सम्पादकीय

तर्कका आधार


श्रीराम शर्मा

कई बार मनुष्य अपने अनुचित कार्यों और आदतोंके संबंधमें दुखी भी होता है और सोचता है कि उन्हें छोड़ दूं। अवांछनीय अभ्यासोंकी प्रतिक्रिया उसने देखी-सुनी भी होती है। परामर्श उपदेश भी उसी प्रकारके मिलते रहते हैं, जिनमें सुधारनेके लिए कहा जाता है। सुननेमें वह परामर्श सारगर्भित भी लगते हैं। किंतु जब छोडऩेकी बात आती है तो मन मुकर जाता है अभ्यस्त ढर्रेको छोडऩेके लिए सहमत नहीं होता है। आर्थिक तंगी, बदनामी, शरीरकी बर्बादी परिवारमें मनोमालिन्य जैसी हानियां प्रत्यक्ष रहती हैं। उनका अनुभव भी होता है छोडऩेको जी भी करता है, परन्तु जब तलब लगती है तब सब सोचा-समझा बेकार हो जाता है। आदत उभर आती है और अपना काम करने लगती है। बार-बार सुधरनेकी बात सोचने और समय आनेपर उसे न कर पानेसे मनोबल टूटता है। बार-बार टूटनेपर वह इतना दुर्बल हो जाता है कि यह विश्वास ही नहीं जमता कि उनका सुधार हो सकता है। आदतोंसे किसी भी प्रकार छुटकारा न मिल सकेगा। आश्चर्यकी बात है कि मनुष्य अपने मनका स्वामी है। शरीरपर भी उसका अपना अधिकार है। सामान्य जीवनमें वह अपनी अभिरुचिके अनुरूप सोचता है और आवश्यकतानुसार कार्य करता है। फिर दुष्प्रवृत्तियोंके संबंधमें ही ऐसी क्या बात है, जिसके कारण वह चाहते हुए भी नहीं छूटती। अंधविश्वास कुप्रचलन इसी आधारपर अपनी जड़ जमाये हुए हैं। अनेक कुरीतियां ऐसी हैं, जिन्हें बुद्धि विवेक और तर्कके आधारपर हर कोई अस्वीकार ही करता हैं, किंतु जब करनेका समय आता है तो पुराने ढर्रेपर चल पड़ते हैं। खर्चीली शादियोंके संबंधमें यही बात आम तौरसे देखी गयी है। दहेज प्रदर्शन और प्रचलित रीति-रिवाजोंका जंजाल सभीको कष्टकारक, असुविधाजनक खर्चीला मूर्खतापूर्ण होनेके कारण विचारशीलता उसके विरुद्ध ही रहती है, इतनेपर भी समय आनेपर पुराना ढर्रा ही हावी हो जाता है और वही करना पड़ता है, जिसे न करनेकी बात अनेक बार सोची थी। ऊंचा उठनेके संबंधमें तो और भी अधिक अड़चन है। महापुरुषोंके कुछ अपने गुण, कर्म और स्वभाव ही ऐसी होते हैं, जो महत्वपूर्ण लोकोपयोगी कार्योंमें लगते हैं अवरोधोंसे जूझते हुए लक्ष्यतक पहुंचनेका साहस प्रदान करते हैं। उन्हें अनुकरणीय और अभिनंदनीय माना जाता है। उनकी उपलब्धियों प्रशंसा, प्रतिष्ठाको देखकर अनेकोंका मन जलता है कि हमें भी यह सुयोग मिला होता तो कितना अच्छा होता। इस दिशामें वह सोचते तो बहुत कुछ हैं, परन्तु बन पड़े ऐसा कुछ कर नहीं पाते। सोचते, मन मारते ही जिन्दगी बीत जाती है। लगता है कि कोई दुर्भाग्य पीछे पड़ा है और वह हमारी कल्पना, इच्छा, योजनाको कार्यान्वित नहीं होने देता।