सम्पादकीय

इलाजपर सरकारी नियंत्रण जरूरी


विष्णुगुप्त   

आखिर ट्रीटमेंट आतंकवादका प्रश्न सोशल मीडियामें चलकर आम आदमीतक क्यों और कैसे पहुंचा। आम आदमीका समर्थन क्यों हासिल किया। क्या भविष्यमें यह प्रश्न गंभीर बनकर कानून बनानेवाले शासन चलानेवाले दुनियाको दशा-दिशा देनेवाले तत्वोंको भी मथेगा। आम जनता एवं गरीब जनताको भी ट्रीटमेंट आतंकवादसे मुक्ति दिलानेके लिए समुचित और निर्णायक सहित सभी प्रकारके कदम उठानेके लिए प्रेरित करेगा। सरकारी अधिकारी, जिनका हेल्थ ट्रीटमेंट सरकारकी जिम्मेदारी होती है, बड़े व्यापारी एवं मध्यम वर्गको ट्रीटमेंट आतंकवादकी संहारक प्रक्रिया नहीं मालूम होगी परन्तु जो गरीब, असहाय हैं स्वास्थ्य बीमा राशिका वाहन करनेकी शक्ति नहीं रखते हैं, सरकारकी सीमित बीमा योजनाकी जटिलताओं और प्रतिबंधोंके चक्रव्यूहको नहीं तोड़ पाते हैं, वह ट्रीटमेंट आतंकवादके सीधे जदमें होते हैं और जान गवा देते हैं। आतंकवाद सिर्फ वह नहीं है जिसमें आतंकवादी बम विस्फोट कर मिनटोंमें निर्दोष जीवनको भी मौतके घाट उतार दिया जाता हैं, संघटित रूप लेकर लंबे समयतक हिंसा और घृणाको सक्रिय रखा जाता हैं। ट्रीटमेंट आतंकवादके सामने क्या सरकारकी सभी प्रक्रियाएं असहाय नहीं रहती हैं। क्या कभी कोई सरकार ट्रीटमेंट आतंकवादमें लगे बड़े अस्पतालों छोटे अस्पतालोंको नैतिकता सुनिश्चित करनेकी कोशिश करती है?

बाबा रामदेव बनाम इंडियन मेडिकल असोसिएशन यानी आईएमएका विवाद एवं टकराव और लड़ाई सामने नहीं आती तो अंग्रेजी डाक्टरोंका ट्रीटमेंट आतंकवाद भी ट्रेनमें नहीं आता। इंडियन मेडिकल असोसिएशनने रामदेवके खिलाफ आक्रामक सक्रियता ही नहीं दिखाती, आयुर्वेदके खिलाफ नहीं बोलती तो न तो बाबा रामदेवको इतना जबरदस्त समर्थन मिलता और न ही जन-आक्रोश पनपता। एलोपैथके खिलाफ जनाक्रोश सिर्फ बाबा रामदेव प्रकरणकी उपज नहीं है यह जनाक्रोश स्थायी तौरपर है। दरअसल बाबा रामदेवने एलोपैथके खिलाफ मोर्चा खोला तो फिर एलोपैथ सताये लोगोंको भी अपना मुंह खोलनेका अवसर मिला। इंडियन मेडिकल असोसिएशन बाबा रामदेवके खिलाफ अभियानको शाब्दिक हिंसामें बदलने, आक्रमक अभियान चलाने, देशके कोने-कोनेमें मुकदमे दर्ज करानेके पहले यह सोची भी नहीं होगी कि क्रियाकी विपरीत प्रतिक्रिया होती है। उसकी लूट और गुंडागर्दी भी जनचर्चामें होगी। स्वतंत्र चर्चा और पड़तालकी जरूरत है। स्वतंत्रता पड़ताल करेंगे तो एलोपैथी-आयुर्वेद दोनोंकी जरूरतों और उपयोगिताओंको खारिज नहीं कर सकते। लेकिन बहुत अंतर दोनोंके बीच है। आयुर्वेदको हम अबतक ट्रीटमेंट आतंकवादकी नकारात्मक पहलूसे नहीं जोड़ सकते हैं। आयुर्वेदके खिलाफ लुटेरा शब्दका प्रयोग हम नहीं कर सकते हैं। क्योंकि आयुर्वेदका साइड इफेक्ट नहीं है। सबसे बड़ी बात आयुर्वेद सस्ती और आम आदमीके पहुंचकी चिकित्सा है। बाबा रामदेवने योगको पूरी दुनियामें स्थापित किया है, आज योगका डंका बज रहा है। योग एक सकारात्मक चिकित्सा पद्धति है। इसमें नकारात्मकता नहीं है। योगसे भी कई बीमारियोंका इलाज होता  है। कई गंभीर बीमारियोंसे मुक्ति मिलती है। सबसे बड़ी बात यह है कि बाबा रामदेवने अंधविश्वास नहीं फैलाया है, किसीको ताजीब भी नहीं बांटी। प्रकृतिसे बड़ा कोई चिकित्सक नहीं हो सकता। प्रकृति अपने साथ चिकित्साकी धरोहर भी रखती है। रामदेवने प्रकृत्तिकी महत्ताको समझाया है। प्रकृतिके साथ चलनेके लिए प्रेरित किया है। आज किसान प्राकृतिक चिकित्सा संपदाकी खेती कर रहा है। यह बाबा रामदेवकी प्रेरणासे ही संभव हो सका है। किसानोंकी आयमें वृद्धि हो रही है। किसानोंकी उपजको खरीदकर उचित मूल्य भी दे रहे है, अर्थात्ï लोगोंको रोजगार भी मिल रहा है। क्या एलोपैथके समर्थक यह बता सकते हैं कि बाबा रामदेवके काटके लिए विदेशी कंपनियां भी आयुर्वेदिक आधारित टूथपेस्ट क्यों बना रही हैं। विदेशी कंपनियोंके फेयर एंड लवलीसे कितने काले गोरे हो गये। माना कि करोनिल भी करोनाकी अचूक दवा नहीं है। करोनिलेसे कोरोनाके मरीज ठीक ही हो जायंगे यह दावा भी सही नहीं है। करॉनिल प्राकृतिक जड़ी-बूटियोंसे निर्मित दवा है, यह दवा इन्फेक्शनको रोकनेमें कारगर साबित होती है, गांवमें भी बीमारीके दौरान काढ़ा पीनेकी परंपरा है, गांवमें जो गरीब एलोपैथकी महंगी दवा नहीं ले सकते हैं, वह काढ़ा पीकर यदि स्वस्थ हो रहे हैं तो फिर बाबा रामदेवकी गरीबोंके बीचमें मसीहाकी बन रही छविको कोई कैसे इनकार किया जा सकता है। एलोपैथमें भी करोनाकी कौन-सी कारगर दवा है। अभीतक कोई एलोपैथकी कारगर दवा ही नहीं निकली है, जिन लोगोंने भी टीका लगाया उनमेंसे भी कुछ लोगोंको करोना वायरस पकड़ लिया। जब एलोपैथमें करोनाकी कोई अचूक दवा ही नहीं है तब कोई कैसे कर सकता है कि कोरोनाकी बीमारीका इलाज सिर्फ एलोपैथमें ही है। इसलिए कोरोनाके मरीजोंको सिर्फ एलोपैथकी ही दवा लेनी चाहिए, एलोपैथके डॉक्टर भी कोरोना मरीजोंका इलाज सिर्फ एंटीबायोटिक दवाओंसे ही कर रहे हैं, एंटीबायोटिक दवाओंका साइड इफेक्ट कितना है, यह सब हर कोईको मालूम है एक बड़ा प्रश्न यह खड़ा हो रहा है कि जब करोनाकी कोई अचूक दवा ही एलोपैथमें नहीं है तब कोरोनाके मरीजोंके इलाजमें लाखोंका बिल क्यों दिया जा रहा है। आमजनको भी मालूम है कि कोई कोरोनाकी बीमारीसे ग्रसित हो गया तो फिर एलोपैथके डाक्टर कितना लूटेंगे। स्थिति तो यहांतक है कि जिन कोरोना मरीजोंको वेंटिलेटरकी जरूरत नहीं होती है उन्हें भी वेंटिलेटर सपोर्ट देकर मरीजोंको भयभीत किया जाता है। इसलिए कि लाखोंकी वसूली करनेका आधार मिल जाता है। ट्रीटमेंट आतंकवाद किसीको देखना है तो कुकुरमुत्तेकी तरह फैले प्राइवेट अस्पतालोंमें देखा जा सकता है। छोटी बीमारी जो कम पैसेमें भी ठीक हो सकती है उस बीमारीके लिए लाखोंकी वसूली आम बात है। बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां भी भारतमें स्वास्थ्य सेवामें कूदी हैं। इनकी पंचतारा संस्कृति भी उल्लेखनीय है। इस तरहकी पंचतारा संस्कृतिके अस्पतालोंमें कौन-सा इलाज होता है। यह सब अति गोपनीय होती है। जब लाखोंका बिल आता है तभी लूटे जानेकी जानकारी मिलती है।

भारतमें एलोपैथ डाक्टरोंकी गुणवत्ता कितनी है, यह भी जाननेकी जरूरत है। विश्व व्यापार संघटनने एक बार कहा था कि भारतके अधिकतर डाक्टर अक्षम एवं कम प्रतिभाशाली हैं। स्वतंत्र आकलन यह है कि भारतके लगभग ८० प्रतिशत एलोपैथिक डाक्टर अक्षम हैं। क्या इस तरहकी खबर नहीं आती है कि बांये पैरकी जगह दायें पैरपर प्लास्टर चढ़ा दिया। बाईं आंखकी जगह दाई आंखका आपरेशन कर दिया, गलत इलाजसे किडनी और लीवर और ब्रेन डैमेज होनेकी खबर भी प्रमुखतासे आती रहती है। इंडियन मेडिकल असोसिएशन एक एनजीओ है, उसका रजिस्ट्रेशन भी एनजीओ एक्टके तहत ही हुआ है। इसलिए वह कोई संवैधानिक कानूनी संस्थाओंकी तरह काम नहीं कर सकती है, सर्टिफिकेट नहीं दे सकती है। परन्तु आईएमए तो कई उत्पादों और दवाओंका सर्टिफिकेट भी जारी करती है। यह एनजीओ डाक्टरोंके ट्रीटमेंट आतंकवादका संरक्षक बन गया है। अब तो केंद्रीय और राज्य सरकारोंको भी एलोपैथ डाक्टरोंके ट्रीटमेंट आतंकवादपर ध्यान देने और इनकी गुंडागर्दीको रोकनेके लिए कानून बनानेकी जरूरत है। सभी प्रकारके इलाजकी कीमतपर सरकारका नियंत्रण होना चाहिए। इसके बाद ही हम एलोपैथ डाक्टरोंके ट्रीटमेंट आतंकवादपर अंकुश लगा सकते हैं।