सम्पादकीय

यह समय भी गुजर जायगा


अवधेश कुमार 

कोरोनाकी महाआपदासे घिरे देशमें मचा कोहराम कोई भी देख सकता है। जिनके अपने या अपनोंकी चिंताएं जली हैं उनको कहें कि हौसला बनाये रखिये। ये भी दिन गुजर जायंगे, अच्छे दिन आयंगे तो यह बातें उनके गले आसानीसे नहीं उतरेंगी, बल्कि इस समय शूलकी तरह चुभती हुई भी लगेगी। यदि घरके सदस्यकी या रिश्तेदारकी चिता जल रही हो तो यह बातें किस काम की। उनके अनुसार एक ही दिनमें कई चिताएं जला कर लौटे हैं। यह दिन भी गुजर जायंगे। किंतु कोरोनासे जिस प्रकारका घटाटोप कायम हुआ है उसमें सामान्य मनुष्यकी यह स्वाभाविक दारुण अभिव्यक्ति है। जिस तरह आक्सीजन और औषधियोंके लिए देशभरके अस्पतालोंमें हाहाकार मचा है, ऑक्सीजनके अभावमें लोगोंके दम तोडऩेके समाचार आ रहे हैं, अस्पतालोंमें मरीजको भर्ती करानेके लिए सौ जुग्गतें करनी पड़ रही है उसमें हर घर मिनट-मिनट डर और आतंकके सायेमें जी रहा है। एक जानी-मानी एंकरने लिखा कि हम सब कुछ कर रहे हैं फिर भी हर क्षण इस डरमें जी रहे हैं कि पता नहीं क्या होगा, बाहर कदम रखनेमें डर लग रहा है।

यह किसी एक व्यक्तिकी आवाज नहीं है पूरे देशका अंतर्भाव यही है। ज्यादातर लोगोंके अंतर्मनमें व्याप्त भय और भविष्यकी चिंतासे लवरेज थी। कोई कुछ कहे लेकिन इस समय पूरा भारत ऐसे ही घनघोर निराशामें जी रहा है और चिंताका शिकार है। हम सबने अपने जीवनमें कई महामारियोंका सामना किया है लेकिन एक-एक व्यक्तिको इतने दहशतमें जीते कभी नहीं देखा। कोरोनाके बारेमें चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकोंके एक बड़े समूहकी राय है कि यह इतनी बड़ी बीमारी है नहीं जितनी बड़ी बन या बना दी गयी है। किंतु यह अलगसे विचारका विषय है। भारतमें डर और निराशाका सामूहिक अंतर्भाव कोरोनाकी आपदासे बड़ी आपदा है। प्रश्न है ऐसी स्थितिमें हमारे सामने रास्ता क्या है। ऐसे मुश्किल वक्तमें कोई सरल उत्तर व्यावहारिक रास्ता नहीं हो सकता। लेकिन जीवन क्रमकी ऐतिहासिक सचाईको भी हम नकार नहीं सकते। सृष्टिके आरंभसे मनुष्यने न जाने कितनी आपदाएं, विपत्तियां, विनाशलीलाएं देखीं, उनका सामना किया और उन सबसे निकलते हुए जीवन अपनी गतिसे आगे बढ़ती रही। यही पूरी सृष्टिका क्रम रहा है। हमारे पौराणिक ग्रंथोंमें तो संपूर्ण प्रलयोंका विवरण है। प्रलयमें सब कुछ नष्ट हो जाता है। बावजूद वहांसे फिर जीवनकी शुरुआत होती ही है। हर प्रलयके बाद नवसृजन यही जीवनका सच है। जो ईश्वरमें विश्वास करते हैं यानी आस्तिक हैं वह मानते हैं कि हर घटितके पीछे ईश्वरीय महिमा है। ्र

कोई अवैज्ञानिक अंधविश्वासी सोच कहकर खारिज कर दे, परन्तु ऐसी सोचसे यह भावना कायम रहती है कि जब घटनाएं ईश्वरकी देन है तो इनका सकारात्मक तरीकेसे सामना करना, सहना और जीवनमें आगे बढऩेकी कोशिश करते रहना है। इस धारणासे यह उम्मीद भी पैदा होती है कि ईश्वरने बुरे दिन दिये हैं तो वही अच्छे दिन भी लायगा। इस एक धारणाने मनुष्यको सृष्टिके आरंभसे अभीतक हर विपरीत परिस्थितियोंसे जूझने और उससे उबरकर जीवन क्रमको आगे बढ़ानेकी शक्ति प्रदान की है तो इस तरहकी शक्ति हमारे आपके अन्दर है और उसीसे वर्तमान आपदाका भी सामना करना पड़ेगा। ईश्वरपर विश्वास न भी करें तो प्रकृतिकी गति और उसके नियमोंको मानेंगे ही। यदि हर घटनाकी समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है तो इसमें अच्छी बुरी दोनों प्रकारकी घटनाएं शामिल हैं। इस सिद्धांतमें ही यह सच अंतर्निहित है कि बुरी घटनाकी विपरीत प्रतिक्रिया अच्छी ही होगी। तो भौतिकीका यह सिद्धांत भी उम्मीद जगाती है कि निश्चित रूपसे निराशा और हताशाके वर्तमानमें प्रकृति अपनी प्रतिक्रियाओं द्वारा हमें उबारेगी। षड् दर्शनोंके विद्वान आपको इसे ज्यादा बेहतर तरीकेसे समझा सकेंगे। हमारे यहां बुजुर्ग धर्म और इतिहाससे ऐसी कहानियां बचपनसे सुनाते थे, विद्यालयोंकी पाठ्य-पुस्तकोंमें पढ़ाई जाती थीं जिनमें जीवनपर आयीं विपत्तियां और उसमें अविचल रहकर जूझने और विजय पानेकी प्रेरणा मिलती थी।

इस दौरमें साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र आदि विषयोंकी ओर युवाओंकी रुचि घटी है, स्कूली पाठ्य-पुस्तकोंसे भी वैसी कथाएं गायब हैं और इन सबका परिणाम हमारे सामूहिक मनोविज्ञानपर पड़ा है। लेकिन जो कुछ हम व्यवहारमें भुगतते हैं वह भी हमें सीख देता है।

हमारे आसपास ही ऐसे परिवार होंगे या स्वयं हम ही वैसे परिवारसे आते होंगे जहां किसी बीमारी या घटनामें एक साथ बड़ी संख्यामें हमारे प्रियजन चल बसे। ऐसी त्रासदियोंके व्यावाहारिक और मानसिक संघातसे पीडि़त होते हुए भी अपनेको संभालते और जीवनकी गाड़ीको आगे खींचते हैं। यही जीवन है। जब विनाशकारी तूफान आता है तो फसलें नष्ट हो जाती हैं। बड़े-बड़े पेड़ भी जड़ोंसे उखड़ जाते हैं। लगता है पूरी प्रकृति बिखर गयी हो लेकिन धरती बंजर नहीं होती। बीज फिरसे अंकुरित होते हैं, फसलें फिलहाल आती हैं, वनस्पतियां फिर अठखेलियां करने लगती हैं। मनुष्य अपनी जीजीविषयामें फिर फसलें लगाने निकलता है और सफल होता है। जीवन क्रम इसी तरह आगे बढ़ता है। प्रकृति और जीवनके यह दोनों पहलू सच हैं। इसका कोई एक पहलू पूरा सच नहीं हो सकता। तूफान और विनाश भी प्रकृति चक्रके अंगभूत घटक हैं तो फिर नये सिरेसे बीजोंका अंकुरण और पौधोंका उगना भी। कोरोना यदि इस चक्रमें तूफान है तो यकीन मानिये इसके बाद फिर जीवनकी हरियाली लहलहाती दिखेगी।

हमारे जीवनको क्षणभंगुर कहा गया है। अगले क्षण हम जीवित रहेंगे इसकी कभी कोई गारंटी नहीं होती। लेकिन हम यह सोचकर अकर्मक नहीं हो जाते कि जब आनेवाले किसी क्षणमें हमारी मौत होनी है तो ज्यादा उद्यम क्यों करें, हाथ-पांव क्यों मारे। हम हर दिन अपने जीवनको बेहतर बनानेकी उम्मीदसे अपने कर्मोंमें रत रहते हैं। कोई ऐसी अंधियारी रात नहीं हो सकती जिसका अंत सुबहसे नहीं हो। हर अंधकारपूर्ण रातके बाद सूर्यका प्रकाश निकलना ही है। इसलिए बिल्कुल सच मानिये यह आपदा भी जायगा और हमारी कोशिशोंसे ही जायगा। उसके बाद हम सब फिर अपनी स्वाभाविक भूमिकामें पहलेकी भांति या उससे ज्यादा उत्साहसे सक्रिय होंगे। अभी रास्ता यही है कि हम स्वयं और परिजनोंको सुरक्षित रखें, दूसरोंकी सुरक्षाको खतरेमें न डालें तथा अपना हौसला बनाये रखते हुए एक दूसरेकी ममद करें एवं अन्योंको भी हौसला देनेकी कोशिश करें।