सम्पादकीय

भाग्य और पुरुषार्थ


शिवप्रसाद ‘कमल’

हम जीवन दो प्रकारसे जीते हैं या तो भाग्यवादी बनकर या पुरुषार्थीकी तरह। यदि विवेकसे विचार करें तो पायंगे कि यह दोनों ही धारणाएं अधूरी हैं-एकांगी हैं। यह भावना पूरी तरह सत्य नहीं है। भाग्यवादी कहता है सब कुछ बंधा हुआ है। इंचभर इधर-उधर नहीं हो सकता। पुरुषार्थवादीका कहना है कि किसी चीजका कोई सम्बन्ध नहीं है, जो भी घट रहा है वह सांयोगिक है। एक संतने कहा, पुरुषार्थवाद हमें जुनूनकी ओर ले जाता है और भाग्यवाद गरीबीकी ओर। इन दो रास्तोंमें एक बर्हिमुखी है और दूसरा अन्र्तमुखी। जो बाहरको जाननेमें समर्थ है, वह शक्तिशाली हो जाता है। उसके पास उपकरण और साधन-सुविधाएं बढ़ जाती हैं। इसके विपरीत जो भीतरको जाननेमें समर्थ है, वह शान्त हो जाता है। वास्तवमें जीवनकी अनेक सचाईयां हैं किन्तु कौन एकदम निश्चित सही है इसका निर्णय हम नहीं कर पाते। हमारे पास ऊर्जा तो एक ही है, जो नीचे उतरती है वह काम बनती है और जो ऊपरकी ओर प्रवाहित होती है वह राम बनती है। कामका अर्थ है लोभ, मोह, ईष्र्या आदि। रामका अर्थ है शून्यता, शान्ति, निर्माण। ऊर्जा बाहर बहे तो वासना और अन्दर बहे तो अकाम बन जाती है। इस संसारमें हम आदमीका अपना दर्द बड़ा लगता है, किन्तु वह नहीं जानता कि दूसरेका दर्द उससे भी बड़ा है। एक कथा है, जिस समय जीजसको सूलीपर चढ़ाया गया, उस दिन उसी गांवमें एक आदमीकी दाढ़में दर्द था। जो भी उधरसे गुजरता उससे वह आदमी अपनी दाढ़के दर्दकी बात कहता। लोगोंने कहा छोड़ो भी क्या दाढ़की चिन्ता लिये बैठे हो। तुम्हें पता है, आज मरियमके बेटेको सूली दी जा रही है। वह आदमी कहता रहा, दी जा रही होगी, मैं इस दांतके दर्दका क्या करूं, कोई इलाज बताओ। उधर जीजसको सूली हुई यह आदमी दांत दर्दमें ही उलझा रहा। इस तरह आत्मकेन्द्रित होनेसे हम अपना ही नुकसान करते हैं। हम अपने-अपने दर्द और तनाव लिये बैठे हैं। दूसरेके प्रति, समाजके प्रति हमारी कोई संवेदना नहीं। हम कहां पहुंच रहे हैं। आज कोई भी अपनी जगह नहीं है। अपने स्वभावमें नहीं हैं हम। जबतक व्यक्ति अपने स्वभावके अनुसार नहीं जीयेगा। तबतक न उलझन शान्त होगी और न हम भाग्य या पुरुषार्थके चक्करसे बाहर निकलकर दोनोंके बीच समन्वय स्थापित कर सकते हैं। इस संकटसे बाहर आनेके लिए हमें वापस लौटकर जीजस, बुद्ध, महावीर, कृष्णकी ओर लौटना होगा। उन्हें सुनना होगा। इन महापुरुषोंको सुननका वास्तविक समय यही है, क्योंकि इन लोगोंने बहुत पहले कहा कि सब मिल जाय और स्वयंका अनुभव न मिले तो वास्तवमें कुछ नहीं मिलता। अत: अब समय आ गया है कि हम अपनेको चीन्हें और पहचानें। समय हमें बिला दे इसके पहले सचेत हो जायं।