सुदर्शन सोलंकी
प्राचीन समयसे भारत देशकी भूमिका अधिकांश हिस्सा उन्नत एवं उपजाऊ था। बावजूद इसके जब किसानों द्वारा अधिक फसल उत्पादनके लिए रासायनिक उर्वरकोंका अधिकाधिक प्रयोग किया जाने लगा तो फसल उत्पादन तो बढ़ गया, किन्तु मृदा अनुपाजाऊ होकर बंजर भूमिमें बदलने लगी है। अखिल भारतीय समन्वित शोध परियोजनाके तहत नियत स्थानपर ५० वर्षोंकी अवधिमें किये गये अध्ययनसे चौकानेवाली जानकारियां सामने आयी हैं। पता चला है कि एक ही खेतमें नाइट्रोजन उर्वरकोंके लगातार उपयोगसे मृदा-स्वास्थ्य और फसल उत्पदकता ह्रïासके साथ मिट्टïीके पोषक तत्वोंका भी क्षरण हो रहा है। नाइट्रोजन उर्वरकोंका अधिक उपयोग भू-जलमें नाइटे्रट संदूषणको बढ़ा देता है जिसका पेयजलके रूपमें उपयोग मनुष्य और पशुओंके स्वास्थ्यपर घातक प्रभाव डाल सकता है।
देशको कृषिके क्षेत्रमें मजबूत बनानेके उद्देश्यसे यूरियाका इस्तेमाल हरित क्रान्तिके बाद पूरे देशमें किया गया। किसानों द्वारा १९७५ के आसपास खेतोंमें तीनसे पांच गुना यूरिया डालना एक सामान्य बात थी। इसी दरसे इनका उत्पादन भी बढ़ रहा था। किसानोंको इस बारेमें सरकारकी ओरसे कोई अधिकृत जानकारी देनेका कहीं दूर-दूरतक कोई कार्यक्रम नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि किसान अपने खेतोंमें यूरियाका उपयोग लगातार बढ़ाता रहा। वे उस यूरियाको सोना समझ बैठे, जो धीरे-धीरे खेतोंको बंजर कर रहा था। चालीस सालोंसे यूरियाके अंधाधुंध इस्तेमालने खेतोंको बंजर कर दिया है। द्वितीय विश्वयुद्धसे पूर्व प्राकृतिक रसानों, जैसे- फसलके साथ खेतमें तम्बाकूके पौधे उगाकर निकाटिनका प्रयोग विभिन्न फसलोंके लिए कीट-नियंत्रकके रूपमें किया जाता था। विश्वयुद्धके समय मलेरिया तथा अन्य कीट जनित रोगोंके नियंत्रणमें डीडीटी अधिक उपयोगी साबित हुआ, इसलिए युद्धके पश्चात्ï डीडीटीका उपयोग कृषि, खरपतवार तथा फसलोंके अनेक रोगोंके नियंत्रणके लिए किया जाने लगा। बादमें इसके प्रतिकूल प्रभावोंके कारण भारमें इसे प्रतिबंधित कर दिया गया।
उच्च-स्थायित्ववाले क्लोरीनीकृत कार्बनिक जीव-विषके प्रत्युत्तरमें निम्र-स्थायित्व या अधिक जैव निम्रीकरणीय उत्पादों जैसे आर्गेनो-फास्फेट्स तथा कार्बोनेट्सका उपयोग किया जाने लगा। यह रसायन गम्भी स्नायु विष है और मानवके लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसके साथ ही अब शाकनाशी जैसे-सोडियम-क्लोरेट, सोडियम-आर्सिनेट उपयोग किया जाने लगा है। यह भी स्तनधारियोंके लिए विषैले होते हैं। कुछ शाकनाशीके कारण मनुष्योंमें जन्मजात कमियां भी आ सकती हैं।
नाइट्रोजनी उर्वरकोंका लम्बे समयतक अधिक मात्रामें प्रयोग करनेसे भूमि अम्लीय हो जाती है। इससे मृदा और जल दोनों प्रदूषित होते हैं। पानीमें नाइट्रेटकी मात्रा ५० मिली ग्राम प्रति लीटरसे अधिक होनेपर बच्चोंमें ब्लूबेबी सिण्ड्रोम या मेथमोग्लोबिनेमिया बीमारी होती है जिसके कारण बच्चोंका रक्त आक्सीजनके अभावमें नीला हो जाता है। फासफेटीक उर्वरकमें कैडमियम और सीसा होता है और कैडमियम युक्त भोजन लेनेसे गुर्दा एवं हृदय रोगका खतरा बढ़ जाता है। जबकि सीसा युक्त भोजन लेनेसे दिमागको क्षति पहुंचाती है। स्वास्थ्य अनुसंधान विभागने अपनी एक रिपोर्टमें कहा है कि उर्वरकोंमें भारी धातुएं होती हैं जिनमें सिल्वर, निकिल, सेलेनियम, पारा, सीसा एवं यूरेनियम आदि शामिल है जो सीधे तौरपर मानव स्वास्थ्यको प्रभावित करते हैं। इनसे वृक्क, फेफड़े और यकृत सम्बन्धी गम्भीर बीमारियां हो सकती हैं। उर्वरकोंके कारण कई तरहके कैंसर, लिम्फोमा और श्वेत रक्त-कणकी कमीका खतरा छह गुनासे अधिक बढ़ जाता है। संयुक्त राष्टï्र संघके फूड एण्ड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशनके अनुसार दक्षिण एशियामें २०५० तक उर्वरकोंका प्रयोग दोगुना हो जायगा। जबतक इस प्रदूषणको रोकनेका उपाय नहीं किया जायगा, तबतक यह पर्यावरणके सभी तंत्रोंको बिगाडऩेका काम करेगा। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक दवाके प्रयोगसे मिट्टïीकी उर्वरा शक्ति तो दिनों-दिन कमजोर होती जा रही है, साथ ही जलवायुपर भी इसका खासा असर पड़ रहा है। कृषि वैज्ञानिकके अनुसार मिट्टïीको स्वस्थ रखने एवं टिकाऊ खेतीके लिए जैविक खादका इस्तेमाल आवश्यक है। जैविक खादका प्रयोग करनेसे भूमिके भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणोंपर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। भौतिक प्रभावके अन्तर्गत भूमिकी संरचनामें सुधार, जलधारण क्षमता, उष्मा-शोषणकी क्षमता और पारगम्यताका बढऩा तथा जल-निकासीमें सुधार होना प्रमुख है।
क्षारीय मिट्टïी या ऊसर भूमिमें जैविक खाद, खासकर हरी खादका लगातार प्रयोग करनेसे मिट्टïीकी रासायनिक एवं भौतिक दशा सुधरती है। इसके प्रयोगसे जमीनमें पहलेसे उपस्थित जीवाणुओंकी क्रियाशीलता बढ़ती है। इन जीवाणुओं द्वारा नाइट्रीकरण, अमोनीकरण तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरणमें वृद्धि होती है। जैविक खादके प्रयोगसे पोषक तत्वोंकी उपलब्धता बढ़ानेके साथ भविष्यके लिए पोषक तत्व सुरक्षित रहता है। जैविक खादका प्रयोग किसान करते हैं तो हानिकारक प्रभाव कम हो जाते हैं। अनुसन्धानमें पाया गया कि रासायनिक उर्वरकके साथ जैविक खादका प्रयोग करनेसे फसलको जरूरी पोषक तत्व हमेशा मिले रहते हैं। रासायनिक उर्वरकोंके स्थानपर समन्वित पादप पोषण प्रबंधन करके मिट्टïीके मौलिक गुणोंको बनाये रखा जाना चाहिए। जीवनाशी रसायनोंके प्रयोगको परिसीमित कर समन्वित किट प्रबन्ध प्रणालीको अपनाया जाना चाहिए। जैविक खेतीसे भूमिकी उपजाऊ शक्तिको कायम रखनेके लिए घास-फूससे बनी कम्पोस्ट, सड़ी-गली खाद, जीवाणु खाद, नीम तथा अन्य पौधोंसे पौध संरक्षण किया जाना चाहिए। जैविक खेती संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषिक कीटनाशकोंके शन्य या न्यूनतम प्रयोगपर आधारित है तथा जिसमें भूमिकी उर्वरा शक्तिको बचाये रखनेके लिए फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदिका प्रयोग किया जाता है। भोजनके अधिकारपर संयुक्त राष्टï्र संघकी २०१७ की रिपोर्टमें कहा गया है कि कृषि पारिस्थितिकी विश्वकी सम्पूर्ण आबादीको भोजन उपलब्ध कराने और उसका उपयुक्त पोषण सुनिश्चित करनेके लिए पर्याप्त पैदावार देनेमें सक्षम है। इसलिए देशमें जैविक खेतीको बढ़ावा दिया जाना चाहिए। सरकारको किसानोंको जैविक खेतीके लिए शिक्षित करना चाहिए। इसके लिए उन्हें कृषि विज्ञान केन्द्रों एवं कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।