सम्पादकीय

अफगानिस्तानमें नाजुक हालात


सुशांत सरीन        

जिस तरहसे तालिबानने अफगानिस्तानके उत्तर और पश्चिमके क्षेत्रों तथा पड़ोसी देशोंसे लगते सीमावर्ती क्षेत्रोंपर कब्जा किया है तथा जिस तरहसे अफगान सेनाने अपने हथियार डाले हैं, उससे लगता है कि यह सब अधिक दिन नहीं चल सकेगा और अफगान सरकार एवं सेना तितर-बितर हो जायेगी। दूसरी राय है कि तालिबान विजयकी ओर बढ़ रहे हैं। उसमें एक पहलू जरूर है कि स्थितियोंकी गति उनके पक्षमें है और सेनाके हौसले पस्त नजर आ रहे हैं। तालिबानने कोई आबादी वाला बड़ा क्षेत्र या शहर तो कब्जा नहीं किया है लेकिन कस्बों-देहातोंमें तथा शहरोंके आसपासके इलाकोंपर वे काबिज हो गये हैं। इस प्रकार शहरोंको उन्होंने अपने घेरेमें ले लिया है। जो पांच हजार वर्षोंसे होता आ रहा है, धीरे धीरे वे शहरोंपर दबाव बढ़ायेंगे, कुछ कमांडरोंको पैसा देंगे, कुछको बरगलायेंगे यानी कुछ न कुछ कर वे जब चाहेंगे शहरोंपर काबिज हो जायेंगे। हो सकता है कि कुछ शहरोंके लिए थोड़ी-बहुत लड़ाई हो, पर आखिरकार यह खेल खत्म हो जायेगा। जो पहला नजरिया है उसमें यह है कि तालीबान अपनी बढ़तके साथ जैसी हरकतें कर रहे हैं, उनसे उनके खिलाफ नफरत भी बढ़ रही है। कुछ लोगोंका यह मानना कि तालिबान अब बदल गये हैं, गलत साबित हुआ है। तालिबानके सामने हथियार डालनेसे तो अच्छा है कि खुदकुशी कर लें। खुदकुशीकी ओर ही बढऩा है तो बेहतर है कि लड़ कर मरें। शायद कुछ दिनों या हफ्तोंमें देखेंगे कि अफगान फौज दुबारा अपनेको संघटित करेगी, नेतृत्व उपलब्ध होगा और यह युद्ध जारी रहेगा।

इतनी जल्दी सब कुछ खत्म नहीं होगा। युद्धके बारेमें निश्चित रूपसे कहना मुश्किल है, परन्तु जिस तरीकेसे तालिबानका रवैया रहा है उससे अमेरिका समेत पूरी दुनियामें हाहाकार मचा है। जो देश अबतक ढुलमुल रवैया लेकर बैठे हुए थे, चाहे वह रूस हो, कुछ हदतक चीन, ईरान आदि। उनसे कुछ-कुछ आवाजें उठनी शुरू हुई हैं। उन्होंने तालिबानको कुछ चेतावनी दी है। अमेरिकाके भीतर भी दबाव बढ़ रहा है। इस बड़े खेलमें भारतका जो रवैया है वह स्थिर है। कुछ खबरें आयी हैं कि भारतने तालिबानसे कुछ संपर्क स्थापित किया है लेकिन एक तो सरकारने उसका खंडन कर दिया है और यदि ऐसा छोटा-मोटा संपर्क हुआ भी है तब भी भारत अफगान सरकारके साथ है। विदेश मंत्री एस जयशंकरने शंघाई सहयोग संघटनकी बैठकमें जो कहा है वह बहुत अहम है। उनका कहना है कि अफगानिस्तानमें ऐसी जोर-जबरदस्ती ठीक नहीं है और शांति प्रक्रियाको आगे बढ़ाया जाना चाहिए। फिलहाल देशमें युद्ध जारी है और तालिबान बढ़तपर हैं, लेकिन युद्धकी दशा एवं दिशाके बारेमें अभी कह पाना मुश्किल है।

जहांतक अफगान सरकार और तालिबानके बीच बातचीतका सवाल है तो यह बातचीत तो बहुत अरसेसे चल रही है। तालिबान इसे लटका कर रखते हैं और साफगोईसे किसी साझा सरकारके बारेमें अपनी राय नहीं पेश करते। यह समझना मूर्खता ही है कि तालिबानके साथ सत्तामें साझेदारी की जा सकती है। अबतक ऐसी संभावना नहीं दिखती है कि तालिबानके दो-तीन बड़े धड़े अलग हो जायेंगे। यह भी सवाल है कि क्या तालिबानके कमांडर शांति वार्ताओंमें अपने प्रतिनिधियोंके कहनेपर हमले बंद कर देंगे। वह भी ऐसे समयपर जब उन्हें लग रहा है कि वे जीतके करीब हैं।

लोग बरसोंसे कहते आ रहे हैं कि जबतक ऐसी स्थिति नहीं बनती कि तालिबानको जीतना असंभव लगे, तबतक कोई ठोस बातचीत नहीं हो सकती है। आज जब वे बढ़तपर हैं तो वे सत्तामें किसीके साथ साझेदारी क्यों करेंगे। आजतक उन्होंने यह नहीं बताया है कि साझेदारीका मसौदा क्या होगा। सात-आठ साल पहले जब ऐसी बात होती थी तो कहा जाता था कि दक्षिण एवं पूर्वके कुछ इलाके तालिबानको दे दिये जाये। परन्तु आज तालिबान इसे नहीं मानेंगे। जिन इलाकोंमें तालिबानने कब्जा किया है वहां उन्होंने कड़े कायदे लागू किये हैं। जैसे लोग दाढ़ी नहीं कटा सकते, सिगरेट नहीं पी सकते आदि। उन क्षेत्रोंमें १५ से ४५ सालकी महिलाओंकी सूची बनाकर उनकी शादी तालिबानियोंसे करनेका फरमान सुनाया जा रहा है। ऐसा कौन-सा काम है जो इस्लामिक स्टेट कर रहा था और तालिबान नहीं कर रहे। इस्लामिक स्टेटके खिलाफ बोलते हुए अमेरिका और यूरोपके कई विचारक कहते थे कि तालिबानी अच्छे हैं और वे इस्लामिक स्टेटको रोकेंगे।

उनसे दोनों समूहोंमें अंतरके बारेमें पूछा जाना चाहिए। यह समझा जाना चाहिए कि तालिबानके अमीर केवल तालिबानके अमीर नहीं हैं वे अमीर-उल-मोमिनीन हैं। अभी भले ही वे कहें कि वे अफगान सरहदसे परे नहीं जायेंगे पर पहलेकी तरह वे देर-सबेर पड़ोसी देशोंमें घुसनेकी कोशिश जरूर करेंगे। तालिबानोंको मध्य एशियाई देशोंके शासन या ईरानके शिया उलेमा कबूल नहीं हो सकते। इसी प्रकार भले ही पाकिस्तान उनका दोस्त है परन्तु उसकी सरकार तालिबानियोंको कहांतक गवारा हो सकेगी, यह सवाल भी है। यदि तालिबानमें बदलाव संभव होता तो वे तालिबान ही नहीं होते। इनके खिलाफ प्रतिरोध तो होगा लेकिन शायद वह नब्बेके दशक जैसा नहीं होगा, जब अहमद शाह मसूद, राशिद दोस्तम जैसे अनेक कमांडर होते थे और उन्हें रूस, ईरान और भारतका समर्थन हासिल था। तब भी तालिबानी पंजशीरकी वादीको छोड़कर देशके करीब नब्बे फीसदी हिस्सेपर काबिज हो गये थे। इस बार कुछ ऐसे इलाके भी उनके कब्जेमें आ गये हैं जो वे तब नहीं जीत सके थे। अफगान समाजके हिसाब-किताबको देखें तो यह गृहयुद्ध अभी जारी रहेगा।