सम्पादकीय

बंगाल रणभूमिके संकेत


अवधेश कुमार

पश्चिम बंगालमें ममताकी राजनीतिने माकपा नेतृत्ववाले वामदलों ऐसा ढहाया कि वामपंथी अबतक कराह रहे हैं। भाजपाको भी लगता है कि वह २०११ में ममताकी विजय सदृश कारनामा कर सकते हैं। तृणमूल कांग्रेसके नेताओंका भाजपामें प्रवेश प्रक्रिया लगातार बढ़ रही है। बंगालके राजनीतिक परिदृश्यके संकेतोंको कैसे पढ़ा जाय। कुल २९४ विधानसभा सीटोंमेंसे २०१६ में हुए चुनावमें तृणमूलने २११ सीटोंके साथ एकतरफा विजय पायी थी। वाममोर्चाको ३३ तथा कांग्रेसको ४४ सीटेें मिलीं थी। भाजपाको केवल तीन सीटें मिलीं। किन्तु २०१६ के बादसे गंगासागरमें काफी पानी गिर चुका है। कांग्रेस और वामदल साथ आनेके बाद फुरफुरा शरीफके सिद्दीकीके सेक्यूलर फ्रंटसे हाथ मिला चुके हैं तो एआईएमआईएमके असदुद्दीन ओवैसी भी कूद पड़े हैं। भाजपाने बंगालका राजनीतिक माहौल किस कदर बदला है इसका प्रमाण लोकसभा चुनावमें मिला। भाजपाने ४०.७ प्रतिशत मत पाकर १८ सीटें जीत लीं जबकि २०१४ में उसे केवल दो सीटें मिलीं थीं। २०१४ की तुलनामें भाजपाके मतोंमें २२.७६ प्रतिशतका असाधारण उछाल आया। ममताकी सीटें ३४ से घटकर २२ रह गयीं। हालांकि उसका ४३.३ प्रतिशत भाजपासे ज्यादा है। कुल मतोंके अनुसार देखें तो भाजपाको दो करोड़ ३० लाख २८ हजार ३४३ तथा तृणमूलको दो करोड़ ४७ लाख ५६ हजार ९८५ मत मिले। कुल १७ लाख १८ हजार ६४२ का अन्तर। यह इतना बड़ा अन्तर नहीं है जिसे पाटा न जा सके ऐसेमें ममता और उनके साथियों-समर्थकोंके चेहरेपर चिन्ताकी लकीरें स्वाभाविक हैं। २०१९ के बादसे नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाहके नेतृत्वमें भाजपाने एक दिनका भी विश्राम नहीं किया है।

बंगालका लाल दुर्ग अब इतिहासका विषय हो गया। २०१९ में वाममोर्चा ६.३४ प्रतिशत मततक सिमट गया। कांग्रेस भी २०१९ में ५.६७ प्रतिशत मतकी पार्टी रह गयी है। कांग्रेसका तो कोई कार्यक्रमतक वहां नजर नहीं आता। २०१९ के अनुसार देखें तो भाजपाको १२२ विधानसभा क्षेत्रोंमें बढ़त थी, जबकि तृणमूलको १६३ और कांग्रेसको नौपर। वामदलोंको एक सीटपर भी बढ़त नहीं मिली थी। इसमें कोई चमत्कार ही कांग्रेस वामदलोंके लिए खुशहाली ला सकता है। २०१९ का विधानसभा चुनाव दोनोंने साथ मिलकर लड़ा था लेकिन वह ममताके गढ़को भेद नहीं सके। वामदलोंके साथ अब मूलत: वही मतदाता हैं जो उनकी विचारधाराके प्रति समर्पित हैं या उसे अच्छा मानते हैं। कांग्रेसका तो कोई कोर मतदाता है ही नहीं। प्रदेशकी राजनीतिक धाराको परखनेवाले जानते हैं कि इस गठबंधनको लेकर आम जनतामें कोई उत्साह नहीं है। संभव है ममता बनर्जी और उनके साथियोंसे असंतुष्ट मतदाता जो भाजपाको पसंद नहीं करते इस गठबंधनके साथ जा सकते हैं। दूसरे, सेक्यूलर फ्रंटके कारण भी कुछ मुस्लिम मत आ जायगा। यह अंतत: तृणमूलके खिलाफ ही जायगा। बंगालमें मुस्लिम मत एक बड़ा कारक है। २०११ जनगणनाके मुताबिक राज्यमें मुसलमानोंकी संख्या २७ प्रतिशत है। इस समय इसके ३० प्रतिशतके आसपास होनेका अनुमान है। लेकिन इनकी आबादी प्रदेशमें समान रूपसे फैली नहीं है। पहाड़ी और जंगलमहल क्षेत्रोंमें मुसलमानोंकी संख्या कम है। यहां भाजपाने लोकसभा चुनावमें तृणमूलको काफी पीछे छोड़ दिया था। उत्तर, दक्षिण और मध्य बंगालमें इनकी संख्या काफी है। २०१६ के चुनावमें तृणमूलको ७० प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम मतदाताओंने मत दिया था। लोकसभा चुनावमें तो भाजपाके भयसे मुस्लिम मतदाताओंका ८० प्रतिशतसे ज्यादा मत तृणमूलको चला गया। मुस्लिम मतोंकी दृष्टिसे ओवैसीको अनदेखी नहीं की जा सकती। ओवैसी खतरनाक मुस्लिम राजनीति कर रहे हैं। बिहारके सीमांचल मुस्लिम प्रभाव वाले क्षेत्रोंमें बीस सीटोंपर चुनाव लड़कर यदि वह पांचपर विजय पा सकते हैं तथा शेष सीटोंपर अन्य दलोंका समीकरण गड़बड़ा सकते हैं तो बंगालमें वह कुछ नहीं कर पायंगे, ऐसा मानना उचित नहीं। मुस्लिम मतोंको ममताके साथ लानेमें कई कारकों एवं चेहरोंकी भूमिका थी। यदि मुस्लिम मतका छोटा अंश भी दूसरोंकी झोलीमें गया तो कुछ क्षेत्रोंमें तृणमूलका गणित गड़बड़ा सकता है। वैसे लोकसभामें भाजपाने भी सात सीटें मुस्लिम प्रभाववाले इलाकोंमें जीतीं।

भाजपाकी रणनीतिके कई हिस्से हैं। उन्होंने हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद सहित राष्ट्रीय सुरक्षा सहित वह सारे मुद्दे झोंकें ही हैं, नरेन्द्र मोदीके विकास एजेंडेका पूरा प्रचार है। बंगालमें आज भी सबसे ज्यादा मतदाता किसान ही हैं। इसमें एक मु_ी चावल और कृषक सुरक्षा अभियानका महत्व आसानीसे समझमें आता है। इसके साथ वह बंगाली महापुरुषोंको लगातार स्वाभाविक तरीकेसे महिमामंडित कर लोगोंकी भावनाओंको स्पर्श करनेकी रणनीतिपर काम कर रही है। परिवर्तन यात्राओंके माध्यमसे राजनीतिक परिवर्तनका माहौल बनानेकी पूरी कोशिश भाजपा कर रही है। वहां राम मंदिरकी बात होती है, कश्मीरसे धारा ३७० हटानेके फैसलेपर बोलते हैं, लव जेहादसे लेकर भाजपा शासित राज्योंमें गोहत्यापर प्रतिबंध संबंधी कानूनोंकी बात करते हैं, दूसरे राज्योंमें पुराने शहरोंका नाम बदले जानेकी चर्चा करते हैं या पाकिस्तानमें सर्जिकल स्ट्राइकसे लेकर चीनके साथ सफल टकरावकी बातोंपर लोगोंकी जबरदस्त तालियां मिलती हैं। ममताकी नीतियोंसे वहां गैर-मुस्लिमोंके बड़े वर्गमें असंतोष है। उन्हें हिन्दुत्व और राष्टï्रवाद भा रहा है। भाजपा स्वामी विवेकानंदसे लेकर, महर्षि अरविन्द, रविन्द्र नाथ टैगोर, सुभाष चन्द्र बोस आदिसे जुड़ी तिथियोंको जिस सुनियोजित प्रभावी तरीकेसे प्रदेश स्तरपर मना रही है उसके असरसे कोई इनकार नहीं कर सकता। संयोग है सुभाष बाबूकी १२५वीं जयंती इसीमें आ गया। मोदी सरकार ८५ सदस्यीय समिति बनाकर पहली बार इतने व्यापक पैमानेपर इसे मना रही है। २३ जनवरीका दृश्य कौन भूल सकता है। प्रधान मंत्रीने विश्व भारतीके कार्यक्रममें गुरु रविन्द्रनाथ टैगोरपर जो कहा, जिस तरह उन्हें एवं उनके परिवारको गुजरातसे जोड़ा उसके राजनीतिक निहितार्थको नकारा नहीं जा सकता। भाजपाके पूर्वज जनसंघके संस्थापक डा. मुखर्जीको बंगालका महान पुत्र तो अब तृणमूल भी कहने लगी है। यह भाजपाकी रणनीतियोंसे बड़े दबावका असर ही है। इसी तरह भाजापा द्वारा कृषक सुरक्षा, जो जनतातक जानेका अबतकका सबसे बड़ा अभियान है, आरंभ करते ही ममताने प्रधान मंत्रीको पत्र लिखकर कहा है कि वह किसान सम्मान निधि योजना लागू करनेके हकमें हैं।

आजतक तो उन्होंने लागू नहीं किया था। तात्पर्य है कि भाजपाके अभियान ममताको अपना रवैया बदलनेके लिए मजबूर कर रहे हैं। अबतकके समीकरणोंमें पश्चिम बंगालका चुनाव तृणमूल बनाम भाजपाका दिख रहा है। तृणमूल कांग्रेसकी दीवारमें छेदसे भाजपाके लिए बेहतर स्थितिका निष्कर्ष निकाल सकते हैं। यह भी माननेके पर्याप्त कारण हैं कि लोकसभा चुनावके बाद भाजपाका ग्राफ बेहतर ही हुआ है। नेता और कार्यकर्ता छोडिय़े मंत्रीतक इस्तीफा देकर भाजपामें जा रहे हैं या जानेका संकेत दे चुके हैं। तृणमूलके लोग हिंसक हो रहे हैं। वैसे ममता एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी हैं। उनके व्यवहार और नीतियोंसे पार्टीके अन्दर और समर्थकोंके बीच भारी असंतोष राजधानी कोलकातासे लेकर पूरे प्रदेशमें प्रकट हो रहा है। इसका लाभ उठानेकी स्थितिमें केवल भाजपा ही है। इसमें कांग्रेस-वाममोर्चा गठबंधन और कुछ सीटोंपर चुनौती पेश करनेतक सीमित रहेंगे तो ओवैसी आदि इनकी ही जीत-हारमें योगदान करनेकी स्थितिमें होंगे।