सम्पादकीय

दुव्र्यसन है आलस्य


श्रीराम शर्मा

दुव्र्यसनोंको ठंडी आग कहा जाता है। गर्म आगमें जलकर भस्म हो जानेमें देर नहीं लगती परन्तु पानीमें डूब मरनेसे भी दुष्परिणाम वैसा ही भयंकर निकलता है। अन्तर इतना ही रहता है कि आत्मदाह भयानक लगता है और आंखोंमें काफी देरतक दिल दहलानेवाला दृश्य खड़ा किये रहता है, जबकि पानीमें किसीके डूबनेका समाचार सुनकर हल्की-सी ही प्रतिक्रिया होती है। परन्तु परिणति दोनोंकी ही एक जैसी होती है। जिसका प्राण गया, उस बिछोहका जिनपर प्रभाव पड़ा, वह दोनों ही स्थितियोंमें समान रूपसे कष्ट सहते हैं। दुव्र्यसनोंको ठंडी आग जैसा ही कहा गया है क्योंकि वह देर, सवेरमें उतनी ही हानि पहुंचाते हैं, जितने कि अग्निकांड, आक्रमण जैसे तत्काल विनाश दृश्य प्रस्तुत करनेवाले संकट। कुल्हाड़ीसे किसी मजबूत वृक्षको कुछ ही देरमें काटकर धराशायी किया जाता है, इसी कार्यको उसके अंदरका घुन, थोड़ा अधिक समय लेकर पूरा करता है। खोखला होनेपर वृक्ष बिना कुल्हाड़ीकी चोट सहे ही जमीनपर गिरता है। किसीको गालीसे मार देना और रक्तमें विषका प्रवेश कर देनेपर धीमी मौतका उपक्रम करना, विवेचकोंके लिए हल्के-भारी हो सकते हैं परनतु दोनों ही परिस्थितयोंमें भुक्तभोगीको प्राय: समान दुष्परिणाम ही सहन करना पड़ता है। दुव्र्यसनोंमें नशेबाजी, जुआ, व्यभिचार आदिकी चर्चा आम तौरसे होती रहती हैं। दूसरा, दुव्र्यसनोंका सरताज है जिसकी ओरसे चित्त और आंखें दोनों ही समान रूपसे आंखें बंद किये रहते और दोनों ही उसके कारण अपार हानि सहते हैं। इस दुव्र्यसनका नाम है, आलस्य। आलस्यका अर्थ है, श्रमसे जी चुराना। इस कारण सामथ्र्य और साधन अवसर रहते हुए भी मनुष्य उन सफलताओंसे वंचित रह जाता है, जो समय और श्रमका सुनियोजन करनेपर सहज ही उपलब्ध हो सकती थी। पिछड़े लोगोंमेंसे अधिकांशका दुर्गुण, आलस्य ही पाया जाता है। आलस्य और दरिद्रता दोनों अभिन्न मित्र हैं। आलसी समय गंवाता रहता है। साथ ही उन उपलब्धियोंसे भी हाथ धोता है, जो उतनी देर परिश्रमरत रहनेपर सहज ही हस्तगत हो सकती थी। समय ही जीवन है। भगवान इसी रूपमें मनुष्यको अभीष्ट वैभव सौभाग्यका अवसर प्रदान करता है। जिसने अपनी समय, संपदाका सुनियोजित उपयोग कर लिया। समझा जा सकता है कि दैवी अनुग्रहका भरपूर लाभ उठा लिया। ऐसे अनेक लोग हुए हैं, जो कि कम समय जीवित रहे,  किन्तु उस अवधिका समुचति सदुपयोग करके इतना लाभ उठा सके, जितना कि शतायु लोगोंको भी हस्तगत नहीं होता। मनोयोग समेत किया गया परिश्रम प्रगति और संपत्तिका ऐसा सुयोग उपस्थित करता है, जिसे सामान्य जन दैवी वरदान या सौभाग्य चमत्कार ही कह सकते हैं। सामाजिक या राष्ट्रीय प्रगतिका स्वरूप कुछ भी क्यों न हो, उसके मूल कारणमें उसके घटक सदस्योंकी कर्मठता ही काम कर रही होती है। जहां आलस्य प्रमाद चढ़ा होता समझना चाहिए वहां पक्षाघात जैसी विपत्ति दरिद्रता बनी रहेगी। विकलांगों, अपंगोंके दुर्भाग्यपर आंसू बहाये जाते हैं परन्तु सच्चे अर्थोंमें अभागे वह हैं, जिन्होंने आलस्यका दुव्र्यसन अपनाया। उपयोगी, योजनाबद्ध परिश्रमसे जी न चुराकर समयका सदुपयोग करना सीखिये।