सम्पादकीय

बाल अपराधकी हिंसक होती प्रवृत्ति


प्रभुनाथ शुक्ल
उत्तर प्रदेशके बुलंदशहरमें एक छात्रकी हरकतने समाजको स्तब्ध कर दिया। १४ सालके स्कूली छात्रने अपने ही सहपाठीको इसलिए गोली मार दी कि स्कूलमें बैठनेको लेकर उसका और सहपाठीका आपसमें झगड़ा हुआ था। इसका बदला लेनेके लिए घटनाके दूसरे दिन अपनी स्कूल बैगमें चाचा कि लाइसेंसी पिस्तौल लेकर आये छात्रने सहपाठीको गोली मार दिया। हालांकि बादमें स्कूल स्टॉपकी तत्परतासे उसकी गिरफ्तारी हो गयी। लेकिन समाजमें बढ़ते बाल अपराधके मनोविज्ञानने हमें चौका दिया है। सामाजिक बदलाव और तकनीकी विकासका मानव जीवनपर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है। सीखने और समझनेकी क्षमता भी अधिक बढ़ी है। जिसका नतीजा है अपराधका ग्राफ भी तेजीसे बढ़ा है। भारतमें बाल अपराधके आंकड़ोंकी गति भी हालके सालोंमें कई गुना बढ़ी है। जिस अपराधकी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं उस कार्यको नाबालिक किशोरोंने कर समाज और व्यवस्थाको सोचनेपर मजबूर कर दिया है। निर्भया कांडमें भी एक बाल अपराधीकी भूमिका अहम रही थीं। बादमें जुवेनाइल अदालतसे वह छूट गया था। संयुक्तराष्ट्र १८ सालके कम उम्रके किशोरोंको नाबालिग मानता है, जबकि भारत समेत दुनियाभरमें बढ़ते बाल अपराधकी घटनाने सोचनेपर मजबूर किया है। जिसकी वजह है कि दुनियाके कई देशोंने नाबालिगकी उम्र घटा दिया है। कई देशोंमें बाल अपराधकी सजा बड़ों जैसी है। भारतवर्षमें किसी बच्चेको बाल अपराधी घोषित करनेकी उम्र १४ वर्ष तथा अधिकतम १८ वर्ष है। इसी तरह मिश्रमें सात वर्षसे १५ वर्ष, ब्रिटेनमें ११ से १६ वर्ष तथा ईरानमें ११ से १८ वर्ष है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार हाल के सालों में बाल अपराध की घटनाएँ तेजीसे बढ़ी हैं।
अमेरिका जैसे देशमें इस तरहकी अनगिनत घटनाएं हैं, लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्यमें यह बड़ी बात है। यह घटना साफ तौरपर इंगित करती है हम किस सामजिक बदलावकी तरफ बढ़ रहें हैं। हम असहिष्णु समाजका निर्माण करना चाहते हैं। आनेवाली पीढ़ीमें संवाद, संयम और सहनशीलता, धैर्य, क्षमाका अभाव दिखने लगा है। १४ सालकी उम्र भारतीय समाजमें विशेष रूपसे सीखनेकी होती उस उम्रके किशोर प्रयोगवादी कहांसे हो गये हैं। हम समाज और आनेवाली पीढ़ीको कौन-सा महौल देना चाहते हैं। १४ सालकी उम्रका नाबालिग किशोर पिस्तौलमें गोली भरना और ट्रिगर दबाना कैसे सिख गया। यह सब तकनीकी विकास और पारिवारिक महौलपर बहुत कुछ निर्भर करता है।
संवेदनशील आग्नेयास्त्र बच्चोंकीपहुंचतक घरमें कैसे सुलभ हो गये। इस तरहके शस्त्र् बच्चोंकी पहुंचसे छिपाकर रखनेकी वस्तु हैं। नाबालिग किशोर उस आग्नेयास्त्रतक कैसे पहुंच गया। छात्रके बैगमें टिफिन रखते वक्त क्या मांने उसका स्कूल बैग चेक नहीं किया। जिस चाचाकी पिस्तौल लेकर किशोर स्कूल गया, वह सेनामें कार्यरत बताया गया है। अवकाशपर घर आया था, फिर क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती थीं कि इस तरहके शस्त्रोंको बच्चोंकी पहुंचसे दूर रखा जाय। इनसान खुदको टाइम मशीन बना लिया है। वह बच्चों, परिवार, समाज और समूहपर अपना ध्यान ही केंद्रित नहीं कर पा रह है। यदि थोड़ी-सी सतर्कता बरती जाती तो सम्भवत: इस तरहके हादसेको टाला जा सकता था। यदि उस शस्त्रको बच्चोंकी पहुंचसे सुरक्षित स्थानपर किसी लाकरमें रखा जाता तो इस तरहकी घटना नहीं होती। इस घटनासे सबक लेते हुए स्कूल प्रबंधनको भी चाहिए कि बच्चेकी स्कूल गेटपर हर छात्रकी तलाशी ली जाय, क्योंकि अपराध किसी चेहरे नहीं लिखा है। स्कूलोंमें मेटल डिटेक्टर भी लगाये जाने चाहिए।
हमने मासूम बच्चोंपर स्कूली किताबोंका बोझ अधिक लाद दिया है। पढ़ाई और प्रतिस्पर्धाकी होड़में किशोरवय अल्हड़ताको छीन लिया है। आधुनिक जीवन शैलीने सामाजिक परिवेशको जरूरतसे अधिक बदल दिया है। हम प्रतिस्पर्धी जीवनमें बच्चों और परिवारपर समय देना बंद कर दिया है। जिसकी वजहसे बच्चोंमें एकांकीपन, चिड़चिड़ापन आता है। परिवार नामकी संस्था और नैतिक मूल्यकी उनमें समझ नहीं पैदा होती। उन्हें समाज, परिवार जैसे संस्कार ही नहीं मिल पाते। शहरोंमें माता-पिताके कामकाजी होनेसे यह समस्या और गहरी बन जाती है। क्योंकि इस तरहके परिवारमें बच्चोंके लिए समय ही नहीं बचता है। स्कूलसे आनेके बाद बच्चोंपर ट्ïयूशन और होमवर्कका बोझ बढ़ रहा है। माता-पिता बच्चोंको समय नहीं दे पाते हैं। दादा-दादीका तो वक्त खत्म हो चला है, नहीं तो कमसे कम शिक्षाप्रद कहानियोंके माध्यमसे बच्चोंका मार्गदर्शन होता था।
मनोचिकित्सक डा. मनोज तिवारी मानते हैं कि किशोरोंमें बढ़ती हिंसक प्रवृत्तिके पीछे अभिभावकों भी हैं। क्योंकि बच्चोंपर वह उचित ध्यान नहीं दे पाते हैं। दूसरी वजह कई परिवारोंमें माता-पितामें आपसी संबंध सही न होनेसे बच्चोंको समुचित समय नहीं मिल पाता है। किशोरों द्वारा हिंसक वीडियो गेम खेलनेसे भी उनके मस्तिष्कपर गहरा प्रभाव पड़ता है। जिसकी वजहसे उनमें हिंसक प्रवृत्ति बढ़ती है। किशोरोंमें सांवेगिक नियंत्रणकी कमी होती है और वह फैसले अपने संवेगके आधारपर लेते हैं। डा. तिवारीके अनुसार किशोरवयके साथ हम क्रोधके बजाय मित्रवत व्यवहार करें। उनके साथ खेलें और बातचीत करें। उन्हें अधिक समयतक मोबाइल एवं टेलीविजनके साथ अकेले न छोड़े। बच्चोंको अकेले बहुत अधिक समय व्यतीत न करने दें। बच्चेके व्यवहारमें किसी भी तरहके असामान्य परिवर्तन होनेपर उसके कारणोंको जाननेका प्रयास करें और संभव हो तो मनोवैज्ञानिक परामर्श लें। कोरोना कालमें स्थितियां बदली हैं। वर्क फ्रॉम होम और स्कूलीकी तालाबंदी होनेसे अभिभावकोंने बच्चोंको काफी वक्त दिया है। कोरोनासे वैश्विक अर्थव्यवस्थाको बड़ा झटका भले लगा हो, लेकिन परिवार नामकी संस्थाका मतलब लोगोंके समझमें आ गया है। इसके पूर्व शहरी जीवनमें बच्चोंको बड़ी मुश्किलसे रविवार उपलब्ध हो पाता था। जिसमें माता-पिता बच्चोंके लिए समय निकाल पाते थे, लेकिन कोरोना परिवार नामक संस्थाको मजबूत किया है। बुलंदशहरकी घटना हमारे लिए बड़ा सबक है। हमें बच्चोंके लिए समय निकालना होगा। किताबी ज्ञानके इतर हमें पारिवारिक और सामाजिक शिक्षा भी बच्चों देनी होगी। किशोर उम्र बेहद नाजुक होती है यह अपनी दिशा तेजीसे तय करती है। आपका बच्चा स्कूल और कालेज जा रहा है तो वहां क्या कर रहा है उसकी निगरानी भी आपको करनी है। बच्चेसे मित्रवत व्यवहार रखें। बच्चोंकी स्कूल बैग टिफिनके बहाने देखें। स्कूल बैगमें यदि कोई भी ऐसी वस्तु तो नहीं रखी है जिससे उसके बुरे व्यवहारका पता चलता हो। बच्चोंको समय दें और शामको स्कूली दिनचर्याके बारेमें जानकारी लें। स्कूल और ट्ïयूशन शिक्षकसे भी सम्पर्क बनाये रखें। इन सब बातोंसे आप उसकी गतिविधियोंपर नजर रखकर माता-पिताके रूपमें एक नैतिक शिक्षक आप खुद बन सकते हैं और बच्चोंमें बढ़ते अपराधकी प्रवित्तिको नियंत्रित कर सकते हैं।