सम्पादकीय

आरक्षण सीमापर सार्थक विमर्श आवश्यक


 डा. श्रीनाथ सहाय

सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानोंमें आरक्षणकी ५० फीसदी तय सीमामें बदलावको लेकर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्टने देशके सभी राज्योंसे राय पूछी है। हालांकि मौजूदा समयमें देशके कई राज्योंमें ५० फीसदीसे ज्यादा आरक्षण दिया जा रहे हैं। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट इसके पीछे राज्य सरकारोंका तर्क जानना चाह रहा है। सचाई जाननेका यह प्रजातांत्रिक तरीका है लेकिन देशमें हर पार्टी वोटकी राजनीति कर रही है। हर पार्टीका मकसद होता है कि मतदाताओंको किसी भी तरह आरक्षण या अन्य सुविधाओंका लालच देकर मत प्राप्त किये जायं। लिहाजा आरक्षण कबतक और किसको कितना हो, के सवाल वोटोंकी बिसातपर चलनेवाली सरकारोंसे पूछना वाजिब नहीं होगा। ज्ञातव्य है कि वर्तमानमें देशमें १५ प्रतिशत आरक्षण अनुसूचित जातिको दिया जाता है। जबकि अनुसूचित जनजातिको ७.५ प्रतिशत आरक्षण है। वहीं, २७ प्रतिशत आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग यानी कि ओबीसीको दिया जाता है। इसके अलावा दस फीसदी आरक्षण आर्थिक आधारपर सामान्य वर्गके लोगोंको मिल रहा है। वहीं, राज्यकी अलग-अलग सरकारें अपने यहांकी आबादीके अनुसार एससी, एसी और ओबीसीके बीच आरक्षण दे रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालयने इस साझा रायमें सभी राज्योंको शामिल करनेकी महत्वपूर्ण पहल की है, लेकिन यह बर्रके छत्तेमें हाथ लगाने जैसा साबित हो सकता है। आरक्षण बेहद संवेदनशील और राजनीतिक मुद्दा है। हमारे पुरखोंने संविधान बनाते हुए समाज और समयकी विषमताओंको समझा था, लिहाजा आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक असमानताओंके मद्देनजर आरक्षणकी व्यवस्था तय की थी। शुरुआत दस सालके लिए की गयी थी, लेकिन आजादीके ७३ साल बीतनेके बावजूद आरक्षण जारी है। इसे जारी रखनेकी कई विवशताएं हैं। उसे अब समाप्त करना असंभव-सा लगता है। इतिहासका अवलोकन करें तो आरक्षणको चुनावी मुद्दा बनाया जाता रहा है। आरक्षण अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के समुदायोंको हासिल है। ओबीसीके तहत कई जातियोंको थोड़ा-थोड़ा आरक्षण देनेके राजनीतिक फैसले किये जाते रहे हैं, लिहाजा आरक्षण ५० फीसदीसे अधिक हो गया है। यह स्थिति कई राज्योंमें है और सर्वोच्च अदालतके आदेशका स्पष्टï उल्लंघन किया जाता रहा है। १६ नवंबर १९९२ को इंदिरा साहनी फैसलेमें शीर्ष अदालतकी नौ सदस्यीय संविधान पीठने व्यवस्था दी थी कि आरक्षणकी सीमा ५० प्रतिशतसे अधिक नहीं होनी चाहिए। हालांकि संविधानमें किसी भी आरक्षण-सीमाका प्रावधान नहीं किया गया है, फिर भी इस फैसलेको ‘ऐतिहासिकÓ करार दिया गया। अब सर्वोच्च न्यायालयने राज्योंके साथ विमर्शका निर्णय लिया है कि क्या आरक्षणकी सीमा ५० फीसदीसे ज्यादा भी हो सकती है तो उसके मानदंड क्या रखे जायं? शीर्ष अदालतने राज्योंको चेताया भी है कि सर्वोच्च अदालतका अब जो भी फैसला होगा, सभी राज्योंपर उसके व्यापक असर होंगे, लिहाजा सभी राज्योंकी राय लेना जरूरी समझा गया।

अहम सवाल यह है कि इस मुद्देपर क्या सभी राज्योंमें सहमति बन पायेगी या सभी राज्य ५० फीसदीकी सीमाको नहीं लांघनेका भरोसा देंगे? क्या सभी राज्य समय-सीमामें नोटिसका जवाब शीर्ष अदालतको भेज देंगे? चूंकि राज्योंमें अलग-अलग राजनीतिक दलोंकी सरकारें हैं, लिहाजा इस विषयपर वह एकमत कैसे हो सकती हैं? गौरतलब यह भी है कि १९९२ का फैसला नौ सदस्यीय पीठका था, लिहाजा अब उससे बड़ी संविधान पीठका गठन अनिवार्य समझा जा रहा है। कमोबेश संविधान पीठ नौ सदस्यीय तो होनी ही चाहिए और उसे कुछ अतिरिक्त विशेषाधिकार दिये जायं। आरक्षणकी सीमा लांघनेवाले राज्योंमें असम, गुजरात, तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्टï्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ और लक्षद्वीप आदिके नाम उल्लेखनीय हैं। लक्षद्वीपमें तो सौ फीसदी आरक्षण है। अरुणाचल, मेघालय, नगालैंड, मिजोरममें अनुसूचित जनजातिके लिए ८० फीसदी आरक्षणकी व्यवस्था है। इन कोटोंको कम या सीमित कैसे किया जा सकता है? दिलचस्प है कि आरक्षित लोग अनारक्षित श्रेणीका लाभ भी ले सकते हैं। महाराष्टï्रमें मराठा वर्गको नौकरी और उच्च शिक्षामें १६ फीसदी आरक्षण तय किया गया था, नतीजतन आरक्षण ५० फीसदीकी सीमाको लांघ गया। अब यह मामला सर्वोच्च अदालतके सामने है। उसीकी सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालयने आरक्षणकी सीमापर सभी राज्योंकी राय लेनेकी घोषणा की और राज्योंको नोटिस भिजवाये। मराठाकी तर्जपर जाट, गुर्जर आदि समुदायोंको आरक्षण बांटा गया है। यदि गंभीर और सूक्ष्म विश्लेषण करें तो इन वर्गोंको आरक्षणकी कोई जरूरत नहीं है। अब मीणा सरीखे कई आरक्षित जातियां हैं, जिनमें आईएएस पैदा करनेकी खास गुणवत्ता है। अब इनकी नयी और सम्पन्न पीढ़ीको आरक्षण देनेकी जरूरत क्या है? क्या उनकी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक विषमताएं समाप्त नहीं हुईं?

महाराष्टï्रमें मराठा आरक्षणको लेकर एक दशकसे मांग हो रही थी। २०१८ में इसके लिए राज्य सरकारने कानून बनाया और मराठा समाजको नौकरियों और शिक्षामें १६ प्रतिशत आरक्षण दे दिया। जून २०१९ में बॉम्बे हाईकोर्टने इसे कम करते हुए शिक्षामें १२ प्रतिशत और नौकरियोंमें १३ फीसदी आरक्षण फिक्स किया। हाईकोर्टने कहा कि अपवादके तौरपर राज्यमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित ५० फीसदी आरक्षणकी सीमा पार की जा सकती है। जब यह मामला सुप्रीम कोर्टमें गया तो इंदिरा साहनी केस या मंडल कमीशन केसका हवाला देते हुए तीन जजोंकी बैंचने इसपर रोक लगा दी। साथ ही कहा कि इस मामलेमें बड़ी बैंच बनाये जानेकी आवश्यकता है। १९९१ में पीवी नरसिम्हा रावके नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकारने आर्थिक आधारपर सामान्य श्रेणीके लिए दस प्रतिशत आरक्षण देनेका आदेश जारी किया था। इसपर इंदिरा साहनीने उसे चुनौती दी थी। इस केसमें नौ जजोंकी बैंचने कहा था कि आरक्षित सीटों, स्थानोंकी संख्या कुल उपलब्ध स्थानोंके ५० प्रतिशतसे अधिक नहीं होना चाहिए। संविधानमें आर्थिक आधारपर आरक्षण नहीं दिया है। अब इस आदेशकी समीक्षा होनेकी बात कही जा रही है। इंदिरा साहनी केसमें नौ जजोंकी बैंचने फैसला सुनाया था। यदि उस फैसलेको पलटना है या उसका रिव्यू करना है तो नयी बैंचमें नौसे ज्यादा जज होने चाहिए। इसी वजहसे ११ जजोंकी संवैधानिक बैंच बनानेकी मांग हो रही है। राजस्थान सरकार आरक्षणकी सीमा ५० फीसदीसे आगे बढ़ानेके पक्षमें है। इसके लिए राजस्थान सरकार सुप्रीम कोर्टमें इस मसलेपर अपना पक्ष रखेगी। बीते सोमवारको ही अशोक गहलोत सरकारने इस बाबत निर्णय लिया है।

फिलहाल यदि सर्वोच्च अदालतके नेतृत्वमें विमर्श हो रहा है तो इस पहलूपर भी होना चाहिए कि अब वाकई किन जातियोंको आरक्षणकी बुनियादी जरूरत है और अब किन्हें अनारक्षित वर्गमें डाल दिया जाना चाहिए? इस मामलेमें संविधानके १०२वें संशोधनपर पुनर्विचार करनेसे भ्रम और पेंचीदगीकी स्थितियां बनेंगी। सवाल यह भी उठेगा कि संसदमें पारित संशोधनपर अब अदालत कोई विमर्श कर सकती है अथवा नहीं? कुछ भी हो, हमें यह निर्णय और पहल स्वागतयोग्य लगती है, क्योंकि आरक्षणकी सीमा और अवधि दोनों ही संवैधानिक तौरपर तय किये जाने चाहिए। वास्तवमें आरक्षण आरंभसे ही हमारे देशमें बेहद संवेदनशील मामला रहा है, ऐसेमें सबकी रायसे ही इस दिशामें आगे बढऩा या कोई निर्णय लेना श्रेयस्कर होगा।