सम्पादकीय

धर्मकी महत्ता 


श्रीराम शर्मा

स्वार्थ और अहंकारसे मुक्त होकर औरोंके लिए जो कष्ट उठाया जाता है, वही सच्चा धर्म है। धर्म है औरोंके लिए, राष्ट्र, विश्व, स्वयंका उत्सर्ग। यह प्रक्रिया अत्यंत कष्टदायी अवश्य है, परन्तु इसीमें सुख, शांति एवं संतोष मिलता है। ऐसेमें धर्म कष्टों अथवा संकटोंसे घिरा अवश्य होता है, धर्मके पालनसे कठिनाई अवश्य होती है, परंतु अंतत: धर्मकी ही जीत होती है और धर्मपालनका परिणाम अत्यंत श्रेष्ठ एवं संतोषदायक होता है। समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति दूसरोंको कष्ट दे सकता है और कष्ट देनेमें उसे कोई अतिरिक्त चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती। सबल निर्बलको सता सकता है और सताता भी है। अपनी सामथ्र्य और संपदाका उपयोग और उपभोग तो सभी करते हैं। अपने सुखको प्राथमिकता देना सामान्य बात हो सकती है। स्वयंके लिए तो सभी जीते हैं, परंतु यह सभी मानदंड और मापदंड, ईश्वरके श्रेष्ठ राजकुमार इनसानके लिए सही ठहराये नहीं जा सकते हैं। ऐसी प्रकृति और प्रवृत्ति तो मानवेत्तर प्राणियोंमें भी पायी जाती है फिर मानव और मानवेत्तर प्राणियोंमें फर्क क्या है। यह अंत धर्म ही है, जो मनुष्यको अन्य योनियोंसे अलग खड़ा करता है, विशिष्ट और विशेष बनाता है और इसे प्रकृतिका सर्वोत्तम एवं श्रेष्ठ प्राणी बनानेमें विशिष्ट भूमिका अदा करता है। धर्म उस साहसका नाम है, जो यह प्रतिपादित कर सके कि कितनी भी विभिन्न एवं विपरीत परिस्थितियां आयें, कैसा भी कष्ट मिले और किसी भी तरहकी कठिनाइयोंका क्यों न सामना करना पड़े, हम सही एवं शाश्वत पथका सदा अनुसरण करेंगे। धर्म होगा तो साहस होगा और साहस होगा तो प्रस्तुत चुनौतियोंसे डटकर मुकाबला होगा, प्राणपणसे उनका सामना किया जायगा। साहस होगा तो इस धर्मसे कभी भी कदम वापस नहीं खींचे जा सकेंगे, चाहे इसके लिए कितनी भी और कैसी भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। जो डरपोक होते हैं, वह कभी भी धर्मके साथ खड़े नहीं हो सकते। ऐसे लोगोंपर जब भी विपरीत परिस्थितियां आती हैं और जरा-सी भी कठिनाइयां सिर उठाती हैं तो यह सिहर उठते हैं, स्वयंको बचानेके लिए भागते-फिरते हैं। चाहे बाहरी रूपोंमें कितने भी धर्मावलंबी क्यों न दिखते हों। धर्मके प्रतीकोंको केवल दिखानेके लिए ओढ़ कर कोई धार्मिक तो दिख सकता है, परंतु धार्मिक हो नहीं सकता। तिलक, गलेमें कंठीमाला, विशेष प्रकारके वस्त्र धारण कर कोई भी धार्मिक होनेका ढोंग तो कर सकता है, परन्तु धार्मिक हो नहीं जाता। धर्म तो औरोंके लिए स्वयंको मिटा देनेका नाम है, धर्मका सच्चा प्रतीक एक दीपक है, जो स्वयंको तिल-तिल जलाकर अंततक प्रकाशकी किरणें बिखेरता है। वह स्वयं जल जाता है, लेकिन इस जलनसे उफतक नहीं करता है, बल्कि मुस्कराते हुए ज्योति बिखेरते हुए स्वयंको उत्सर्ग कर देता है।