डा. सुशील कुमार सिंह
यो पृथ्वी सम्मेलन १९९२ में जंगलमें फैलनेवाली आगसे उत्पन्न होनेवाली विभिन्न समस्याओंपर दशकों पहले चर्चा हो चुकी है जिसमें यह स्पष्टï है कि भूमिके अनियंत्रित ह्रास और भूमिका दूसरे कामोंमें बढ़ता उपयोग, मनुष्यकी बढ़ती जरूरतें, कृषि विस्तार समेत पर्यावरणको नुकसान पहुंचानेवाली तमाम प्रबंधकीय तकनीक वनोंके लिए खतरा पैदा कर रही हैं। क्षेत्र विशेषके अनुपातमें घटनाओंका संदर्भ भिन्न हो सकता है परन्तु जंगलकी आगपर नियंत्रण पानेके अपर्याप्त साधन बताते हैं कि मानव कितना बौना है। अनियंत्रित आग और बेतरजीब तरीकेसे पानीकी बर्बादी जीवन विन्यासमें अस्तित्व मिटने जैसा है। परन्तु विडम्बना यह है कि दोनोंपर काबू पाना मानो मुश्किल हो चला है। शान्त और शीतल उत्तराखण्डकी वादी इन दिनों तपिशसे घिर चुकी है। कुमायूंके जगलोंमें तो लगी आगसे अत्यधिक धुंध हो गया है जिसके चलते वायुसेनाका हेलीकॉप्टर कई दिनोंकी कोशिशके बावजूद भी भीमताल झीलसे पानी नहीं ले पाया। चम्पावत, पिथौरागढ़ और बागेश्वरमें भी जंगल धधक रहे हैं जबकि गढ़वाल क्षेत्रमें दृश्य भी भयावह बना हुआ है।
भारतके लगभग आठ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रमें वन हैं इनमेंसे लगभग सात लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रमें किसी न किसी तरहके वन पाये जाते हैं। कई तरहकी जैव विविधता मिलती है। बढ़ती जनसंख्याके कारण वनोंका अतिक्रमण भी हुआ है और दबाव भी बढ़ा है। उत्तराखण्डमें कुल क्षेत्रफलका करीब ६५ प्रतिशत वन क्षेत्र हैं जिसमें करीब १६ से १७ फीसदी जंगल चीड़के हैं। इन्हें जंगलोंमें आगके लिए मुख्यत: जिम्मेदार माना जाता है। इस सालकी शुरुआतमें यहां बारिश भी घटी है बारिश ५० मिलिमीटरकी जगह दस मिलिमीटर ही हुई है। जंगलोंमें आग लगनेके कारण भी इसे एक महत्वपूर्ण कारकके रूपमें देखा जा सकता है। गौरतलब है कि बारिश न होने या कम होनेसे जमीनमें आद्र्रता कम होती है जिसके चलते पेड़-पौधे जल्दी ही आग पकड़ लेते हैं। उत्तराखण्डमें आग जिस तरह बेकाबू है वह सरकारको भी रणनीतिक तौरपर काफी परेशान किये हुए है। इसे बुझानेके लिए हेलीकॉप्टरका सहारा लेना या फिर बारिशका होना सहायक होता है। प्रदेशके जंगलोंमें इस बार तो आग सर्दीके दिनोंसे ही लग गयी और अबतक लगभग १४ सौ हेक्टेयर जंगल आगकी जदमें देखा जा सकता है और इससे जुड़े मामले भी ११ सौसे अधिक है। गौरतलब है कि जंगलकी आगपर काबू पानेके लिए आठ हजार शायर वाचरकी तैनातीकी बात भी देख सकते हैं। साल २०१६ में जब उत्तराखण्डके जंगल जल रहे थे जो अपने आपमें एक बड़ी घटना थी जिसमें पूरे १३ जिले इसकी चपेटमें थे। गढ़वाल मण्डलमें आग बेकाबू थी जैसा कि इन दिनों है। उन दिनों भी हजारों हेक्टेयरसे अधिककी वन सम्पदा जलकर राख हो चुकी थी। कार्बेट नेशनल पार्कका करीब तीन सौ हेक्टेयरका क्षेत्रफल भी इसकी भेंट चढ़ चुका था। आग बुझानेमें हजारों फायरकर्मीके साथ गांवके हजारों प्रशिक्षित लोग भी शामिल थे। एनडीआरएफ, एचडीआरएफ समेत दस हजार कर्मियोंको इसमें अपनी कोशिश करनी पड़ी थी। एमआई-१७ हेलीकॉप्टरोंसे जंगलोंपर पानी छिड़का जा रहा था। साफ है कि आगकी घटनाएं हर साल कमोबेश होती रहती हैं परन्तु सवाल है कि इसको रोकने और काबू पानेमें रणनीतिक तौरपर सरकार कितनी सफल रहती है। फिलहाल उत्तराखण्ड जल रहा है और आगपर काबू पानेकी कोशिश जारी है।
भारतीय जंगल सर्वेक्षणकी पड़तालसे बताती है कि जंगलोंमें आग लगनेकी घटनाके मामलेमें ओडिशा देशमें पहले नम्बर है जहां २२ फरवरीसे १ मार्चके बीच ५२९१ अग्निकाण्डकी घटनाएं हुईं जो किसी भी राज्यकी तुलनामें तीन गुना अधिक है। तेलंगाना दूसरे और मध्य प्रदेश अग्निकाण्ड घटनाके मामलेमें तीसरे स्थानपर है, चौथेपर आन्ध्र प्रदेश है। उत्तराखण्डमें जिस तरहके आंकड़े हैं वह संख्याके लिहाजसे भले ही कम हो परन्तु एक छोटे हिमालयी प्रान्तमें अग्निकाण्डकी हुई घटनाएं कमतर नहीं कही जा सकती। हाईकोर्टने एक सुनवाईके दौरान सरकारको निर्देश दिया कि वह अग्निशमन आदि हेतु एनडीआरएफ और एचडीआरएफको पर्याप्त बजट भी उपलब्ध कराये। गौरतलब है कि २०१७ में आग लगनेकी घटनाओंके मद्देनजर एनजीटी द्वारा १२ बिन्दुओंपर एक गाइडलाइन जारी करायी थी परन्तु सरकारने इसपर अमल नहीं किया जिसे देखते हुए उच्च न्यायालयने निर्देश दिया किया कि उक्त गाइडलाइनको छह माहके भीतर लागू किया जाये। सरकारकी ओरसे कई मामलोंपर या तो ध्यान नहीं दिया जा सकता या इच्छाशक्तिकी कमी है या फिर संसाधनोंके आभावमें जंगलोंमें लगी आगपर काबू पाना कठिन हो जाता है। वजह चाहे जो हो परन्तु जब जंगल आगकी चपेटमें होते हैं तो जैव विविधताकी हानि होती है। प्रदूषणकी समस्या बढ़ती है, मिट्टीकी उर्वरक क्षमता भी गिरती है, खाद्य श्रृंखलाका असंतुलन भी बढ़ सकता है और जंगली जीवोंको नुकसान भी होना लाजमी है। ऐसेमें कई तरहके सटीक कदमकी आवश्यकता होती है। हालांकि जंगलोंमें आग लगनेके बहुतसे कारण बताये गये हैं जिसमें मानवजनित समेत कई शामिल हैं। सबके बावजूद लाख टकेका सवाल यह है कि आग कैसे भी लगी हो इसपर काबू पानेके लिए समय रहते सरगर्मी क्यों नहीं दिखाई गयी।
जंगलमें लगी आगको आर्थिक और पारिस्थितिकी दृष्टिïसे देखनेकी आवश्यकता है। पहाड़के जंगलोंमें आग लगना एक स्थायी समस्या है ऐसा मानना सही नहीं है। इससे भी उदासीनता बढ़ती है। गौरतलब है कि २००५ से २०१५ के बीच कुमायूं वनोंमें आग लगनेकी २२ सौसे अधिक घटनाएं दर्ज हुईं और पांच हजार हेक्टेयर वन आगकी भेंट चढ़ गये जिसके चलते करोड़ोंकी कीमतकी वन सम्पदाएं स्वाहा हो गयी। दुर्लभ प्रजातियां, जड़ी बूटियां आगमें नष्टï हो गयी। पशु-पक्षी भी जलकर मर गये जो घटनाएं पहले दशकभरमें होती थी अब वह कुछ सालोंमें ही हो जाती हैं ऐसेमें नुकसानका अन्दाजा लगाना कठिन नहीं है। सरकारको चाहिए कि वनकर्मियोंको इससे निबटनेका प्रशिक्षण दे, आग लगनेके संवेदनशील क्षेत्रोंकी पहचान करे और लोगोंको भी यह जागरूक करे कि आगका उनके जीवनपर कितना बड़ा नुकसान है, ताकि मानव जनित घटनाएं कम हो सकें। हालांकि जंगलमें आगकी यह घटनाएं दुनियामें कहीं न कहीं देखनेको मिलती रहती हैं और सभीको इससे निबटनेके अपने उपाय खोजने होते हैं। जंगलमें आग अर्थव्यवस्थाको भी नाजुक करता है। वन संरक्षण अधिनियम १९८० और राष्टï्रीय वन नीति १९९८ को भी कहीं न कहीं चोट पहुंचाता है। ऐसेमें जरूरी है कि जंगलको आगसे बचाया जाये और इसके लिए ठोस रणनीति बनानेकी आवश्यकता है।