सम्पादकीय

मानवताका मूल तत्व है पर्यावरण


अमिता सिंह

जल, जंगल, जमीन है तो पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत है। पारिस्थितिकी तंत्रकी बहाली जल, जंगल, जमीन तीनोंको संरक्षित करनेसे ही होगी। लोगोंको पर्यावरणकी सुरक्षाके प्रति जागरूक करने और सचेत करनेकी आवश्यकता है।

इस बार विश्व पर्यावरण दिवस २०२१ का प्रसंग है पारिस्थितिकी तंत्रकी बहाली (इकोसिस्टम री-स्टोरेशन)। पारिस्थितिकी तंत्रकी बहाली कई रूपमें हो सकती है। प्रकृतिके समीप होनेका सुख अविस्मरणीय है। अपने आसपास छोटे पौधें या बड़े वृक्ष लगायें। धरतीकी हरियालीको बढ़ानेके लिए कृतसंकल्प हों। प्रत्येक त्योहार या पर्वपर पेड़ लगाकर उन यादोंको चिरस्थायी बनायें। सड़कें या घर बनाते समय यथासंभव वृक्षोंको बचायें। अपने घर-आंगनमें थोड़ी-सी जगह पेड़-पौधोंके लिए रखें। यह हरियाली देंगे, तापमान कम करेंगे, पानीका प्रबंधन करेंगे एवं सुकूनसे जीवनमें सुख एवं प्रसन्नताका अहसास करायंगे। पानीका संरक्षण करें, हर बूंदको बचायें। इस पृथ्वीपर मात्र आपका ही नहीं, मूक पशु-पक्षियोंका भी अधिकार है। घरका कचरा सब्जी, फल, अनाजको पशुओंको खिलायें। अन्नका दुरुपयोग न करें। बचा खाना खराब होनेसे पहले गरीबोंमें बांटे। पर्यावरणको दूषित होनेसे बचायें। पृथ्वी हरी-भरी होगी तो पर्यावरण स्वस्थ होगा, पानीकी प्रचुरतासे जीवन सही अर्थोंमें समृद्ध एवं सुखद होगा। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरेपर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिन्तनमें पर्यावरण संरक्षणकी अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना यहां मानव जातिका ज्ञात इतिहास है। हिन्दू संस्कृतिमें प्रत्येक जीवके कल्याणका भाव है।

हिन्दू धर्मके जितने भी त्योहार हैं, वह सब प्रकृतिके अनुरूप हैं। मकर संक्रान्तिसे लेकर गंगा दशहरा आदि सब पर्वोंमें प्रकृति संरक्षणका पुण्य स्मरण है। मानव, विकासके नामपर जल-जंगल और जमीन तीनोंसे धोखा कर रहा है। नतीजतन आज पर्यावरण मानवके साथ बदला ले रहा है। भौतिक विज्ञानमें न्यूटनका गतिका तृतीय नियम कहता है कि हर क्रियाकी समान और विपरीत क्रिया होती है। अतएव मानवको कोई भी कार्य करनेसे पहले उसके परिणामके बारेमें सोच लेना चाहिए। पर्यावरण और मानव एक-दूसरेके पूरक हैं। पर्यावरणका सीधा सम्बन्ध प्रकृतिसे है। प्राकृतिक हवा, पानी, जानवर, जीव, वनस्पति और हमारे आसपासके लोग वह सबकुछ जो प्रकृति प्रदत्त है वह ही पर्यावरणका निर्माण करते हैं। पर्यावरण दो शब्दोंसे मिलकर बना है, परि-आवरण। परिका अर्थ है-चारों ओर एवं आवरणका अर्थ है-ढकने वाला। इस प्रकार पर्यावरण या वातावरण वह वस्तु है जो चारों ओरसे ढके हुए है। प्रकृतिने पर्वत, नदियां, पेड़, प्राणी आदि दिया है। प्रकृतिसे ही जल-थल और नभका निर्माण हुआ है। यह सब प्रकृतिकी ही देन है। कहनेका तात्पर्य पर्यावरणकी उत्पत्ति प्रकृतिसे ही है। प्रकृतिमें पूरा ब्रह्मïाण्ड समाया है। इस ब्रह्मïांडमें अनेक ग्रह और नक्षत्र हैं जिनमें हमारी पृथ्वी भी एक ग्रह है। हमारे सौरमंडलमें मानव जीवन संभवत: पृथ्वीपर ही है। जीवात्माको प्रकृतिसे ही जीवन मिलता है। प्रकृति जीवन देती है। प्रकृति प्रेम देती है। प्रकृति सुख देती है। प्रकृति, पारिस्थितिकी तंत्रको संतुलन प्रदान करती है। जल, जंगल और जमीन जबतक है तबतक मानवका विकास होता रहेगा। इसे संरक्षित करनेके लिए मनका शुद्ध होना बहुत जरूरी है। मन आतंरिक पर्यावरणका हिस्सा है। जल, जंगल और जमीन बाहरी पर्यावरणका हिस्सा है। हर धर्मने माना प्राकृतिक विनाशसे विकास संभव नहीं है। वैदिक संस्कृतिका प्रकृतिसे अटूट सम्बन्ध है। वैदिक संस्कृतिका सम्पूर्ण क्रियाकलाप प्राकृतसे पूर्णत:आवद्ध है। वेदोंमें प्रकृति संरक्षण अर्थात्ï पर्यावरणसे सम्बंधित अनेक सूक्त हैं। वेदोंमें दो प्रकारके पर्यावरणको शुद्ध रखनेपर बल दिया गया है-आन्तरिक एवं बाह्य। सभी स्थूल वस्तुएं बाह्य एवं शरीरके अन्दर व्याप्त सूक्ष्म तत्व जैसे मन एवं आत्मा आन्तरिक पर्यावरणका हिस्सा है। आधुनिक पर्यावरण विज्ञान केवल बाह्य पर्यावरण शुद्धिपर केन्द्रित है। वेद आन्तरिक पर्यावरण जैसे मन एवं आत्माकी शुद्धिसे पर्यावरणकी अवधारणाको स्पष्ट करता है। बाह्य पर्यावरणमें घटित होनेवाली सभी घटनाएं मनमें घटित होनेवाले विचारका ही प्रतिफल हैं। भगवद्गीतामें मनको अत्यधिक चंचल कहा गया है-चंचलं ही मन: ड्डष्ण। बाह्य एवं आन्तरिक पर्यावरण एक-दूसरेके अनुपाती हैं। जितना अधिक आन्तरिक पर्यावरण विशेषतया मन शुद्ध होगा, बाह्य पर्यावरण उतना अधिक शुद्ध होता चला जायेगा।

वेदोंके अनुसार बाह्य पर्यावरणकी शुद्धि हेतु मनकी शुद्धि प्रथम सोपान है। इन तत्वोंमें किसी भी प्रकारके असंतुलनका परिणमा ही सुनामी, ग्लोबल वार्मिंग, भूस्खल, भूकम्प आदि प्राकृतिक आपदाएं हैं वेदोंमें प्रकृतिके प्रत्येक घटकको दिव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। प्रथम वेद ऋग्वेदका प्रथम मन्त्र ही अग्निको समर्पित है, ú अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। ऋतं ब्रह्मïांडका सार्वभौमिक नियम है। इसे ही प्रकृतिका नियम कहा जाता है। ऋग्वेदके अनुसार सत्येनोत्तभिता भूमि: सूर्येणोत्तभिता द्यौ: त्रृतेनादित्यास्तिठन्ति दिवि सोमो अधिश्रित: ऋग्वेद भावार्थ देवता भी ऋतंकी ही उत्पति हैं एवं ऋतंके नियमसे बंधे हुए हैं। यह सूर्यको आकाशमें स्थित रखता है। वेदोंमें वरुणको ऋतंका देवता कहा गया है। वैसे तो वरुण, जल एवं समुद्रके वेता (वरुणस्य गोप:) के रूपमें जाना जाता है परन्तु मुख्यतया इसका प्रमुख कार्य इस ब्रह्मïांडको सुचारूपूर्वक चलाना है। ऋग्वेदमें वनस्पतियोंसे पूर्ण वनदेवीकी पूजा की गयी है- आजनगन्धिं सुरभि बहवन्नामड्डषीवलाम् प्राहं मृगाणां मातररमण्याभिशंसिषम्। अथात्ï अब मैं वनदेवीकी पूजा करता हूं जो कि मधुर सुगन्धसे परिपूर्ण है और सभी वनस्पतियोंकी मां है और बिना परिश्रम किये हुए भोजनका भण्डार है। छान्दोग्यउपनिषद्में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतुसे आत्माका वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मासे ओतप्रोत होते हैं और मनुष्योंकी भांति सुख-दु:खकी अनुभूति करते हैं। हिन्दू दर्शनमें एक वृक्षकी मनुष्यके दस पुत्रोंसे तुलना की गयी है। दशकूप समावापी: दशवापी समोहृद:। दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:॥ तुलसीका पौधा मनुष्यको सबसे अधिक प्राणवायु आक्सीजन देता है। तुलसीके पौधेमें अनेक औषधीय गुण भी मौजूद हैं। पीपलको देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रामें आक्सीजन देता है। कोरोना महामारीकी दूसरी लहरमें मानवको आक्सीजनकी कीमतका पता चला। कोई भी महामारी तभी आक्रामक होती है जब पर्यावरण असंतुलित होता है। प्रकृति प्रदत्त चीजोंके साथ खिलवाड़ करके भौतिक विकास करना आसान है परन्तु मानवके जीनेकी उम्रको बढ़ा पाना असंभव है। शरीर पांच तत्वोंसे मिलकर बना है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। यही पांच तत्व पर्यावरणके मूलभूत आधार हैं। पर्यावरण हमारे जीवनका मूल आधार है। मानव जीवनको जीवंतता देनेमें इन्ही पांच तत्वोंकी अहम् भूमिका है। अतएव हम कह सकते हैं कि पर्यावरण मानव विकासका मूल तत्व है।