सम्पादकीय

मुनाफेके लिए अमानुषिकताकी ओर बढ़ता समाज


डा. अम्बुज

भारत गांवका देश है। देशकी अधिकांश आबादी गांवोंमें रहती है। देशका अन्नदाता भी गांवोंमें रहता है, फिर भी सेवाके लिए कोई गांवमें रहना नहीं चाहता है। विश्व स्वास्थ्य संघटनके हिसाबसे देशमें डाक्टरोंकी भारी कमी है ग्रामीण क्षेत्रोंमें तो डाक्टर नगण्य स्थितिमें हैं। ऐसेमें कोरोना महामारी गांवके ग्रामवासियोंपर कहर बरपा रहा है। १२ दिसम्बर, २०१९ में चीनके वुहानसे उठे कोरोना महामारीका देशमें ३० जनवरी, २०२० को शून्य प्रतिशत मिला लेकिन अब एक वर्षमें पूरे देशमें कोरोना प्रवाहित हो चुका है। अब कोरोनाका एक अन्य रूप बी१.६१७ देशमें अधिकांश प्राप्ति हो रहा है जिसे भारतीय प्रकारके नामसे जाना जा रहा है। देशको अपनी चपेटमें लेनेवाले कोरोना वैश्विक महामारीसे जुड़े चार-पांच मुद्दे मुख्य हैं। इलाज, दवा, टीकाकरण, आक्सीजन एवं वेण्टीलेटर इसके लिए देशकी एक नीति क्या है। इससे आमजन अभीतक अनभिज्ञ है। आमजन कोरोनासे बचावमें बस मास्क लगाना, दो गजकी दूरी और बार-बार साबुनसे हाथ धोना जानता है। ऐसे हालमें झोलाछाप डाक्टरोंके सहारे कोरोना जैसी घातक महामारीका सामना ग्रामीण कैसे कर रहा है, किस दहशतमें जीनेको मजबूर है, सोचनेका विषय है।

कोरोना महामारीका इलाज चिकित्सा जगत अभीतक नहीं खोज सका है ले-देकर बचावको ही उपाय बताया जा रहा है। ऐसेमें एक बचाव टीकाकरण  दिखता है वह भी नियमावलीके अनुसार लगाया जा रहा है जिसमें एक व्यक्तिको दो डोज लगने हैं लेकिन दो डोजोंके बीचकी समयावधि बार-बार परिवर्तित हो रही है तथा बढ़ाया जा रहा है जो एक मजबूत नीतिके अभावको दर्शाता है और अब टीकाकी भारी कमी देशमें महसूस की जा रही है। ऐसेमें गांवोंकी स्थिति जहां न कोई शापिंग काम्पलेक्स है, न ही ठीक-ठाक दवाकी दुकान, न ही डाक्टर एवं अस्पतालकी सुविधा। इस स्थितिमें कोरोना महामारीके बीच ग्रामीण जीवन रामभरोसे ही चल रहा है, क्योंकि नीति एवं बड़े सरकारी अस्पताल बड़े शहरोंमें ही हैं। देशके बड़े शहर चिकित्सा हब शिक्षा हबके रूपमें विकसित हो रहे हैं, वहीं देशके कई पिछड़े जिले ऐसे हैं जहां जिला मुख्यालय अस्पताल भी बस प्राथमिक इलाजके लिए ही हैं। मानो वह मरीजका रेफर फार्म भरनेके लिए बनाये गये हैं। इन परिस्थितियोंमें ग्रामीण जीवनकी स्थिति कोरोना जैसी घातक जानलेवा बीमारीमें क्या होगी। गांवमें क्या है। यह प्रत्येक ग्रामीण जानता है कि उसके पुरखोंकी भूमि है, उसकी अपनी संस्कृति-सभ्यता एवं उसके मेहनतकी उपज है फिर शिक्षा, इलाज, दवाके लिए, शादी-विवाहकी या बड़ी खरीदारीके लिए वह शहरकी ओर भागता है। फिर भी गांवोंमें अपनी संवेदना-सहनशीलताके साथ जीता है। ग्रामीण ऐसेमें कोरोना महामारीका सामना करते हुए यदि इलाजके लिए शहरोंके अस्पतालोंमें आता तब उसको आधुनिक विकासके शहरी सभ्यताका शिकार होना पड़ता है। देशके एक ग्रामीणको पोस्टमार्टम हेतु बेटीके शवको खाटपर रखकर ३५ किलोमीटर पैदल चलकर शहर आना पड़ता है तब इसीसे ग्रामीण जनकी स्थिति एवं गांवकी सुविधाको समझा जा सकता है। कोरोनाके लक्षणोंसे पीडि़त ग्रामीण झोलाछाप डाक्टरोंकी सेवाएं लेनेको मजबूर है। कोरोना कहरसे स्थिति भयावह हो गयी है कि शवोंके अन्तिम संस्कारके लिए लकड़ी नहीं मिल रही है। कहीं विद्युत शवदाह गृहकी चिमनी एवं प्लेटफार्मतक पिघल जा रहे हैं। नदियोंमें बेतहाशा शवोंका मिलना बताता है कि बड़ी तादातमें देशवासी कालके गालमें समा रहे हैं, जबकि शासनतंत्रके आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। यह समझनेका विषय है।

विश्व स्वास्थ्य संघटन, संयुक्त राष्ट्र संघ एवं दुनियाके देशोंका आभार है कि जिन्होंने विपरीत परिस्थितियोंका सामना करते हुए भी समयपर जीवनरक्षक आक्सीजन, वेण्टीलेटर एवं अन्य आवश्यक सामग्री उपलब्ध करायी जिससे बहुतेरे देशवासियोंके जीवनकी रक्षा हो सकी, नहीं तो स्थिति और अनियन्त्रित हो जाती। शासनतंत्र लगातर टीकोंके बरबारीको रोकनेपर विशेष बल दे रहा है। सवाल उठता है कि आखिर टीके बरबाद कहां और कैसे हो रहे हैं। क्योंकि टीके तो आमजनकी पहुंचे बाहर है। टीका कम्पनीसे सीधे शासन तंत्रको प्राप्त हो रहे हैं वहांसे देशके चिकित्सा सेवासे जुड़े कोरोना वारियर्सको प्राप्त हो रहे हैं। जो टीके लगानेका काम कर रहे हैं जबकि टीकेकी मात्रा एवं डोज निर्धारित है फिर टीके बरबाद कहां, कैसे होनेकी सम्भावना बनी है। टीकेकी बरबादी कौन लोग कर रहे हैं जिसका खुलासा शासनतंत्रको करना चाहिए। जबकि बायोबान प्रमुख किरण मजूमदार शाने वैक्सीनकी कमी एवं आपूर्तिपर सवाल उठाया है कि हर महीने सात करोड़ वैक्सीनका शासन तंत्र कहां उपयोग करता है कि देशमें वैक्सीन आपूर्तिका संकट बना हुआ है। शासनकी वितरण प्रणाली ऐसी क्यों है कि देशमें हर जगह वैक्सीनकी कमी पायी जा रही है। इसके लिए वैक्सीन उपलब्धता एवं वितरण प्रणालीको पारदर्शिताके साथ सार्वजनिक किये जानेकी आवश्यकता है जिससे जनमानसमें कोरोना जंगके खिलाफ धैर्य बना रहे। कोरोना महामारी इलाजके गाइडलाइनमें स्टोराइडके गुणसूत्र एवं प्रभाव जानते हुए सभी कोरोना संक्रमितोंको प्रदान करनेकी नसीहत दी गयी, जो अन्य संक्रमित मरीजों एवं मधुमेय रोगी कोरोना संक्रमितोंके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। ब्लैक फंगस यानी म्यूकरमाइकोसिस बीमारी जो कोरोना संक्रमितोंके इलाजके उपरान्त उत्पन्न होना बताया जा रहा है जिस तरह फंगस मरीजोंकी संख्यामें इजाफा हो रहा है एक बड़ी महामारीका रूप धारण कर रही है इसे कई प्रान्तीय शासनतंत्रने महामारी घोषित किया है। ब्लैक फंगसके सन्दर्भमें एक राष्टï्र एक नीतिका अभाव दिखता है, क्योंकि देशका शासन तंत्र ब्लैक फंगसको राष्टï्रीय महामारी घोषित करनेसे कतरा रही है। साथ ही प्रान्तोंको महामारी घोषित करनेका निर्देश दे रहा है, जो सोचनेका विषय है। इस वर्ष जब कोरोनाका संक्रमण तेजीसे बढऩे लगा तब एक-एक कर लगभग सभी राज्य एवं केन्द्रशासित प्रदेश अपने-अपने तरीकेसे कफ्र्यू एवं लाकडाउन लगाने लगे।

देशमें कोरोना वायरसके डबल मयूटेटका वायरस बी१.६१७ का कहर खतरनाक साबित हो रहा है। इसके लिए विश्व स्वास्थ्य संघटनने कहा कि दुनियामें फैल रहा कोरोना वायरसका भारतीय प्रकार १७ देशोंमें मिला यह सार्स सीओवी-२ के बी १.६१७ प्रकार या भारतीय प्रकार है, जो भारतमें कोरोना वायरसके मामले बढऩेका कारण माना जा रहा है। विषय गम्भीर है कि क्या बी १.६१७ का जनक भारत है। आखिर किन परिस्थितियोंमें और क्यों बी१.६१७ का नामकरण भारतीय प्रकारके रूपमें किया गया। यह देशके सम्मानसे जुड़ा सवाल है। क्या यह कोरोनाके खिलाफ जंगकी इच्छाशक्तिको कमजोर नहीं करता। आखिर क्यों देशका शासनतंत्र देशके सम्मानके विषयपर चुप है। क्या कारण है। यह प्रत्येक देशवासीके लिए चिन्ताका विषय है। आरडीआईएफके सीईओ किरिल दिमात्रिएवने देशमें स्पुतनिक-वी की कीमत सात सौ रुपयेसे कम बताया फिर अब बाजारमें इसके आनेकी कीमत ९९५ रुपये बतायी जा रही है। इसी तरह स्वदेशी वैक्सीनपर जीएसटी कर लिया जा रहा है। सोचनेवाली बात है कि कोरोना जंगमें मुनाफाका रंग कहांतक देशवासियोंकी परीक्षा लेगा। यह सदी मनुष्यताके इतिहासमें बहुत बड़े बदलावोंकी सदी होने जा रही है। गांवसे लेकर शहरतक विडम्बनाओं एवं उथल-पुथलसे भरे होंगे। एक बदलाव तो कोरोना कालमें दिख रहा है कि आदमीके संक्रमित होने बीमारी होने एवं मरनेके नये-नये आंकड़े प्रतिदिन आ रहे हैं। अब आदमी और उसका जीवन सिर्फ एक आंकड़ा हो गया है। पूंजीकी सभ्यता मुनाफेके लिए अमानुषिकताकी ओर बढ़ रही है। सोचनेकी शक्ति बीमार होती जा रही है। इनसानको इनसानियत बचानेके लिए नस्ल, लिंग, जाति, मजहबकी सीमाओंसे ऊपर उठना होगा, क्योंकि आदमी आज धन और भौतिकताकी इच्छामें विषमता एवं असमानताकी खाईंया खोद रखी है। धर्म एवं जातिके झूठे आडम्बरने सोचको बीमार बना दिया है। जो मानवतापर घात करते रहते हैं। आज मानवने बहुत प्रगति कर ली है। सभ्यताके उच्चतम बिन्दुपर है लेकिन मानवीय संवेदना ही मानवीय गरिमाकी रक्षा करती है। आदमीको आदमीसे जोड़ती है जिससे देश एवं समाज मजबूत बनता है।