सम्पादकीय

लोकमंगलका अनुष्ठान राजनीति


हृदयनारायण दीक्षित

विश्वका भाग होनेके कारण मनुष्य और प्रकृतिके मध्य आत्मीय संबन्ध हैं, लेकिन अंतर्विरोध भी है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है इसलिए समाजका हिस्सा है। अनेक मनुष्य सामाजिक नियम नहीं मानते थे। अपराध कर्म भी करते थे। समाज और ऐसे मनुष्योंके बीच अंतर्विरोध स्वभाविक है। अपराध रोकना और समाजको स्वभाविक संगतिमें गतिशील रखना राजव्यवस्थाका कर्तव्य है। वस्तुत: इसी आवश्यकताके कारण राजव्यवस्थाका जन्म हुआ। सुखी रहना मनुष्यकी प्राचीन अभिलाषा है। हजारों वर्ष पहले वैदिककालमें भी सुखी जीवनकी अभिलाषाएं रही हैं और सुखी जीवन आसान नहीं। ऋग्वेदके एक मंत्रमें सोमदेवसे प्रार्थना है, जहां सारी कामनाएं पूरी होती हों आप हमें वहां स्थायित्व दें। कामनाएं अनंत हैं। कुछ कामनाएं पूरी होती हैं अनेक नहीं पूरी होती हैं। ऋषिकी स्तुति है कि जहां आनंद, मोद, मुद, प्रमोद है, जहां सभी कामनाएं तृप्त होती हैं आप हमें वहां स्थायित्व दें। यहां आनन्द मोद, मुद एवं प्रमोद शब्द एक साथ आये हैं और सुखवाची हैं। वैदिक पूर्वज सुखी राष्ट्रका मतलब जानते थे। भोजन, वस्त्र सुखी जीवनका आधार है। समाज व्यवस्था संस्कृति और जीवन आदर्श अपरिहार्य है, लेकिन भौतिक सुख समृद्धि और आनन्दके लिए प्रजा-प्रिय राजा या राजव्यवस्था जरूरी है। इसलिए ऋग्वेदके इसी हिस्सेमें स्तुति है कि जहां विवस्वानका पुत्र राजा है, जहां विशाल नदियां हैं, आनंदका द्वार है, आप मुझे वहां स्थान दें। प्रेमपूर्ण राजनीति राजा या राजव्यवस्थाकी नीति है। जो लोग इस नीतिका लोकमंगलके हितमें प्रचारित करते थे वह अच्छे राजनीतिक कार्यकर्ता कहलाये। भारतके लोगोंने राजनीतिक कामको आदर्श बनानेके लिए अनेक प्रयत्न किये। व्यक्तिकी तानाशाहीसे बचनेके लिए सभा और समितियोंका गठन भी प्राचीनकालमें हुआ था। सभा और समितियां परस्पर विचार-विमर्शका केन्द्र थीं। राजाकी नियुक्ति भी होती थी। राजा अन्य कार्योंके अलावा राष्ट्रका यश बढ़ानेका काम भी करता था। स्तुति है, हे राजा आपके नेतृत्वमें राष्ट्रका यश कम न हो। आप स्थिर रहें। विचार भिन्नता तब भी रही होगी। विचार भिन्नता स्वभाविक भी है, लेकिन ऋग्वेदमें समस्त प्रजा राजा और राज्यके स्थायित्वकी प्रार्थना करती है। कहते हैं, जैसे आकाश, पृथ्वी, पर्वत और विश्व अविचल हैं, उसी प्रकार राजा भी अविचल रहे। यहां सभी देवोंसे राजनीतिक स्थिरताकी प्रार्थना है।

कौटिल्यके अर्थशास्त्रमें राजधर्मपर व्यवहारिक सामग्री है। भारतमें राजधर्म या राजनीतिका विकास कम-से-कम पांच हजार साल पहले ही हो गया। मौर्यकाल और कौटिल्य अज्ञात इतिहासमें है। अर्थशास्त्र लगभग तीन सौ वर्ष पुराना है। अर्थशास्त्रके रचनाकालमें राजनीतिपर ढेर सारे विचार और मत थे। कौटिल्यने उनका उल्लेख किया है। इनमें वृहस्पति, शुक्राचार्य, भारद्वाज, पराशर, चारायण और नारद आदि पूर्ववर्ती विचारकोंके उल्लेख हैं। यह सब कौटिल्यके पहले हैं। इसका मतलब साफ है कि राजनीति राजधर्म और दण्डनीति जैसे शब्दोंका प्रयोग पहलेसे हो रहा था। शुक्रनीतिमें राजा, प्रजाका सेवक बताया गया है। निर्देश है कि राजाको प्रजा राष्ट्र रक्षा आदिपर ही राजकोष व्यय करना चाहिए। मंत्रिमंडल तब भी थे और विशिष्ट संस्था थी। मंत्रिमंडलकी संख्या पर भी मतभेद थे। कौटिल्यने कई मत दिये हैं कि मनु सम्प्रदायवाले १२, बृहस्पतिको माननेवाले १६ और ऊष्नाको माननेवाले २० मंत्रियोंके पक्षधर हैं। महाभारतमें मंत्रियोंकी संख्या ३७ बताई गयी है। शुक्र नीतिके अनुसार राजा प्रजाको अधर्म, अत्याचार और अन्यायसे बचाता है। धर्म, अर्थ और कामसे युक्त करता है। यहां मोक्ष नहीं है। यूरोपके देशोंमें राजा और चर्चके मध्य विवाद हुआ। तब राजव्यवस्थाको सेक्युलर कहा गया। शुक्र नीतिमें राजाका काम पहलेसे सांसारिक है।

पूर्वज समाजके हित चिंतनमें लगातार विचार-विमर्श करते थे। परस्पर सहमति और असहमति भी होती थी, लेकिन राजनीतिक संस्थाएं बनानेमें सदा संलग्न रहते थे। राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताके आचरणको उन्होंने आदर्श ऊचाईयां दी थी। राजनीतिका क्षेत्र सीमित था और समाजसेवाका क्षेत्र व्यापक था। राजनीतिक परम्पराके इसी प्रवाहसे आदर्श राजनैतिक संस्कृतिका विकास हुआ। भारतका स्वाधीनता संग्राम इस बातका साक्ष्य है। गोखले, तिलक, गांधी, लोहिया, अम्बेडकर, दीनदयाल उपाध्याय जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओंके कामकाजमें लोकहितके आदर्श थे। किसी भी स्तरपर व्यक्तिगत द्वेष नहीं थे। समाजका जागरण आदर्श जीवन मूल्योंकी स्थापना और सम्पूर्ण राष्ट्रको एकजुट रखना इनका उद्देश्य था। पश्चिम बंगालके क्षेत्रमें इसी राजनीतिसे तमाम अभियानकर्ता उभरे हैं और दक्षिण भारतमें भी। स्वाधीनता संग्रामके बाद स्वतंत्र भारतमें लगभग दस सालतक मूल्य आधारित राजनीतिका झण्डा ऊंचा रहा। सबसे बड़ा दल कांग्रेस थी और तमाम छोटे-मोटे दल थे। जनसंघ और वामपंथी विचार आधारित लोकमत बनाते थे। तब राजनीतिके विमर्शमें राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि जैसे अखिल भारतीय विषय भी होते थे। आज वैसा वातावरण नहीं है। राजनीतिक लक्ष्यके प्रति प्रतिबद्धता भी नहीं है। साधारण मार्ग दुर्घटनामें भी हताहतोंको लेकर राजनीति प्रारंभ हो जाती है। यह राजनीति अचानक कानून व्यवस्था और सरकारके संचालनमें बाधा डालती है। राजनीति लोकमंगलका उपकरण है। भारतीय संसदीय व्यवस्थामें राजनीतिक विचार दलोंके रूपमें प्रकट होते हैं। दलोंमें लोकतंत्र नहीं है। अधिकांश दलोंकी कोई अर्थनीति भी नहीं है। इसी तरह अधिकांश दल प्राइवेट कम्पनी जैसे हैं। यह पारिवारिक सम्पदाकी तरह उत्तराधिकारियोंको हस्तांतरित होते है। यह अपने विचारके लिए लोकमत भी नहीं बनाते हैं। छोटी-छोटी आपराधिक घटनाओंको भी राजनीतिका मुद्दा बनते हैं और राजनीतिका उद्देश्य विफल हो जाता है। राजनीतिको इस कठिनाईसे उबारना होगा। आज छोटी-छोटी घटनाओंका भी राजनीतिकरण हो रहा है। यह राजनीतिकरण आश्चर्यजनक रूपमें व्यथाकारी है। गांव स्तरकी छोटी-सी घटनासे लेकर सभी छोटी-बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओंको लेकर नेतागण सहानुभूति जताने पीडि़तके घर पहुंच जाते हैं। राजनीतिक बयानबाजी करते है। इलेक्ट्रानिक मीडियाकी बन आती है। लगातार छोटी-मोटी घटनाओंकी प्रतिक्रियामें एकत्रित दल समूह और नेताओंको नियंत्रित करनेमें प्रशासनका काम भी बाधित होता है। आखिरकार इस राजनीतिका उद्देश्य क्या है? प्रशासनिक काममें बाधा और सामान्य यातायात बाधित होनेसे जनताको कठिनाई है। क्या राजनीतिकी इस शैलीपर पुर्नविचार संभव नहीं है। इसीमें राजनीतिका भी कल्याण है और आदर्श राजनीतिका विकास संभव है।