ध बना देती है। हालांकि कम जनसंख्या वाले विकसित देशोंमें भी कोरोनाने व्यवस्थाओंका कचूमर निकलकर रख दिया किन्तु भारतमें सरकारके सामने तकरीबन ८० करोड़ लोगोंके पेट भरनेकी चुनौती थी। हमारे पड़ोसी चीनने जनसंख्या नियन्त्रणकी दिशामें कड़े और दूरगामी कदम उठाते हुए उसे काफी हदतक नियंत्रित कर लिया जिसका उसे जबर्दस्त लाभ भी हुआ। चूंकि वहां साम्यवादी शासनसे एक तरहकी तानाशाही है इसलिए सरकारी फैसलेका विरोध करनेकी हिम्मत किसीकी नहीं होती जबकि भारतमें संसदीय प्रजातंत्रकी वजहसे वोट बैंककी राजनीतिके चलते राष्ट्रीय हितोंको उपेक्षित करनेमें कोई संकोच नहीं किया जाता। इसका लाभ उठाकर मुस्लिम समाजमें परिवार नियोजनके विचारको धर्म विरोधी मानकर छोटे परिवारकी आवश्यकताके प्रति आंखें मूँद ली गयीं। उनके धर्मगुरु भी परिवारको सीमित रखनेके विरुद्ध ही अभिमत देते रहे। जबकि सही मायनोंमें मुस्लिमोंको अपने आर्थिक और सामाजिक उत्थानके लिए परिवार नियोजनकी सबसे अधिक जरूरत थी। नतीजा कि यह समुदाय विकासकी दौड़में पीछे रह गया। यह अच्छी बात है कि जन्संख्या नियन्त्रण कानूनके बारेमें अबतक राजनीतिक विरोध सामने नहीं आया है। शरद पवार द्वारा उसका समर्थन किया जाना भी शुभ संकेत है।
सोशल मीडियापर भी ज्यादातर लोगोंने जनसंख्या नियन्त्रणके लिए कानून बनाये जानेको जरूरी बताया है। केंद्र सरकार पहले भी इस आशयका संकेत दे चुकी थी। अब जबकि दूसरी लहर समाप्ति की ओर है और तीसरीकी आशंका है तब जनसंख्या नियन्त्रणके लिए कानूनी प्रावधान राष्ट्रीय हितकी दिशामें बड़ा कदम होगा। वैसे मुस्लिम समुदायके साथ ही समाजके अशिक्षित और आर्थिक तौरपर बेहद कमजोर तबकेको भी ज्यादा संतान पैदा करनेसे आनेवाली मुसीबतोंका एहसास होने लगा है। लेकिन अब भी धर्मभीरुतासे जनसंख्या विस्तारकी गति निरंतर जारी है। २१ वीं सदीमें भारत यदि विश्वकी आर्थिक महाशक्ति बननेकी सोच रहा है तो उसे आर्थिक नियोजनके साथ ही जनसंख्या नियोजन करना पड़ेगा। चीनने अपनी विशाल जनसंख्या को मानव संसाधनके तौरपर पेश करते हुए सारी दुनियाके उद्योगपतियोंको अपने देशमें पूंजी निवेश हेतु आकर्षित करनेके पहले जनसंख्या नियन्त्रण करनेमें सफलता हासिल कर ली थी। जबकि भारतको वैसी ही परिस्थितियां होनेके बाद भी चीन जैसा लाभ नहीं मिला तो उसकी वजह हमारे आर्थिक नियोजन और जनसंख्या नियोजनमें समन्वय की कमी होना था। समय आ गया है जब चुनावी राजनीतिसे ऊपर उठकर देशकी बेहतरीके बारेमें सोचा जाये।
प्रस्तावित कानून एक बच्चे की नीति अपनानेवालोंको कई तरहकी राहत देता है। इसके तहत जो माता-पिता पहला बच्चा होनेके बाद नसबंदी या आपरेशन करा लेंगे, उन्हें कई तरहकी सुविधाएं दी जायंगी। पहला बच्चा लड़का होनेपर ८० हजार रुपये और लड़की होनेपर एक लाख रुपयेकी विशेष प्रोत्साहन राशि दी जायगी। उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोगने जनसंख्या नियंत्रण कानूनका मसौदा तैयार करके आम लोगोंसे इसपर राय मांगी हैं। आयोगने अपनी आधिकारिक वेबसाइटपर इस मसौदेको अपलोड़ कर दिया है। लोगों १९ जुलाईतक आपत्तियां एवं सुझाव देनेको कहा है। लोगोंकी राय सामने आनेपर योगी सरकार इसे लागू करनेपर आखिरी फैसला करेगी। मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथका मूड इसे विधानसभा चुनावसे पहले लागू करनेका लगता है। हालांकि योगी सरकार इस कानूनको हालमें हुए जिला पंचायत और ग्राम पंचायतके चुनावसे पहले लागू करना चाहती थी, लेकिन किसी वजहसे टाल दिया था।
जनसंख्या नियंत्रणको लेकर समाजमें पिछले कुछ दशकोंमें काफी जागरूकता आयी है। १९७५ में देशमें इमरजेंसी लागू होनेके बाद जब तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधीके बेटे संजय गांधीने नसबंदी कानूनको जबरन लागू करानेकी कोशिश की थी, तब पूरे देशमें इसका विरोध हुआ था। खासकर मुस्लिम समुदायने इस मुहिमका विरोध किया था। कई देशों और देशके कई राज्योंका तजुर्बा यह कहता है कि सख्त कानूनसे लोगोंमें खौफ पैदा करके उन्हें कम बच्चे पैदा करनेपर मजबूर तो किया जा सकता है, लेकिन यह बहती हुई जनसंख्याका स्थायी समाधान नहीं है। स्थायी समाधान लोगोंको जनसंख्या नियंत्रणके लिए बढ़ती जनसंख्याके नुकसान और संसाधनोंकी कमीके प्रति जागरूक करके ही प्रेरित किया जा सकता है। शिक्षा ही इसका स्थायी समाधान दे सकती है। मुसलमान भी छोटे परिवारके साथ जुड़े दूरगामी फायदोंको समझते हुए जनसंख्या नियन्त्रणके लिए आनेवाले किसी भी कानूनका समर्थन कर अपनी जागरूकताका परिचय दें तो उनकी नयी पीढ़ीका भविष्य सुधर जायगा। उत्तर प्रदेश सहित कुछ और राज्योंमें होने जा रहे विधानसभा चुनावोंसे इसे जोड़कर देखना गलत होगा क्योंकि हमारे देशमें तो पूरे पांच साल कहीं न कहीं चुनाव चला ही करते हैं। केंद्र सरकारको चाहिए कि वह संसदके मानसून सत्रमें ही जनंख्या नियन्त्रण कानून लेकर आये। राजनीतिक फायदे या नुकसानसे ऊपर उठकर देश हितमें यह कदम उठाया जाना जरूरी है।