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चाचा शिवपाल की अंगुली पकड़कर स्कूल गए थे अखिलेश, क्‍या थी वो चिट्ठी जिसे लेकर मंच पर सबके सामने हुई थी बाप-बेटे में तू-तू मैं-मैं?


नोएडा। देश में सात चरणों में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। इस बीच हर गली-मोहल्ले में की हवा में कौन-सी पार्टी कब बनी, किसकी सियासी गलियारे में कैसे एंट्री हुई, उस शहर में नेताजी आए तो क्या दिलचस्प रहा था जैसे किस्से तैर रहे हैं।

 

ऐसे आज हम आपके लिए लाए हैं समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के मुखिया व पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) और उनके बेटे अखिलेश यादव की राजनीति में एंट्री व परिवार की पूरी कहानी। मुलायम की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए इस बार लोकसभा चुनाव में बेटा अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav), बहू डिंपल बेटे व अक्षय, आदित्य और धर्मेंद्र यादव चुनावी मैदान में हैं।

लोकसभा चुनाव में तीसरे चरण के मतदान में मैनपुरी से डिंपल यादव (Dimple Yadav) , बदायूं से आदित्य यादव, फिरोजाबाद से अक्षय यादव (Akshaya yadav) का भविष्‍य दांव पर है तो वहीं कन्नौज से पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और आजमगढ़ से धर्मेंद्र यादव की भी अग्निपरीक्षा है।

 

अखाड़े से सियासत तक का सफर

यह रही आज की बात, लेकिन जो हम आपको बताने जा रहे हैं वो है फरवरी, 1962 की बात। उन दिनों देश में तीसरी लोकसभा का चुनाव था। विधानसभा चुनाव भी साथ ही थे। यूपी के जसवंतनगर विधानसभा सीट प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा) के प्रत्याशी नत्थू सिंह प्रचार करने गए थे, तब उनका एक गांव में हो रहे दंगल पर गया।

दंगल देखते हुए वह एक नौजवान के दांव-पेंच से खासा प्रभावित हुए। वह नौजवान कोई और नहीं, मुलायम सिंह यादव थे। बाद में उन्होंने कई दशकों तक सियासी अखाड़े में भी अपने दांव-पेंच से विरोधियों को हैरत में डाला।

‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’

साल 1964 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का बंटवारा हो गया। राम मनोहर लोहिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) बनाई। आगामी चुनाव हुए तो लोहिया ने नारा दिया, ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ।’ मुलायम को इसका भरपूर लाभ मिला।

1967 के विधानसभा चुनाव में वह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर जसवंतनगर सीट से पहली बार विधायक चुने गए थे। 22 नवंबर, 1939 को इटावा के सैफई गांव में जन्‍मे मुलायम सिंह यादव उस वक्त सबसे युवा (28 साल) विधायक थे।

… जब मुलायम को माना जाने लगा पीएम पद का दावेदार

1967 के चुनाव के बाद चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर जनसंघ, समाजवादियों और कम्युनिस्टों के समर्थन से सरकार बनाई, लेकिन यह सरकार साल भर में गिर गई। इसी बीच राम मनोहर लोहिया का निधन भी हो गया था। मुलायम नए नेता की तलाश में थे और उधर चरण सिंह ने भारतीय लोकदल का गठन किया।

उन्‍हें भी प्रदेश में एक भरोसेमंद जमीन से जुड़े साथी की तलाश थी। इस तरह सियासी राह में मुलायम यादव आगे बढ़ते गए। साल 1996 में वह सियासत के उस मुकाम पर पहुंच गए थे, जहां उन्‍हें देश के प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर देखा जाने लगा।

 

दिल्‍ली पहुंचे मुलायम तो भाई को मिली जसवंतनगर की गद्दी

पीएम न बन पाने के दांव में फेल होने को लेकर मुलायम सिंह ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वह लालू यादव और शरद यादव (Sharad Yadav)  जैसे दोस्तों से हो गए। खैर, वह एचडी देवगौड़ा सरकार में रक्षा मंत्री बने। इस दौरान जसवंतनगर सीट अपने छोटे भाई शिवपाल यादव को सौंप दी। उसके बाद शिवपाल यादव का कद पार्टी में बढ़ता रहा, लेकिन वह मुलायम की छत्रछाया से कभी बाहर नहीं निकले। शायद इसकी जरूरत भी नहीं थी।

इसके महत तीन साल बाद यानी कि 1999 में मध्यावधि में चुनाव हुए तो स्थितियां बदल गईं। मुलायम सिंह यादव कन्नौज और संभल दो सीटों चुनाव जीते। बाद में उन्होंने कन्नौज लोकसभा सीट छोड़ दी।

फिर यहां उपचुनाव हुए तो उन्होंने अपने 26 साल के इंजीनियर बेटे अखिलेश को मैदान में उतार दिया। बेटे को प्रत्याशी बनाना मुलायम परिवार के भविष्य में संभावित उत्तराधिकार की जंग का पहला संकेत था। हालांकि, शिवपाल शांत ही थे। चुनाव जाते-जाते रहे और मुलायम सिंह के दांव-पेंच से सब अंडर कंट्रोल बना रहा।

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को जीती तो मुलायम सिंह ने बेटे अखिलेश का नाम आगे बढ़ाया, जिस पर शिवपाल नाराज हो गए। परिवार में कलह बढ़ गई। कहा जाता है कि इसमें अमर सिंह और रामगोपाल यादव जैसे नेताओं की भी भूमिका थी। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि जब 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा से पांच सांसद चुने गए और पांचों ही (मुलायम सिंह, अखिलेश, डिंपल, धर्मेंद्र और तेज प्रताप सिंह) परिवार के सदस्य थे।

नेताजी वो चिट्ठी मुझे दिखाइए

24 अक्टूबर 2016 लखनऊ में मंच सजा था। सपा के नेताओं की बैठक थी। पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव सबको संबोधित कर रहे थे। इस दौरान वह अपने बेटे और उस वक्त सूबे के सीएम अखिलेश यादव को डांटने लगे। अखिलेश कभी मुस्कुरा देते तो कभी शांत हो जाते। लेकिन जैसे ही मुलायम ने कहा, मुझे मुस्लिमों की ओर से एक चिट्ठी मिली है, जिसमें लिखा है- ‘आपका बेटा मुस्लिमों को पार्टी से दूर रखना चाहता है।’

यह सुनते ही अखिलेश ने आपा खो दिया। वह उठे और पोडियम के पास खड़े मुलायम के नजदीक गए और कहा- ‘नेताजी वो चिट्ठी मुझे दिखाइए।’

मुलायम ने जिसे राजनीति उंगली पकड़ चलना व राजनीति का ककहरा सिखाया और अपनी सियासी विरासत सौंप दी, उसी बेटे ने भरी सभा में पिता को ललकारा तो वह हक्के-बक्के रह गए। मुलायम ने गुस्सा करते हुए कहा, मुझसे ऐसे बात मत करो, जाओ बैठो, लेकिन अखिलेश ने नहीं सुनी। यह वो वक्त था, जब पारिवारिक झगड़ा घर के आंगन से निकल सियासत के खुले मैदान में हो रहा था। बाद के बरसों में यह कलह बढ़ती गई।

पिता समान चाचा

मौजूदा वक्त में समाजवादी पार्टी की कमान अखिलेश यादव संभाल रहे हैं। शिवपाल यादव (Shivpal Singh Yadav) साइडलाइन हैं, जबकि एक वक्‍त वो भी था, जब मुलायम सिंह यादव ने बेटे अखिलेश यादव को धौलपुर के सैनिक स्‍कूल में पढ़ने भेजा था।

पूर्व सीएम अखिलेश यादव की जीवनी ‘ अखिलेश यादव: विंड्स ऑफ चेंज के मुताबिक, धौलपुर के सैनिक स्कूल में अखिलेश यादव का दाखिला करवाने चाचा शिवपाल यादव गए थे। जब मुलायम राजनीति में व्‍यस्‍त थे, तब शिवपाल एक तरह से अखिलेश के संरक्षक की भूमिका में रहा करते थे।