श्रीराम शर्मा
श्रद्धायुक्त नम्रताकी तरह अंतरात्मामें दिव्य प्रकाशकी ज्योति जलती रहे। उसमें प्रखरता और पवित्रता बनी रहे तो पर्याप्त है। पूजाके दीपक इसी प्रकार टिमटिमाते हैं। आवश्यक नहीं उनका प्रकाश बहुत दूरतक फैले। छोटेसे क्षेत्रमें पुनीत आलोक जीवित रखा जा सके तो वह पर्याप्त है। परमात्माके प्रति अत्यंत उदारतापूर्वक आत्मभावना पैदा होती है, वही श्रद्धा है। सात्विक श्रद्धाकी पूर्णतामें अंत:करण स्वत: पवित्र हो उठता है। श्रद्धायुक्त जीवनकी विशेषतासे ही मनुष्य स्वभावमें ऐसी सुंदरता बढ़ती जाती है, जिसे देखकर श्रद्धावान स्वयं संतुष्ट बना रहता है। श्रद्धा सरल हृदयकी ऐसी प्रीतियुक्त भावना है, जो श्रेष्ठ पथकी सिद्धि कराती है। जीवनका सम्मान ही आचार शास्त्र है। अनीति ही जीवनको नष्ट करती है। मूर्खता और लापरवाहीसे तो उसका अपव्यय भर होता है। बुरी तो बर्बादी भी है परन्तु विनाश तो पूरी विपत्ति है। बर्बादीके बाद तो सुधरनेके लिए कुछ बच भी जाता है परन्तु विनाशके साथ तो आशा भी समाप्त हो जाती है। अनीति अपनानेसे बढ़कर जीवनका तिरस्कार और कुछ हो नहीं सकता। पाप अनेको हैं उनमें प्राय: आर्थिक अनाचार और शरीरोंको क्षति पहुंचाने जैसी घटनाएं ही प्रधान होती हैं। इनमें सबसे बड़ा पातक जीवनका तिरस्कार है। अनीति अपनाकर हम उसे क्षतिग्रस्त, कुंठित, हेय और अप्रमाणिक बनाते हैं। दूसरोंको हानि पहुंचाना जितनी बुरी बात है, दूसरोंके ऊपर पतन और पराभव थोपना जितना निंदनीय है। उससे कम पातक यह भी नहीं है कि हम जीवनका गला अपने हाथों घोटें और उसे कुत्सित, कुंठित, बाधित, अपंगों एवं तिरस्कृत स्तरका ऐसा बना दें जो मरणसे भी अधिक कष्टदायक हो। श्रद्धा तप है। वह ईश्वरीय आदेशोंपर निरन्तर चलते रहनेकी प्रेरणा देती है। आलससे बचाती है। कर्तव्यपालनमें प्रमादसे बचाती है। सेवा धर्म सिखाती है। अंतरात्माको प्रफुल्ल, प्रसन्न रखती है। इस प्रकारके तप और त्यागसे श्रद्धावान व्यक्तिके हृदयमें पवित्रता एवं शक्तिका भंडार अपने आप भरता चला जाता है। गुरु कुछ भी न दे तो भी श्रद्धामें वह शक्ति है, जो अनंत आकाशसे अपनी सफलतामें तत्व और साधनको आश्चर्यजनक रूपसे खींच लेती है। धु्रव, एकलव्य, अज, दिलीपकी साधनाओंमें सफलताका रहस्य उनके अंत:करणकी श्रद्धा ही रही है। उनके गुरुओंने तो केवल उसकी परख की थी। यदि इस तरहकी श्रद्धा आज भी लोगोंमें आ जाय, लोग पूर्ण रूपसे परमात्माकी इच्छाओंपर चलनेको कटिबद्ध हो जायं तो विश्वशांति, चिर संतोष और अनंत समृद्धिकी परिस्थितिया बनते देर न लगे। उसके द्वारा सत्यका उदय, प्राकट्य और प्राप्ति तो अवश्यंभावी हो जाता है। यदि थोड़ी-सी सजगताके साथ हर इनसान सोचे तो दुनियामें श्रद्धा और विन्रमताकी भावना पैदा हो सकती है।