सम्पादकीय

ऋग्वेदके ज्ञान सूक्तमें भाषा विकास


हृदयनारायण दीक्षित

मानवीय सृजन कर्मका सबसे बड़ा फल है भाषा। भाषा अद्भुत लब्धि है। वाणीके जन्मका इतिहास बहुत प्राचीन है। ऐतरेय उपषिदमें कहते हैं, सबसे पहले हिरण्यगर्भ था। इससे मुख छिद्र बना। मुखसे वाणी निकली। 

वाणीका रस बड़ा प्यारा है। ‘बतरसÓ का आनन्द ही कुछ और है। हम सब जीवनका अधिकांश भाग संवादमें लगाते हैं। भाषण और लेखन भी संवाद है। भाषणमें संशोधनकी गुंजाइश नहीं होती। जान पड़ता है कि पशु-पक्षी भी अपनी भाषामें बतियाते हैैं। तुलसीदासने ‘खग जाने खगकी ही भाखा लिखा है। ‘भाखाÓ यहां भाषा है। समाजने वाणीके ध्वनि प्रतीकोंको सार्वजनिक बोधका उपकरण बनाया। ऋग्वेदके ज्ञान सूक्तमें भाषा विकासके संकेत हैं, प्रारम्भिक स्थितिमें पदार्थोंके नाम रखे जाते हैं। इनका शुद्ध ज्ञान, अनुभूति गुफामें छिपा रहता है। ऋग्वेदका संकेत है कि भाषा मनुष्यका अपना कर्मफल है। कहते हैं, मेधावी जनबुद्धि ज्ञानशक्तिसे भाषाको सुसंस्कृत करते हैं। रूपोंको नाम देना आसान नहीं है। नाम सुनकर रूप याद करना आसान है। रूपका आकार होता है। हरेक रूप दूसरेसे भिन्न होता है। इसलिए नाम लेते ही रूपका स्मरण होता है और रूप देखते ही नामका भी। वाक्ï-अभिव्यक्ति मनुष्यकी अनूठी उपलब्धि है। वाक् यानी वाणी। शब्द और अर्थ भाषाकी संपदा है।

भाषा ही समाज और संस्कृति निर्माणका मुख्य उपकरण है। वाद-विवाद संवादने समाजको मजबूत बनाया। उत्पादन प्रणालीमें परिवर्तन आये। सांस्कृतिक रिश्तोंके साथ आर्थिक रिश्तोंका विकास हुआ। संस्कृति, सभ्यता, उद्योग, व्यापार और ज्ञान-विज्ञानका उपकरण भी भाषा ही थी और है। भारतीय सभ्यता और संस्कृतिका समूचा इतिहास और ज्ञान भारतीय भाषाओंमें उगा। ९९ प्रतिशत भारतीय अपनी भाषामें ही सोचते हैं। सोचते समय हम भाषाहीन नहीं होते। हमारी भाषा रूप, रस, गंध, ध्वनि और अनुभव अनुभूतिको शब्द वाक्य बनाती हैं। विचार भाषाके माध्यमसे दिग्दिगंत व्यापी होते हैं। विचारोंका जन्म और विकास भी मातृभाषामें ही होता है। वह सोच-विचारकी दिशा भी निर्धारित करती है। मनुष्यका अन्तर्जगत् रहस्यपूर्ण है। प्रेम, राग, द्वैष, ममत्व, अवसाद, विषाद और प्रसाद जैसे अनेक भाव वस्तु या पदार्थ नहीं हैं। इनके रूप हैं नहीं। इन्हें नाम देना आसान नहीं है। भारतमें भावजगत्के स्पंदनोंके लिए भी नाम हैं। ऐसा चमत्कार संस्कृतमें ही ज्यादा है। यहां प्रत्यक्ष भौतिक जगत्के साथ अव्यक्त जगत्पर भी गहन चिन्तन हुआ। नये शोध निष्कर्षोंके लिए नये शब्द गढऩेमें कोई कठिनाई नहीं होती। प्रीति, प्रेम, राग, ईष्र्या, द्वैष, रुचि, अरुचि आदि भाव हैं। श्रद्धा, आस्तिकता, समर्पण भक्ति आदि गहन अनुभूतियां हैं। भारतीय भाषाओंमें विशेषकर संस्कृतमें अनुभूतिपरक ध्वनि प्रतीकोंका कोष बड़ा है। उत्तर वैदिक कालमें ही स्थूलजगत, भाव जगत एवं अनुभूत अंत:करणसे जुड़े भिन्न तलोंके लिए अलग-अलग शब्द उपलब्ध थे। सौन्दर्य अनुभूतिको बताना आसान नहीं। संवेदनकी अभिव्यक्ति तो और भी दुरूह साधना है लेकिन भाषाकी शक्ति सामथ्र्य बड़ी है। यहां व्याकरणका अनुशासन है। भाषाका अपना संगीत और नाद है। ब्रह्मïाण्ड बड़ा है। इसका ओर छोर बताना असंभव। संस्कृतमें इसे कहनेके लिए ‘विराटÓ शब्द आया। यूरोपीय भाषाओंमें विराटका समानार्थी शब्द नहीं मिलता। इनफिनटी अनंतका पर्याय जान पड़ती है। विराटमें बोधका भाव है, अनंतमें असमर्थताका। पति-पत्नीको मिलाकर यहां शब्द दम्पत्ति है। गैर-भारतीय भाषाओंमें ऐसा शब्द नहीं है। नमस्कारका भाव गहरा है, गुड मार्निग जैसे शब्द अंत:करणकी सूचना नहीं देते। दिव्यके लिए डिवाइन शब्द है। जान पड़ता है कि दिव्य ही डिव और डिवाइन बना। परन्तु ऐसी बातें भाषा विज्ञानका विषय हैं। नमस्कार जैसा शब्द विदेशी भाषामें नहीं है। यह ‘प्रणामÓ भी अनूठा है। लेकिन हमारे समाजमें गालियां भी हैं। इनमें दुर्भाग्यपूर्ण अश्लीलता है। सिनेमा लोकप्रिय कला है। कलाका काम समाजके उदात्त बनाना है और संवेदनशील सुचालक भी। लेकिन यथार्थवादके नामपर सिनेमा और ओटीटीमें गालियोंका प्रवाह है। गालियां भारतीय संस्कृतिका भाग नहीं है। वैदिक साहित्यके बीस हजारसे ज्यादा श्लोकों मंत्रोंमें गालियां नहीं है। दोनों महाकाव्यों रामायण एवं महाभारतका केन्द्रीय आधार युद्ध है। युद्धपूर्व दोनों पक्षोंमें उत्ताप होता है। आधुनिककालमें लोग झगड़ते हैं, पहले गाली बकते हैं फिर लड़ाई करते हैं। गाली प्राय: सभी लड़ाई झगड़ोंका पूर्वकथन होती है। लेकिन दोनों महाकाव्योंमें गालियां नहीं है। भाषाका उद्भव और विकास भू-सांस्कृतिक आवश्यकता एवं धरातलमें होता है। भारतीय भाषाओं विशेषतया हिन्दी संस्कृतमें गालियां नहीं है। भारतीय संस्कृति और परम्परामें गालियां होतीं तो हमारी भाषाओंमें भी गालियां होतीं।

भारतमें उर्दू भी चलती है। उर्दू जुबानके स्रोत भारतीय नहीं है। उर्दूमें बेशक प्रेम-मोहब्बतका ढेर सारा साहित्य है। अनुभूति भी गहरी है। लेकिन उर्दू शायरीमें अरबी, फारसीके शब्दोंकी बहुतायत है। जैसे हिन्दीमें संस्कृत भाषाके शब्द प्रयोगकी समृद्धि है वैसे ही उर्दूमें अरबी, फारसी, तुर्कीके भाषाई संस्कार हैं। संस्कृत या हिन्दीमें गालियां नहीं है। अधिकांश गालियोंमें स्त्री ही निशाना है। समझमें नहीं आता कि पुरुषोंकी लड़ाईमें भी मां और बहन ही निशाना क्यों होती है? पुरुषोंको दी जानेवाली गालियां भी ध्यान देने योग्य हैं। इनमें हरामजादा या हरामीकी औलादमें भी स्त्री ही निशाना है। हराम शब्द भी अरबी है। गालियां हिन्दीभाषी लोकमें भी हैं लेकिन इनमें स्त्री यौनिकता नहीं है। हिन्दीमें सीधे पुरुषोंके लिए ही गालियां हैं। अपमानित करनेके लिए ‘चिरांधÓ शब्द प्रयोग बार होता है। कोई काम न करनेवालेको ‘नल्लाÓ कहा गया है। हिन्दी प्रदेशोंमें गधा, चपडग़ंजू, मग्घा आदि शब्द भी गालीकी तरह इस्तेमाल होते हैं। गीतामें श्रीकृष्णके लिए ‘हे अच्युतÓ शब्द आया है। अच्युतका अर्थ है- जो भटका या गिरा नहीं है और च्युतका अर्थ भटका हुआ गिरा हुआ है। च्युत-याका अर्थ जो भटक गया है। यहां ‘याÓ का अर्थ है-जो। जान पड़ता है कि च्युतया ही बोलचालमें चूतिया हो गया। यौनिक गालियां भारतीय परम्परा और भाषाका हिस्सा नहीं है। तुलसीदासकी एक प्रेमपूर्ण रचना है- रामलाल नहछू। नहछूमें गुदगुदानेवाली गालियां हैं। नहछूवाली गालियां हास-परिहास पैदा करती हैं। विवाहके अवसरपर अब भी महिलाएं भारतीय पृष्ठभूमिसे उत्पन्न गालियां गाती हैं। भारतके बाहर गालियां गायी नहीं जाती, गालियां दी जाती हैं। संभवत: भारत दुनियाका अकेला देश है जहां गालियां गायी जाती हैं। राम लला नहछूमें गानेवाली गालीके एक अंशमें कहते हैं कि ‘काहे रामजिव सांवर लछिमन गोर हो/राम अहहि दशरथके लछिमन आनके हो।Ó सूरदासकी सूरसागरमें भी ऐसा ही प्रसंग है। श्रीकृष्णके लिए गाया है, ‘गोरे नंद यशोदा गोरी/तू कत श्याम शरीर।Ó श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। श्रीराम विवाहका अवसर है। महिलाएं गाली गानेमें मस्त हैं। नहछूमें कहते हैं ‘रामलला सकुचाहिं देखि महतारी हो।Ó साहित्य और कला उद्देश्यपरक होते हैं। तुलसीने भी नहछूमें बताया है कि नहछू गानेवालेको ऋद्धि-सिद्धि कल्याण मिलेगा।