सम्पादकीय

भ्रामक इतिहासको सुधारनेकी पहल


अरविंद जयतिलक

यह स्वागतयोग्य है कि शिक्षा मंत्रालयसे जुड़ी संसदकी स्थायी समितिने शिक्षण संस्थाओंमें पढ़ाये जा रहे भ्रामक एवं गैर-ऐतिहासिक तथ्योंको हटाकर इतिहासको संवारने-सहेजनेका मन बना लिया है। इस पहलसे देशकी नयी पीढ़ीको सही और तथ्यात्मक इतिहास पढऩेका मौका मिलेगा तथा साथ ही देशकी महान विभुतियोंके बारेमें गढ़े-बुने गये भ्रामक तथ्योंको दुरुस्त कर सही तथ्यों एवं घटनाओंको पाठ्यक्रममें शामिल करनेमें मदद मिलेगी। समितिका स्पष्ट मानना है कि पाठ्यक्रमका विषय-वस्तु एकपक्षीय न होकर पूरी तरह तथ्यपरक होनी चाहिए। विचार करें तो मौजूदा समयमें शिक्षण-संस्थओंमें जो इतिहासका पाठ्यक्रम शामिल है उनमेंसे अधिकांश तथ्यहीन, आधारहीन और कपोल-कल्पित हैं। इतिहासके कालखंडको लेकर भी स्पष्ट प्रमाणिकताका सर्वथा अभाव है। गौर करें तो मौजूदा समयमें जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है उसमें प्राचीन और आधुनिक इतिहासका हिस्सा कम है जबकि मध्यकालीन इतिहास विशेष रूपसे मुगल और दूसरे आक्रांता शासकोंका हिस्सा ज्यादा है। गार्गी, मैत्रेयी जैसी महान विदुषियोंका उल्लेखतक नहीं है। दूसरी ओर रानी लक्ष्मीबाई, रानी चन्नमा, झलकारी बाई जैसी महान ऐहितहासिक महिला नायकोंको पाठ्यक्रममें उचित स्थान नहीं मिला है। यह स्थिति विकृत इतिहास लेखनको ही रेखांकित करता है।

अच्छी बात है कि शिक्षा मंत्रालयसे जुड़ी संसदकी स्थायी समितिने लोकतांत्रिक रुख अख्तियार करते हुए स्कूली पाठ्यक्रमके तथ्यों एवं रूपरेखाको सहेजन एवं सुधारनेके लिए देशभरके शिक्षाविदों और छात्रोंसे सुझाव आमंत्रित किये हैं। महान लेखक और राजनीतिज्ञ सिसरोने इतिहासके बारेमें कहा था कि इतिहास समयके व्यतीत होनेका साक्षी होता है। वह वास्तविकताओंको रोशन करता है और स्मृतियोंको जिंदा रखता है। प्राचीन कालकी खबरोंके जरिये भविष्यका मार्गदर्शन करता है। लेकिन जब भी पूर्वाग्रह होकर इतिहासका लेखन किया जाता है उसमें विजितकी संस्कृति, सभ्यता और गरिमापूर्ण इतिहासके साथ छल होता है। अंग्रेज और भारतके माक्र्सवादी इतिहासकार भी इसके अपवाद नहीं रहे हैं। उनका सदैव प्रयास रहा है कि भारतीयोंको ऐसा इतिहास दिया जाय जिससे उनमें अपने प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, आदर्श और मूल्योंके प्रति नैराश्य और घृणाका भाव उत्पन हो। संभवत: इसी उद्देश्यसे भारतीय इतिहास एवं संस्कृतिकी गौरव-गाथाको तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया गया। हालांकि आजादीके बाद देशके प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसादके प्रयाससे शिक्षा मंत्रालय द्वारा भारतीय इतिहासको सुधारनेकी दृष्टिसे एक कमेटी आहुत की गयी। लेकिन चूंकि कमेटीमें अधिकांश सदस्य मैकालेके ही मानस पुत्र थे लिहाजा उनका इतिहास सुधारनेका प्रयास निष्फल साबित हुआ।

आज देश जानना चाहता है कि औपनिवेशिक गुलामी और शोषणके विरुद्ध आवाज बुलंद करनेवाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह किस तरह क्रांतिकारी आतंकवादी थे और इतिहासका यह विकृतिकरण किस तरह विद्यार्थियोंके लिए पठनीय है। याद होगा गत वर्ष पहले देशके जाने-माने इतिहासकार विपिन चंद्रा और मृदुला मुखर्जीकी किताबमें शहीद भगत सिंहको कथित रूपसे क्रांतिकारी आतंकवादी उद्घृत किया गया था जो न सिर्फ एक महान क्रांतिकारीका अपमानभर है, बल्कि विकृत इतिहास लेखनकी परम्पराका एक शर्मनाक बानगी भी है। कोई भी इतिहासकार या विचारक अपने युगकी उपज होता है। उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी लेखनीसे कालखंडकी सचाईको ईमानदारीसे दुनियाके सामने रखे। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंग्रेज और माक्र्सवादी इतिहासकार भारतीय इतिहास लेखनकी मूल चेतनाको नष्ट किया और भारतीय इतिहासके सचकी हत्या की। यदि भारतीय चेतना एवं मानसको समझकर चैतन्यके प्रकाशमें इतिहास लिखा गया होता तो आज भगत सिंहको क्रांतिकारी आतंकवादी, शिवाजीको पहाड़ी चूहिया और चंद्रगुप्त मौर्यकी सेनाको डाकुओंका गिरोह नहीं कहा जाता। सच यह भी है कि अंग्रेज और माक्र्सवादी इतिहासकारोंने इतिहासके सचको सामने लानेके बजाय अनगिनत मनगढ़न्त निष्कर्ष पैदा किये। उसकी कुछ बानगी इस तरह है-रामायण, महाभारत तथा अन्य प्राचीन भारतीय गं्रथ मिथ हैं। प्राचीन भारतीय पौराणिक साहित्यमें वर्णित राजवंशावलियां तथा राजाओंकी शासन अवधियां अतिरंजित होनेसे अप्रमाणिक एवं अविश्वसनीय हैं। प्राचीन भारतीय विद्वानोंमें ऐतिहासिक लेखन क्षमताका अभाव रहा। भारतके प्राचीन विद्वानोंके पास कालगणनाकी कोई निश्चित तथा ठोस विधा कभी नहीं रही। भारतका शासन समग्र रूपमें एक केंद्रीय सत्ताके अधीन अंग्रेजी शासनसे आनेसे पूर्व कभी नहीं रहा। आर्योंने भारतमें बाहरसे आकर यहांके पूर्व निवासियोंको युद्धोंमें हराकर अपना राज्य स्थापित किया और हारे हुए लोगोंको अपना दास बनाया। भारतके इतिहासकी सही तिथियां भारतसे नहीं विदेशोंसे मिली। भारतमें विशुद्ध इतिहास अध्ययनके लिए सामग्रियां बहुत कम मात्रामें सुलभ रही। भारतके इतिहासकी प्राचीनतम सीमा २५००-३००० ईसा पूर्वतक रही। भारतके मूल निवासी द्रविड़ हैं। यूरोपवासी आर्यवंशी हैं। सरस्वती नदीका अस्तित्व नहीं है। इस तरहके और भी अन्य-अनेक मनगढ़न्त कपोल-कल्पित विचारोंको आकार देकर उन्होंने भारतके इतिहास एवं साहित्यको नकारनेकी कोशिश की। दरअसल इस खेलके पीछेका मकसद भारतीयोंमें हीनताकी भावना पैदा करना था।

गौर करें तो विलियम कैरे, अलेक्जेंडर डफ, जॉन मुअर, और चाल्र्स ग्रांट जैसे इतिहासकारोंने भारतके इतिहासको अंधकारग्रस्त और हिंदू धर्मको पाखंड और झूठका पर्याय कहा। भारतमें अंग्रेजी शिक्षाके जनक और ईसाई धर्मको बढ़ावा देनेवाले मैकालेने तो यहांतक कहा कि भारत और अरबके संपूर्ण साहित्यका मुकाबला करनेके लिए एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालयकी एक आलमारी ही काफी है। १८३४ में भारतके शिक्षा प्रमुख बने लार्ड मैकालेने भारतीयोंको शिक्षा देनेके लिए बनायी अपनी नीतिके संदर्भमें अपने पिताको एक पत्र लिखा जिसमें कहा कि मेरी बनायी शिक्षा पद्धतिसे भारतमें यदि शिक्षा क्रम चलता रहा तो आगामी ३० वर्षोंमें एक भी आस्थावान हिंदू नहीं बचेगा या तो वह ईसाई बन जायंगे या नाम मात्रके हिंदू रह जायंगे। समझा जा सकता है कि इतिहास लेखनकी आड़में अंग्रेजी इतिहासकारोंके मनमें क्या चल रहा था। गौर करें तो इन डेढ़ सौ सालोंमें इतिहास लेखनकी मुख्यत: चार विचारधाराओंका प्रादुर्भाव हुआ-साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी, माक्र्सवादी और सबलटर्न। साम्राज्यादी इतिहासकारोंकी जमात भारतमें आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाके रूपमें कभी भी उपनिवेशवादके स्वरूपको स्वीकार नहीं की। उनका इतिहास लेखन और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलनका विश्लेषण मूलत: भारतीय जनता और उपनिवेशवादके आपसी हितोंके आधारभूत अंतरविरोधोंके अस्वीकार्यतापर टिका है।

इतिहासकारोंका यह खेमा कतई माननेको तैयार नहीं कि भारत राष्ट्र बननेकी प्रक्रियामें था। उनके मुताबिक जिसे भारत कहा जाता है, वह वास्तवमें विभिन्न धर्मों, समुदायों और जातियोंके अलग-अलग हितोंका समुच्चय था। दूसरी ओर राष्ट्रवादी इतिहास लेखनकी जमातमें शामिल इतिहासकारोंने राष्ट्रीय आंदोलनमें जनताकी भागीदारीको प्रभावकारी माना। माक्र्सवादी इतिहास लेखनकी धारा भारतीय राष्ट्रवादके वर्गीय चरित्रका विश्लेषण और उसकी व्याख्या उपनिवेश कालके आर्थिक विकासक्रमोंके आधारपर करनेकी कोशिश कर भारतीय इतिहासके गौरवपूर्ण कालखंडको मलीन करनेकी कोशिश की। इन इतिहासकारोंने राष्ट्रवादकी प्रबल भावनाको नजरअंदाज करते हुए एक साजिशके तहत भारतीय समाजको ही वर्गीय खांचेमें फिट कर दिया। भारतके लिए आघातकारी रहा कि आजादीके उपरांत इतिहास लेखनकी जिम्मेदारी माक्र्सवादी इतिहासकारोंको सौंपी गयी और वह ब्रिटिश इतिहासकारोंके कपटपूर्ण आभामंडलकी परिधिसे बाहर नहीं निकल सके। उन्होंने अंग्रेजोंकी तरह ही भारतीय इतिहासकी एकांगी व्याख्या कर भारतीय संस्कृतिको नीचा दिखानेकी कोशिश की। अंग्रेजोंकी तरह उनकी भी दिलचस्पी भारत े राष्ट्रीय गौरवको खत्म करनेकी रही। आज आधुनिक भारतका पूरा इतिहास लेखन ही माक्र्सवादी इतिहास लेखन है। यह उचित है कि शिक्षा मंत्रालयसे जुड़ी संसदकी स्थायी समितिने इतिहासमें व्याप्त भ्रामक तथ्यों, कपोल-कल्पित तथ्यों एवं आधारहीन घटनाओंको हटाने और कालखंडोंको सही क्रममें संवारनेका मन बना लिया है।