सम्पादकीय

ध्यान


वी.के. जायसवाल

ध्यान ऐसी क्रिया है जिसमें व्यक्ति शरीरसे अलग होनेका अनुभव कुछ उसी तरहसे करता है जिस प्रकारसे मृत्युके समय अनुभव किया जा सकता है। गहरे ध्यानकी क्रियाका अनुभव हो या मृत्युके समयका अनुभव हो दोनोंमें ही बहुत कुछ समानताएं है क्योंकि दोनोंमें ही शरीरको छोडऩेका अनुभव होता है बस अंतर केवल इतना है कि गहरे ध्यानकी अनुभूति सुखद आनन्द प्रदान करती है जब कि मृत्यु व्यक्तिके लिए महान कष्टकारी क्षण होता है। यह सत्य है कि ध्यानकी क्रियाके माध्यमसे व्यक्ति जीते जी अचेतन अवस्थासे चेतन अवस्थाकी ओर अग्रसर होता है। साधारण मृत्यु और ध्यानके समय अनुभव होनेवाली दोनों ही मृत्यु व्यक्तिको अचेतनसे चेतन अवस्थाकी ओर ले जाती हैं। जहां ध्यानके माध्यमसे चेतन अवस्थाको प्राप्त करना एक सुखद जीवन यात्राकी अनुभूति कराता है वही साधारण मृत्युके माध्यमसे चेतन अवस्थातक पहुंचनेकी यात्रा घनघोर कष्ट पहुंचाती है इसीसे व्यक्तिको इस रास्ते चेतन अवस्थातक पहुंचनेमें अपार कष्टका सामना करना पड़ता है। साधारण मृत्युकी दशामें पीड़ा हमें इसलिए होती है क्योंकि जीते जी हम मृत्युकी स्थितिमें पहुंचना नहीं सीख पाते है। गीतामें भगवान श्रीकृष्णने कहा है कि यदि मृत्युके समय कोई व्यक्ति अपने प्राणोंको अपने दोनों नेत्रोंके बीचमें स्थिर करके हमारा ध्यान करता है तो ऐसी स्थितिमें वह आसानीसे मुझको प्राप्त हो जाता है अर्थात मृत्युकी पीड़ासे वह अपनेको दूर कर लेता है, लेकिन ऐसा तभी संभव है जब व्यक्ति जीते जी अपने शरीरमें स्थिति शक्तिके मुख्य श्रोततक पहुंचना सीख जाता है। इस श्रोततक पहुंचनेके लिए भीतरी दुनियामें गतिशील होना ही पड़ता है जो ध्यानमें डूबनेपर ही धीरे-धीरे सम्भव हो पाता है। यह कुछ उसी प्रकारसे है जिस प्रकारसे तैरनेसे अनभिज्ञ किसी व्यक्तिको अचानक एक गहरी नदीमें फेंक दिया जाय, ऐसी दशामें व्यक्तिकी कष्टकारी मृत्यु निश्चित है लेकिन यदि व्यक्ति पहलेसे तैरना जानता है तो वह आसानीसे तैर कर अपनी कष्टकारी मृत्युको बचा लेगा।