डा. भरत झुनझुनवाला
देशकी न्याय व्यवस्थाकी स्थिति अच्छी नहीं थी। हमारी यह दु:परिस्थिति तब थी जब कोरोनाके पहले हमारे न्यायालयोंमें लंबित वादोंकी संख्यामें विशेष वृद्धि नहीं हो रही थी। वर्ष २०१९ में १.१६ लाख वाद प्रतिमाह दायर किये गये थे जबकि १.१० लाख वाद प्रतिमाहमें निर्णय दिये गये। लंबित वादोंकी संख्यामें प्रति वर्ष केवल छह हजारकी वृद्धि हो रही थी। कोविडके समय अप्रैल २०२० में ८३ हजार नये वाद दायर किये गये, जबकि निर्णय केवल ३५ हजारका हुआ यानी ४८ हजार नये वाद लंबित रह गये। स्पष्ट है कि कोविडके समय हमारी न्याय व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गयी है। न्यायमें देरीका आर्थिक विकासपर कई प्रकारसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पहला यह कि तमाम पूंजी अनुत्पादक रह जाती है। जैसे मेरी जानकारीमें किसी फैक्टरीकी भूमिका विवाद था। हाईकोर्टमें उस विवादपर निर्णय आनेमें २५ वर्षका समय लग गया। इसके बाद जो पक्ष हारा उसने पुनर्विचार याचिका दायर कर दी। पुनर्विचार याचिकापर निर्णय आनेके बाद सुप्रीम कोर्टमें वाद दायर किया। ४० वर्षकी लंबी अवधिमें देशकी वह पूंजी अनुत्पादक बनी रही और देशके जीडीपीमें इसका योगदान नहीं हो सका। इसी क्रममें विश्व बैंकने अनुमान लगाया है कि न्यायमें देरीसे भारतकी जीडीपीमें ०.५ प्रतिशतकी गिरावट आती है जबकि इंस्टिट्यूट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पीसने अनुमान लगाया है कि आपराधिक मामलोंमें न्यायमें देरी होनेसे अपराधियोंमें हिंसा बढ़ती है और जिसके कारण हमारे जीडीपीमें नौ प्रतिशतकी गिरावट आती है। जब न्याय शीघ्र नहीं मिलता तो गलत कार्य करनेवालोंको बल मिलता है। जैसे यदि किसी किरायेदारको मकान खाली करना था और उसने नहीं किया। यदि मकान मालिक कोर्टमें गया और उस वादमें दस साल लग गये तो किरायेदारको कमरा न खाली करनेका प्रोत्साहन मिलता है। वह समझता है कि कोर्टसे निर्णय आनेमें बहुत देरी लग जायगी और तबतक वह गैर-कानूनी आनन्द मनाता रहेगा। न्यायमें देरीसे अपराधियोंका मनोबल बढ़ता है जिससे पुन: आर्थिक विकास प्रभावित होता है।
न्याय व्यवस्थाके खस्ता हालका एक परिणाम है कि अपने देशसे कमसे कम पांच हजार अमीर व्यक्ति हर वर्ष अपनी सम्पूर्ण पूंजीको लेकर पालायन कर रहे हैं। देशका सामाजिक वातावरण उनके लिए अनुकूल नहीं है चूंकि अपराधी निरंकुश हैं और इसका एक मुख्य कारण न्याय वयवस्थाकी दुरुस्थिति है। इस स्थितिमें सुप्रीम कोर्ट और सरकार द्वारा चार कदम उठाये जा सकते हैं। पहला कदम यह कि सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्टमें वर्तमानमें १०७९ पदोंमेंसे ४०३ यानी ३७ प्रतिशत पद रिक्त है। मेरी जानकारीमें इसका कारण मुख्यत: न्यायाधीशोंकी अकर्मण्यता अथवा आलस्य है क्योंकि वह पर्याप्त संख्यामें जजोंकी नियुक्तिके लिए प्रस्ताव सरकारको नहीं भेज रहे हैं। नियुक्तियोंमें भाई-भतीजा वाद भी सर्वविदित है। जजके पदपर जजोंके परिजनोंकी नियुक्ति अधिक संख्यामें होती है। संभव है कि मुख्य न्यायाधीशों द्वारा पर्याप्त संख्यामें नियुक्तिके प्रस्ताव न भेजनेका यह भी एक कारण हो। सुप्रीम कोर्टको इस दिशामें हाईकोर्टके मुख्य न्यायाधीशोंको सख्त आदेश देना चाहिए कि पद रिक्त होनेके तीन या छह महीने पहले ही पर्याप्त संख्यामें नियुक्तिकी संस्तुतियों भेज दी जानी चाहिए।
दूसरा कदम यह कि कोर्टके कार्य दिवस कि संख्यामें वृद्धि की जाये। एक गणनाके अनुसार सुप्रीम कोर्टमें एक वर्षमें १८९ दिनके कार्यदिवस होते हैं, हाईकोर्टमें २३२ दिनके और निचली अदालतोंमें २४४ दिन। इसकी तुलनामें सामान्य सरकारी कर्मचारीको लगभग २८० दिन कार्य करना होता है। देशके आम मजदूरको संभवत: ३४० दिन कार्य करना होता है। सेवित मजदूर ३४० दिन कार्य करे और उन्हें न्याय दिलानेके लिए नियुक्त न्यायाधीश केवल १८९ दिन कार्य करें, यह कैसा न्याय है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टके जज घरपर अवकाश ग्रहण करें और अपराधिक मामलोंमें निरपराध लोग जेलमें बंद रहे, यह कैसा न्याय है। मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्टको स्वत: संज्ञान लेकर अपने कार्य दिवसोंमें वृद्धि करनी चाहिए क्योंकि जनताको न्याय उपलब्ध करानेकी प्राथमिक जिम्मेदारी उन्हींकी है।
तीसरा कदम यह कि अनावश्यक तारीख न दी जाये। जजों और वकीलोंका एक अपवित्र गठबंधन बन गया है। अधिकतर वादोंमें वकीलों द्वारा हर सुनवाई कि अलग फीस ली जाती है इसलिए जितनी बार सुनवाई स्थगित हो और जितनी देरसे कोर्ट द्वारा निर्णय लिया जाय उतना ही वकीलोंके लिए हितकर होता है। अधिकतर वकील ही जज बनते हैं। अपनी बिरादरीके हितोंकी वे रक्षा करते है। एक वादमें हाईकोर्टने आदेश दिया कि छह माहमें वादका निस्तारण किया जाय। इसके बाद भी चार सालमें निर्णय आया। अब जिला जजके विरुद्ध क्या मुवक्किल हाईकोर्टमें मुकदमा करेगा। इस गठबंधनको तोडऩेके लिए सुप्रीम कोर्टको आदेश देना चाहिए कि किसी भी मामलेमें कोई वकील एक बारसे अधिक तारीख नहीं ले। इसकी मिसाल स्वयं सुप्रीम कोर्टको पेश करनी चाहिए।
चौथा कदम यह कि वर्चुअल हियरिंगको बढ़ावा दिया जाये। इससे दूर क्षेत्रोंमें स्थित वकीलोंके लिए मामलेकी पैरवी करना आसान हो जायेगा।हमारे कानूनमें किसी भी वादीको स्वयं अपने मामलेमें दलील देनेका अधिकार है।वर्चुअल हियरिंगके माध्यमसे वादी स्वयं अपने वादकी पैरवी आसानीसे कर सकता है। वर्चुअल हियरिंग वकीलों द्वारा विरोध किया जा रहा है जो कि उचित नहीं दिखता है। इतना सही है कि आजके दिन लगभग आधे वकीलोंके पास लैपटॉप नहीं होगा लेकिन कोविडकी स्थितिको देखते हुए और जनताको त्वरित न्याय उपलब्ध करानेकी उनकी जिम्मेदारीको देखते हुए उनके लिए लैपटॉपपर कार्य करनेको अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।