योगेश कुमार गोयल
पश्चिम बंगालमें ममता बनर्जीने ऐसा चमत्कार कर दिखाया है, जिसकी अधिकांश राजनीतिक पंडितोंने उम्मीदतक नहीं की थी। दरअसल विश्लेषकोंके अलावा भाजपा भी यही मानकर चल रही थी कि ममताके दस वर्षोंके शासनकालके दौरान लोगोंमें उनके प्रति नाराजगी है और राज्यमें सत्ताविरोधी लहर है लेकिन तृणमूलने चुनावमें जबरदस्त कांटेकी टक्कर दिखनेके बावजूद पिछली बारकी २११ सीटोंके मुकाबले इस बार २१३ सीटें जीतकर लगातार तीसरी बार धमाकेदार जीत दर्ज की है। २९४ सदस्यीय विधानसभाके लिए दो सीटोंपर चुनाव टल जानेके कारण कुल २९२ सीटोंपर ही मतदान हुआ था। ममता और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेसके लिए यह अबतकका बेहद कठिन चुनाव था लेकिन तीसरी बार भी रिकॉर्ड बहुमतसे चुनाव जीतकर ममताने भाजपाके सपनोंको चकनाचूर कर दिया। सही मायनोंमें उनकी यह जीत स्वयंको दुनियाकी सबसे बड़ी पार्टी कहनेवाली भाजपा और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीके लोकप्रिय व्यक्तित्वके खिलाफ बहुत बड़ी जीत है। भाजपाकी पराजयको पिछले विधानसभा चुनावोंके मुकाबले हालांकि उसकी बड़ी जीतके रूपमें प्रचारित किया जा रहा है। दरअसल पिछले विधानसभा चुनावमें भाजपा १०.३ फीसदी मतोंके साथ तीन सीटें ही जीत सकी थी लेकिन इस बार उसे करीब ३८ फीसदी मतोंके साथ ७७ सीटें हासिल हुई हैं लेकिन भाजपा कुछ महीनोंसे जिस प्रकार दो सौ से ज्यादा सीटोंके साथ सरकार बनानेका दावा कर रही थी, ऐसेमें यह चुनाव परिणाम उसकी करारी हार ही कहे जायंगे।
चुनावसे चंद महीने पहले ही जिस प्रकार तृणमूलसे कई दिग्गज नेता एक-एक कर भाजपाका दामन थामने लगे थे और भाजपा द्वारा इस राज्यको फतेह करनेके लिए जिस तरहका एड़ी-चोटीका जोर लगाया था, उसे देखते हुए कुछ राजनीतिक पंडित मानने भी लगे थे कि भाजपा पश्चिम बंगालसे तृणमूलको सत्तासे बेदखल कर सकती है लेकिन भाजपाका अति आत्मविश्वास ही उसे ले डूबा। उसने पश्चिम बंगालके मूल चरित्रको समझनेमें भारी भूल की। इसके अलावा पिछले साल कोरोना प्रकोप शुरू होनेके बादसे पहले ही अपनी आयका स्रोत गंवा चुके आमजन जिस प्रकार मोदी सरकारकी नीतियोंके कारण निरन्तर महंगी, बेरोजगारी, भुखमरीके शिकार हो रहे थे, वह भी भाजपाकी उम्मीदोंपर बहुत भारी पड़ा। काम-धंधे ठप हो जानेकी वजहसे पहले ही त्राहि-त्राहि कर रही जनतापर जिस तरीकेसे केन्द्र सरकार लगातार पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस जैसी जनसाधारणसे जुड़ी महत्वपूर्ण चीजोंके दाम बढ़ाकर अपने खजाने भरनेमें जुटी थी, उसने आम जनताके जख्मोंपर मरहम लगानेके बजाय उन्हें कुरेदनेका ही काम किया। प्रधान मंत्री जैसे शीर्ष संवैधानिक पदपर विराजमान नरेन्द्र मोदी सहित तमाम शीर्ष भााजपाई नेताओं द्वारा ममता बनर्जीके लिए हर छोटी-बड़ी सभामें ‘दीदी ओ दीदीÓ जैसा संबोधन और कोरोना कालमें भी लाखोंकी भीड़ जुटाकर क्रूर और स्तरहीन आक्रामक प्रचार बंगालकी जनताको रास नहीं आया। भाजपाके जय श्रीरामके प्रत्युत्तरमें ममताने चंडी पाठ किया और बंगला विरूद्ध बाहरीका नारा देकर मतोंके धु्रवीकरणको अपने पक्षमें करनेमें कामयाब रही।
भाजपाके पास प्रदेशमें स्थानीय स्तरपर ममता बनर्जी जैसी धाकड़ नेताके कदका मुकाबला करनेके लिए कोई दमदार चेहरा नहीं था। स्थानीय चेहरेकी कमीके अलावा तृणमूलको तोड़कर भाजपाको तृणमूलकी ही दूसरी टीम बनाना भी भाजपाके लिए नुकसानदायक साबित हुआ क्योंकि इससे यही संदेश गया कि भाजपाके पास सशक्त नेताओंकी कमी है, इसीलिए वह दूसरे दलोंसे उनके बड़े नेताओंको तोड़ रही है। चुनावसे ठीक पहले पाला बदलनेवाले शुभेंदु अधिकारी सहित ऐसे ही कुछ दिग्गज नेता भी भाजपाकी नैया पार लगानेमें मददगार साबित नहीं हो सके। एक ओर जहां ममता अपने पैरमें चढ़े प्लास्टर े जरिये मतदाताओंकी सहानुभूतिको वोटोंमें तब्दील करनेमें सफल रहीं, वहीं राज्यकी महिला मतदाताओंको यह समझानेमें भी काफी हदतक सफल रही कि उनकी महिला मुख्य मंत्रीको भाजपाके शीर्ष नेताओं द्वारा आपत्तिजनक टिप्पणियां कर निशाना बनाया जा रहा है। जहां प्रधान मंत्री, स्वराष्टï्रमंत्री, भाजपाध्यक्ष सहित भाजपाके कई मंत्री, मुख्य मंत्री पश्चिम बंगालमें ताबड़तोड़ हवाई दौरे कर बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड शो करते रहे, वहीं ममताने पूरे चुनावमें ह्वïीलचेयरके जरिये प्रचार करते हुए जमकर सहानुभूति बटोरी। राज्यमें करीब २६ फीसदी मुस्लिम वोट हैं और तृणमूलको करीब ४८ फीसदी वोट मिले हैं यानी तमाम मुस्लिम वोट तृणमूलकी झोलीमें गये हैं तो भी करीब २२ फीसदी हिन्दुओंने भी तृणमूलके साथ जाना पसंद किया।
२०१९ के लोकसभा चुनावमें भाजपाको ४०.३ फीसदी वोट मिले थे लेकिन तूफानी प्रचार और सारी ताकत पश्चिम बंगालमें झोंकनेके बाद भी इस बार उसका मत प्रतिशत थोड़ा नीचे गिरकर ३८.१३ फीसदी रहा और वह उतनी सीटोंपर भी नहीं जीत सकी, जितनी विधानससभा सीटोंपर उसे लोकसभा चुनावमें बढ़त मिली थी। एक ओर जहां पश्चिम बंगालमें भाजपाकी ताकत पिछले विधानसभा चुनावके मुकाबले बढ़ी है, वहीं तृणमूलकी ताकतमें भी काफी वृद्धि हुई है लेकिन इसीके साथ वाम दलों और कांग्रेसकी स्थिति काफी बदतर हो गयी है। तृणमूलको २०११ के विधानसभा चुनावमें ३८.९ और २०१६ में ४५.६ फीसदी मत हासिल हुए थे। हालांकि २०१९ के लोकसभा चुनावमें २.३ फीसदीके नुकसानके साथ उसे ४३.३ फीसदी मत मिले थे लेकिन अब वह ४७.९४ फीसदी मत बटोरकर रिकॉर्ड बहुमतके साथ लगातार तीसरी बार सत्तामें लौटी है। यदि वामदलोंकी बात करें तो उन्हें २०११ में ४१.१, २०१४ में २९.९, २०१६ में २६.६ तथा २०१९ के लोकसभा चुनावोंमें महज ७.५ फीसदी मत हासिल हुए थे लेकिन अब वह महज पांच फीसदी मतोंपर सिमट गये हैं। कांग्रेसको २०११ में ९.१, २०१४ में ९.७, २०१६ में १२.४ तथा २०१९ में ५.६ फीसदी मत मिले थे किन्तु अब वह करीब तीन फीसदी मत ही प्राप्त कर सकी है। चुनाव परिणामोंके विश्लेषणसे स्पष्ट है कि बंगालकी जनता प्रदेशमें सिर्फ दो विचारधाराको ही जीवित रखना चाहती है और संभवत: इसीलिए उसने तीन दशकोंतक पश्चिम बंगालमें सत्तासीन रहे वामदलोंके अलावा कांग्रेसको भी लगभग नकार दिया है।
फिलहाल ममता भाजपाके हिन्दुत्वके खिलाफ सही मायनोंमें बंगाली उपराष्ट्रवादको भुनानेमें सफल रही। दरअसल माना जाता है कि बंगाली लोग बाकी सब कुछ सहन कर सकते हैं लेकिन अपनी संस्कृति और अस्मितापर वार नहीं और बंगाली संस्कृति तथा अस्मितापर प्रहारके नामपर बंगाली मतदाता तृणमूलकी तरफ एकजुट हुए। पश्चिम बंगालमें तीसरी पारी खेलने जा रही ममता हालांकि प्रतिपक्षका राष्ट्रीय चेहरा बनकर उभरी हैं और संभव है कि देशभरमें उन्हें अब संयुक्त विपक्षके मुखर स्वरके रूपमें भी देखा जाने लगे लेकिन इस संभावनाको भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उनके लिए राज्यमें भाजपाकी बढ़ती ताकतके चलते आनेवाले समयमें चुनौतियां भी बहुत बढऩेवाली हैं। दूसरी ओर दो सौ पारका नारा देकर बेहद आक्रामक, धारदार और उत्तेजक तरीकेसे चुनाव लडऩेवाली भाजपाके लिए ८० से भी कम सीटोंपर सिमटना उसकी महत्वाकांक्षाओंको बड़ा झटका है क्योंकि यह उसके लिए आनेवाले दिनोंमें कई मुश्किलें पैदा कर सकता है। कयास लगाये जा रहे थे कि पश्चिम बंगाल जीतनेके बाद भाजपा छह महीनोंसे चल रहे किसान आन्दोलनको कुचलनेमें देर नहीं लगायगी लेकिन इस हारके बाद इस आन्दोलनको कुचलना अब भाजपाके लिए आसान नहीं होगा। कुल मिलाकर पश्चिम बंगालके चुनावी नतीजे भाजपाके लिए बहुत बड़ा सबक हैं। उसे इन नतीजोंसे सबक लेना चाहिए और अपनी चुनावी रणनीति बदलते हुए उसे सोचके इस दायरेसे बाहर निकलना होगा कि केवल केन्द्रीय ताकतके बलपर ही क्षेत्रीय दलोंको हराया जा सकता है। मौजूदा चुनावी नतीजोंसे सबक लेते हुए उसे केवल राष्ट्रवाद जैसे मुद्दोंके सहारे लोगोंका पेट भरनेकी कोशिशोंके बजाय जमीनी धरातलपर देशकी जनताके लिए यथार्थमें कुछ करके दिखाना होगा।