सम्पादकीय

लाइलाज महामारी प्राकृतिक असंतुलन


 ऋतुपर्ण दवे    

प्रकृतिपर कब किसका जोर रहा है। न प्रकृतिके बिगड़े मिजाजको कोई काबू कर सका और न ही फिलहाल मनुष्यके वशमें दिखता है। हां, इतना जरूर है कि अपनी हरकतोंसे प्रकृतिको हमारे द्वारा लगातार नाराज जरूर किया जा रहा है जिसपर प्रकृतिका विरोध भी लगातार दिख रहा है। लेकिन बावजूद इसके हम हैं कि मानते नहीं। न पर्यावरण विरोधी गतिविधियोंको कम करते हैं और न ही प्राकृतिक संसाधनोंके अंधाधुंध दोहनको ही रोक पाते हैं। प्रकृति और मनुष्यके बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। जहां प्रकृतिकी नेमतमें लगातार कमी आ रही है वहीं लगता नहीं कि उसका अभिशाप भी खूब रंग दिखा है। नतीजा सामने है गर्मियोंमें बरसात, बरसातमें गर्मी और ठंडमें पसीनेके अहसासके बावजूद हमारा नहीं चेतना एक बड़ी लापरवाही, बल्कि आपदाको खुद न्यौता देने जैसा है।  सच तो यह है कि प्रकृतिकी अपनी प्राकृतिक वातानुकूलन प्रणाली है जो बुरी तरहसे प्रभावित हो चुकी है, नतीजन हालिया और बीते कुछ दशकोंमें मानसूनका बिगड़ा मिजाज सामने है। जब जरूरत नहीं थी तब इसी जूनमें झमाझम बारिश हुई। अब जरूरतके वक्त कई जगह सूखा तो कहीं बाढ़के विकराल हालात बन चुके हैं। यानी प्रकृतिका खुदका संतुलन बुरी तरहसे बिगड़ चुका है।

संयुक्त राष्ट्रकी एक रिपोर्टके अनुसार तापमानमें वृद्धिके कारण विश्व स्तरपर पानीकी कमी और सूखेका प्रकोप तेजीसे बढ़ रहा है। यह दोनों ही मानवताको बड़े स्तरपर नुकसान पहुंचानेके लिए तैयारसे मुंह बाएं खड़े हैं। आंकड़े बताते हैं कि १९९८ से २०१७ के बीच बिगड़ैल मानसूनसे १२४ अरब डालरका आर्थिक नुकसान हो चुका है और करीब डेढ़ अरब लोग भी प्रभावित हुए हैं। एक अन्य भारतीय शोधसे भी पता चलता है कि हिमालय और काकोरममें ग्लोबल वार्मिंगका असर साफ दिखने लगा है। ग्लेशियर पिघलनेसे बाढ़ और रोजगार दोनोंपर ही खतरा सामने है। पहले जूनमें पिघलनेवाले ग्लेशियर अब अप्रैलमें ही पिघलने लगे हैं। गर्मीसे टूट रहे ग्लेशियरोंसे लगभग सौ करोड़ लोगोंके सामने खतरे जैसे हालात दिखने लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघका ही पूर्वानुमान है कि ज्यादातर अफ्रीका फिर मध्य और दक्षिण अमेरिका, मध्य एशिया, दक्षिणी आस्ट्रेलिया, दक्षिणी यूरोप, मेक्सिको और शेष अमेरिकामें लगातार और गंभीर सूखा पड़ेगा। अभी जो हालात बन रहे हैं, वह कुछ यही इशारा कर रहे हैं। भारतीय संदर्भमें देखें तो इसी बीते जूनके अंतसे जुलाईके दूसरे पखवाड़ेमें अबतक उमस और नम हवओंके बीच लूके थपेड़े और भी ज्यादा खतरनाक हो रहे हैं। दरअसल यह वेट बल्ब तापमानवाली जैसी स्थिति होती है जो उमस और गर्मी दोनोंसे मिलकर बनती है।

इसमें तापमान तो ३० डिग्रीके आसपास होता है लेकिन वातावरणमें नमी ९० प्रतिशत होनेके बावजूद ऐसे मौसमको सह पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। वाकई फिलहाल हालात कुछ ऐसे ही हैं। २०१७ का एक अध्ययन बताता है कि दुनिया न सिर्फ गर्म हो रही है, बल्कि हवामें नमीका स्तर भी तेजीसे बढ़ रहा है जो यदि तापमान ३५ डिग्री वैट बल्बतक पहुंच जाय तो जिंदगीके लिए जबरदस्त खतरा भी हो सकता है और बमुश्किल छह घंटोमें ही मौत संभव है। जहां भारतमें समयसे पहले आये मानसूनकी आमद और अब जरूरतके वक्त गफलतने किसानों सहित आम एवं खास सबको परेशान कर रखा है। वहीं अमेरिकामें भी पारेने नया रिकॉर्ड बना दिया। कैलिफोर्नियाके डेथवैली पार्कमें इसी ९ जुलाईको अधिकतम तापमान ५४ डिग्री सेल्सियस दर्ज हुआ। इससे पहले १० जुलाई, १९१३ को वहां तापमान ५६.७ डिग्री सेल्सियस दर्ज हुआ जो दुनियामें सर्वाधिक है। कैलिफोर्निया, ओरेगन और एरिजोनामें तमाम जंगल धधक उठे हैं, धुंआ भरे पायरो कम्युलस बादलोंका निर्माण कुछ इस तरह हुआ जो अमूमन जंगलोंकी बड़ी आग या ज्वालामुखीसे बनते हैं। अभी जुलाईके १४ दिनोंमें ही २,४५,४७२ एकड़ इलाका जलकर खाक हो चुका है। तापमान भी ५४ पार कर ५७ डिग्री सेल्सियस पहुंचनेपर उतारू है। बिजली गिरनेकी कई घटनाएं हुईं और आग फैलती चली गयी। भारतमें राजस्थानका चुरू भी देशका सबसे ज्यादा तापमानवाला शहर बन चुका है।

दरअसल यह इनसानोंकी करतूतोंसे मौसमका बदलाव है। इसपर ७० विशेषज्ञोंकी एक अंतरराष्ट्रीय टीम द्वारा किया गया अध्ययन है जिसमें स्वास्थ्यपर पडऩेवाले प्रभावकी रिपोर्ट चौंकानेवाली है। ऐसे प्रभावोंको जाननेवाला यह पहला और अबतकका सबसे बड़ा शोध है। यह शोधमें प्रकाशित हुआ है जिसके अनुसार गर्मीकी वजहसे होनेवाली सभी मौतोंका औसतन ३७ प्रतिशत कहीं न कहीं सीधे तौरपर इनसानी करतूतोंसे हुई जिसके लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है। इस शोध अध्ययनके लिए ४३ देशोंमें ७३२ स्थानोंसे आंकड़े जुटाये गये जो पहली बार गर्मीकी वजहसे मृत्युके बढ़ते खतरेमें इनसानी करतूतोंसे जलवायु परिवर्तनके वास्तविक योगदानको दिखाता है। साफ है कि जलवायु परिवर्तनसे इनसानोंपर दिख रहे खतरे अब ज्यादा दूर नहीं है। जल्द ही मानवीय करतूतोंसे बढ़ी गर्मी जिसे दूसरे शब्दोंमें हमारी करतूतोंसे हुआ जलवायु परिवर्तन भी कह सकते हैं, से होनेवाली मौतोंको जांचनेपर यह आंकड़ा हर साल एक लाखके पार पहुंच सकता है। उल्लेखनीय है कि ९५ प्रतिशत आबादीके पास एयर कंडीशनिंग है या होगी तो मृत्यु दर कम हो सकती है। लेकिन इसे व्यवहारिक नहीं कह सकते क्योंकि किसानको ४५ डिग्री सेल्सियस तापमानमें अपने परिवारके भरण-पोषण करनेके लिए बाहर काम करना ही पड़ेगा। एक अध्ययन तो चौंकाने वाला है जिसमें केवल भारतमें ही हर साल असामान्य गर्मी या ठंडसे करीब ७.४० लाख लोगोंकी मौतकी चर्चा है।

विपरीत परिस्थितियोंसे पता चलता है कि भारतमें जहां असामान्य ठंडसे हर वर्ष ६,५५,४०० लोगोंकी मौत होती तो असामान्य गर्मीसे ८३,७०० लोग जान गंवा बैठते हैं। वहीं मोनाश यूनिवर्सिटी ऑस्ट्रेलियाके रिसर्चरकी एक टीमने असामान्य तापमानकी वजहसे दुनियाभरमें ५० लाख लोगोंसे अधिककी मौत बताकर चौंका दिया है। यह मौत हालके कोरोना वायरससे हुई मौतोंसे काफी अधिक है। यह शोध २००० से २०१९ के दौरानका है जिसमें ०.२६ सेल्सियस बढ़ा तापमान और मृत्युदरका अध्ययन है। संयुक्त राष्ट्र महासचिवकी विशेष प्रतिनिधि (आपदा जोखिम न्यूनीकरण) भी इस बातको मानते हैं कि बिगड़ते पर्यावरणसे पनपा सूखा अगली ऐसी महामारी बनने जा रहा है जिसके लिए न कोई टीका होगा, न दवाई। यानी बिगड़ते पर्यावरणसे निबटनेकी तैयारी और कारगर व्यवस्थाएं ही कुछ कर पायंगी जिसपर गंभीरतासे किसीका ध्यान नहीं है। इसके लिए अभीसे तैयारीकी जरूरत है। लेकिन क्या कुछ हो रहा है, सामने है। प्रकृतिके बिगड़ते संतुलन और धीरे-धीरे बढ़ते तापमानसे खुद-ब-खुद मौतके मुंहमें समाती दुनियाके बारेमें हम, सब कुछ जानकर भी अंजान होनेका स्वांग नहीं करते और कुछ ईमानदार प्रयास कर पाते जो फिलहाल तो दूरतक नहीं दिख रहे हैं।