सम्पादकीय

कोरोनाके कहरसे अनभिज्ञ ग्रामीण


ऋतुपर्ण दव

देशमें स्वास्थ्य सुविधाओंकी खासकर गांवोंकी पूरी असलियत पता तो थी लेकिन समझ अब आयी। इससे पहले कभी किसीने सोचा भी नहीं होगा कि कोरोनाके चलते वह दौर भी आयगा जब एक-एक सांसके लाले पड़ जायंगे। इतना ही नहीं, गांवोंमें जब चिता सजाने एवं अंतिम संस्कारके लिए भी संसाधन कम पडऩे लगे तो मजबूरीमें शव नदियोंमें बहाये जाने लगे जिसे भी पुराना चलन बता दबानेकी कोशिश हुई। लेकिन कफनकी जगह पॉलिथिन किट पहने तमाम शवोंने उसे भी ध्वस्त कर दिया। कुल मिलाकर पूरे देशमें जर्जर स्वास्थ्य सुविधाओंकी असलियतने महाशक्ति बननेकी ओर अग्रसर देशकी पोल खोल दी। भारतमें ७२.२ प्रतिशत आबादी गांवोंमें रहती है और करीब साढ़े छह लाख गांव हैं। अधिकांश गांवोंमें डाक्टरतक नहीं हैं। गांवोंमें डाक्टरोंका औसत कुछ यूं है कि तीनमेंसे दो झोलाछाप। इसीसे ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्थाओंकी चलती असलियत समझी जा सकती है। इसमें कोई दो मत नहीं कि कोरोनाकी दूसरी लहरने पूरे देशमें जबरदस्त तबाही मचायी और उससे भी ज्यादा चिन्ताजनक यह कि गांवोंतकमें फैल गयी। यह आम लोगोंको समझ आ रहा है। उससे भी बड़ा सच यह कि कई गांवके गांव चपेटमें हैं फिर भी भोले ग्रामीणोंको पतातक नहीं कि कोरोनासे ग्रस्त हैं। टेस्टिंगको लेकर तमाम सरकारी दांवोंकी पोलका धुंधला चेहरा काफी डरावना है। रिकार्डमें भले ही लोगोंकी रिपोर्ट निगेटिव आ रही हों जिसके लिए स्थानीय प्रशासनकी पीठ थपथपाई जाय। लेकिन नये और बहुरूपिये वैरिएंटकी बदलती तासीर भी तो जगजाहिर है। सवाल फिर वही कि कोरोना लक्षणोंसे हुई मौतोंकी जांच निगेटिव आनेसे मौतोंको भला कोरोनाका शिकार क्यों नहीं माना जाता। यदि यह मुआवजा या किसी अन्य तरहकी संभावित भरपाईसे बचनेके लिए है तो बेहद चिन्तनीय है। सबको पता है कि टेस्टिंगमें अब अक्सर निगेटिव आनेकी हकीकत और संक्रमणकी चपेटके बाद पॉजिटिविटीके सबूतोंकी भरमार है। क्या कोरोनामें बुखार, खांसी, जुकाम, न्यूमोनिया नहीं होता। इसका जवाब किससे पूछा जाय, जबकि तमाम मेडिकल जर्नल और विशेषज्ञके अनुसार यही लक्षण ही संक्रमितोंकी पहचानका आधार हैं।

देशके गांवोंमें अचानक हो रही मौतोंके आंकड़े बेहद भयावह हैं। यह असाधारण हैं। इन्हें सहजतासे लिया जाना अगले खतरेको न्यौता देना जैसा है। जबकि हम अभीसे कोरोनाकी तीसरी लहरको लेकर कुछ ज्यादा ही डरे हैं। बस इतना पता है कि गांवके गांव और वहांके सीधे-साधे ग्रामीण अब भी कोरोनासे लक्षणोंको सिवाय सर्दी, जुकाम, बुखारसे ज्यादा कुछ न समझ, नीम हकीमोंसे इलाजको मजबूर हैं। गांवोंकी भयावह तस्वीरें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, त्रिपुरा, सिक्किम, मणिपुर, तमिलनाडु जैसे राज्यों सहित लगभग पूरे देशसे आ रही हैं। गांवोंमें कोरोना जिस तरहसे पैर पसार रहा है बावजूद इसके अनदेखी करना बेहद चिन्ताजनक है। गांवोंमें लगातार मौतोंका बढ़ता आंकड़ा बेहद डराता है। आक्सीनज एवं डाक्टरोंकी कमी तो मरीजोंकी देखरेखमें लापरवाही, अधिक बिलिंगको लेकर उत्तर प्रदेश, दिल्ली, गुजरात सहित देशको हाईकोर्टसे लेकर सुप्रीम कोर्टतकने सख्त चेतावनी दी है। लेकिन संसाधन हों तभी तो कुछ नतीजा निकले। फिलहाल गांवोंमें हो रही ताबड़तोड़ मौतोंको कोरोनाकी श्रेणीमें रखना या न रखना, उनपर क्लीन चिट देना अलग विषय हो सकता है। लेकिन जिस गांवके इतिहासमें कभी लगातार इतनी मौतें न हुई हों, वहांपर मौतोंकी बढ़ती फेहरिस्तको नजर अंदाज करना और जांचतक न करना ही क्या कोरोनासे जंग जीतना है। भले ही आंकड़ोंमें कोरोना रोज कम होते जायं, स्वस्थ होनेवालोंका आंकड़ा बढ़ता जाय, यह अच्छा है सुकूनकी बात है। लेकिन हकीकतसे मुंह मोड़ा जाय यह समझसे परे है। जहां शहरोंकी बदहालीकी तस्वीरें खूब दिखीं, वहीं गांवोंकी बेहाली किसीसे छिपी नहीं। शहर और गांवका फर्क इस बार संक्रमणने नहीं किया। दोनों तस्वीरें एक-सी है। शहरोंमें आक्सीजनका टोटा, वेण्टीलेटरकी कमी, आईसीयू बेड, जीवनरक्षक इंजेक्शन न होनेका रोना है। वहीं गांवमें बीमार अस्पताल और बदबू मारते कमरे, स्टाफ और डाक्टरकी कमी, रोज नहीं आना, दवाओंका टोटा। यानी गांवोंमें आक्सीजन तो बहुत दूरकी बात सर्दी, बुखारकी गोलीतक नहीं मिलती। कुछ अंधविश्वासके सहारे तो कुछ झोलाछापोंसे पेड़ोंके नीचे बोतल लगवाते तो कहीं पीपलके पेड़के नीचे चारपाई डाल और कहीं पेड़पर ही बैठकर लोग प्राणवायु लेते दिखे। उसके बाद लकड़ीकी कमी ऊपरसे सरकारी अनदेखी। हारे-थके ग्रामीणके पास अंतत: नदीमें शव बहाकर मोक्षकी कामनाके अलावा शायद कुछ नहीं रह जाता। तमाम पंच, सरपंच भले ही कोरोना जैसे लक्षणोंसे हुई मौतोंके हिसाब-किताबकी सूची दिखाते फिरें लेकिन सरकारी आंकड़ोंमें इन्हें वह जगह कहां। खुश न हों कि संक्रमण घट रहे हैं, मौतोंके रिकार्ड आंकड़े भी तो बढ़ रहे हैं। अब भी नींदसे जाग जायें, क्योंकि इसी दर्दमें डूबे हुए भारतीय चिकित्सक संघके पूर्व अध्यक्ष, हार्ट केयर फाउंडेशनके पूर्व प्रमुख, २००५ में चिकित्सा क्षेत्रके बेहद प्रतिष्ठित बीसी रॉय पुरस्कारसे सम्मानित, हिंदी सम्मानके अलावा डाक्टर डीएस मुंगेकर नेशनल आईएमए अवॉर्ड, नेशनल साइंस कम्युनिकेशन अवॉर्ड, फिक्की हेल्थकेयर पर्सनालिटी ऑफ द ईयर अवॉर्ड और राजीव गांधी एक्सीलेंस अवॉर्डसे सम्मानित होनेके बाद वर्ष २०१० में भारत सरकारकी ओरसे पद्मश्रीसे सम्मानित एवं लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डमें भी नाम दर्ज करा चुके पद्म श्री स्वर्गीय डा. केके अग्रवालने कोरोनासे ग्रसित होनेके बाद आक्सीजन सपोर्टपर रहते हुए भी मरीजोंकी सेवा की और जाते-जाते चंद शब्दोंमें बहुत बड़ी बात कह दी पिक्चर अभी बाकी है, द शो मस्ट गो ऑन! अभी भी वक्त है काश समझनेवाले समझ पाते।