सम्पादकीय

सत्य ज्ञानकी प्राप्तिसे बोधदृष्टिï जागृत


योगेश कुमार गोयल

वैशाख मासकी पूर्णिमाको बुद्ध पूर्णिमाके रूपमें मनाया जाता है। वैशाख मासकी पूर्णिमाको गौतम बुद्धका जन्म हुआ और उन्होंने बोधिवृक्षके नीचे बुद्धत्व प्राप्त किया। यही वजह है कि बुद्ध पूर्णिमाको पवित्र दिन माना गया है।

मान्यता है कि गौतम बुद्धने ही आजसे करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व बौद्ध धर्मकी स्थापना की थी। गौतम बुद्धका वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था। गौतम उनका गौत्र था किन्तु कालांतरमें वह सिद्धार्थ गौतम, महात्मा बुद्ध, भगवान बुद्ध, गौतम बुद्ध तथागत आदि विभिन्न नामोंसे जाने गये। शाक्य वंशसे संबंध होनेके कारण सिद्धको शाक्योंका संत भी कहा गया। सिद्धार्थके पिता राजा शुद्धोधन थे, जो कपिलवस्तुके शाक्य वंशीय राजा थे। कपिलवस्तु हिमालयकी तराईमें नेपालकी सीमापर एक काफी विशाल गणराज्य था, जो आज नेपालमें है। राजा शुद्धोधनकी दो रानियां थी, जिनमें महामाया बड़ी और प्रजापति गौतमी छोटी थी। रानी महामाया जब गर्भवती हुई तो उस समयके शाक्य समाजके रीति-रिवाजोंके अनुसार प्रसवके लिए वह प्रजापति गौतमीके साथ अपने मायके देवदह जा रही थी किन्तु रास्तेमें ही उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हो गयी और लुम्बनी वनमें ही शालके दो वृक्षोंके बीच उन्होंने एक अति सुंदर तेजस्वी पुत्रको जन्म दिया। पुत्र जन्मके पश्चात् दोनों रानियां कपिलवस्तु वापस लौट आयी। इसी बालकका नाम सिद्धार्थ रखा गया।

सिद्धार्थके जन्मके कुछ ही समय पश्चात् एक बहुत पहुंचे हुए सन्यासीने राजा शुद्धोधनको बताया कि यह बालक या तो बहुत महान् चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या फिर समस्त सांसारिक मोह-मायाका परित्याग कर एक महान् संन्यासी बनेगा और विश्वका महान् उद्धारक साबित होगा। बालकके संन्यासी बननेकी बात सुनकर राजा शुद्धोधन बहुत चिंतित हुए और उन्होंने सिद्धार्थको मोह-माया और सांसारिक सुखोंकी ओर आकर्षित करनेके लिए उनके समक्ष भोग-विलास तथा ऐश्वर्यके समस्त संसाधनोंका ढेर लगा दिया लेकिन सिद्धार्थ हमेशा शांत और ध्यानमग्न ही रहा करते। अत: यही सोचकर कि कहीं सिद्धार्थका मन सांसारिक सुखोंसे उचाट होकर पूरी तरहसे वैराग्यमें ही न लग जाय, राजा शुद्धोधनने कम उम्रमें ही एक अतिसुंदर, सुशील, अति तेजस्वी सर्वगुण सम्पन्न राजकन्या यशोधराके साथ उनका विवाह कर दिया। विवाहके पश्चात् सिद्धार्थ गौतमको पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई और पुत्रका नाम रखा गया राहुल।

बचपनसे ही राजकुमार सिद्धार्थ घंटों एकांतमें बैठकर ध्यान किया करते थे लेकिन फिर भी उन्होंने पुत्र जन्मतक सांसारिक सुखोंका उपभोग किया परन्तु धीरे-धीरे उनका मन सांसारिक सुखोंसे उचाट होता गया और एक दिन वह मनकी शांति पानेके उद्देश्यसे भ्रमणके लिए अपने सारथी छेदकको साथ लेकर रथमें सवार हो महलसे निकल पड़े। रास्तेमें उनका मनुष्यकी दु:खकी चार घटनाओंसे साक्षात्कार हुआ। जब उन्होंने दु:खके इन कारणोंको जाना तो मोहमाया और ममताका परित्याग कर पूर्ण संन्यासी बन गये। सर्वप्रथम सिद्धार्थने रास्तेमें एक रोगी व्यक्तिको देखा और सारथीसे पूछा, यह प्राणी कौन है और इसकी यह कैसी दशा है। सारथीने बताया, हे स्वामी! यह भी एक मनुष्य है और इस समय यह बीमार है। इस दुनियामें हर व्यक्तिको अपने जीवनमें कभी न कभी रोगी होकर दु:खोंका सामना करना ही पड़ता है। आगे बढऩेपर सिद्धार्थने मार्गसे गुजरते एक वृद्ध, निर्बल एवं कृशकाय व्यक्ति और उसके बाद एक मृत व्यक्तिकी अर्थी ले जाते विलाप करते लोगोंको देखा तो हर बार सारथीसे उसके बारेमें पूछा। सारथीने एक-एक कर उन्हें मनुष्यकी इन चारों अवस्थाओंके बारेमें बताया कि हर व्यक्तिको कभी न कभी बीमार होकर कष्ट झेलने पड़ते हैं। बुढ़ापेमें काफी दु:ख झेलने पड़ते हैं, उस अवस्थामें मनुष्य दुर्बल एवं कृशकाय होकर चलने-फिरनेमें भी कठिनाई महसूस करने लगता है और आखिरमें उसकी मृत्यु हो जाती है। यह रहस्य सिद्धार्थ जानकर बहुत दु:खी हुए। आगे उन्हें एक साधु नजर आया, जो बिल्कुल शांतचित्त था।

साधुको देख सिद्धार्थके मनको अपार शांति मिली और उन्होंने विचार किया कि साधु जीवनसे ही मानव जीवनके इन दुखोंसे मुक्ति संभव है। बस फिर क्या था, देखते ही देखते सिद्धार्थ सांसारिक मोहमायाके जालसे बाहर निकलकर पूर्ण वैरागी बन गये। एक दिन रात्रिके समय पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुलको गहरी नींदमें सोता छोड़ गौतम बुद्धने अपने घर-परिवारका परित्याग कर दिया और सत्य तथा ज्ञानकी खोजमें एक स्थानसे दूसरे स्थानपर भटकते रहे। उन्होंने छह वर्षोंतक जंगलोंमें कठिन तप एवं उपवास किये और सूखकर कांटा हो गये किन्तु उन्हें ज्ञानकी प्राप्ति न हो सकी। अत: उन्होंने एक दिन संन्यास छोड़ दिया और उनके शिष्य भी एक-एक कर उनका साथ छोड़ गये। उसके बाद गौतम बुद्धने शारीरिक स्वास्थ्य तथा मानसिक शक्ति प्राप्त की और फिर वह बोध गयामें एक पीपलके वृक्षके नीचे बैठकर गहन चिंतनमें लीन हो गये तथा मनमें दृढ़ निश्चय कर लिया कि इस बार ज्ञान प्राप्त किये बिना वह यहांसे नहीं उठेंगे। सात सप्ताहके गहन चिंतन-मननके बाद वैशाख मासकी पूर्णिमाको ५२८ ई.पू. सूर्योदयसे कुछ पहले उनकी बोधदृष्टि जागृत हो गयी और उन्हें पूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हो गयी। उनके चारों ओर एक अलौकिक आभा मंडल दिखाई देने लगा। उनके पांच शिष्योंने जब यह अनुपम दृश्य देखा तो वह महात्मा बुद्धके चरणोंमें गिरकर उनसे क्षमायाचना करने लगे और इन शिष्योंने ही उन्हें पहली बार ‘तथागतÓ कहकर संबोधित किया।

‘तथागतÓ यानी सत्यके ज्ञानकी पूर्ण प्राप्ति करनेवाला। पीपलके जिस वृक्षके नीचे बैठकर सिद्धार्थने बुद्धत्व प्राप्त किया, वह वृक्ष बोधिवृक्ष कहलाया और वह स्थान, जहां उन्होंने यह ज्ञान प्राप्त किया, बोध गयाके नामसे विख्यात हुआ तथा बुद्धत्व प्राप्त करनेके बाद ही सिद्धार्थको महात्मा बुद्ध कहा गया। सही मायनोंमें महात्मा बुद्ध आज भी लोकजीवनकी निरन्तरतामें रचे-बसे हैं। अपने ८० वर्षीय जीवनकालके अंतिम ४५ वर्षोंमें महात्मा बुद्धने दुनियाभरमें घूम-घूमकर बौद्ध धर्मका प्रचार किया और लोगोंको उपदेश दिये। ईसा पूर्व ४८३ को वैशाख मासकी पूर्णिमाको उन्होंने कुशीनगरके पास हिरण्यवती नदीके तटपर महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। उन्होंने उन्हीं साल वृक्षोंके नीचे प्राण त्यागे, जिनपर मौसम न होते हुए भी फूल आये थे। उनका अंतिम उपदेश था कि सृजित वस्तुएं अस्थायी हैं, अत: विवेकपूर्ण प्रयास करो। उनका कहना था कि मनुष्यकी सबसे उच्च स्थिति वही है, जिसमें न तो बुढ़ापा है, न किसी तरहका भय, न चिन्ताएं, न जन्म, न मृत्यु और न ही किसी तरहके कष्ट और यह केवल तभी संभव है, जब शरीरके साथ मनुष्यका मन भी संयमित हो क्योंकि मनकी साधना ही सबसे बड़ी साधना है।