सम्पादकीय

वरिष्ठ नागरिकोंके प्रति संवेदनशीलता


हेमलता म्हस्के

हमारे देशमें महिलाओं और बच्चोंकी तरह बुजुर्ग भी अभाव और अपमानके बीच जीनेको विवश हैं। कहनेके लिए बुजुर्गोंके लिए अनेक सरकारी योजनाएं संचालित की जा रही हैं, लेकिन इसके बावजूद उनकी हालतमें कोई सुधार नहीं हो रहा है। हम बहुत शानसे कहते हैं कि आजका भारत युवा भारत है, लेकिन अगले पचास सालामें युवा भारत, बूढ़ा भारत हो जायगा। उस समयतक भी ऐसी ही समस्याएं बनी रहेंगी तो भावी बुजुर्गोंके लिए जीना बहुत दूभर हो जायगा। अपने देशमें स्वास्थ्यपर कुल सकल घरेलू उत्पादका मात्र १.२१ फीसदी ही खर्च किया जाता है, जबकि इसे दुगुना करनेका वादा किया जाता रहा है। बुजुर्गोंकी मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं, अब उन्हें अपनोंसे ही यातनाएं मिल रही हैं। उनको अपनी औलादोंकी क्रूरता झेलनेके लिए विवश होना पड़ रहा है। नयी पीढ़ी उनको बोझ समझती है। वह बुजुर्गोंके अनुभवोंका लाभ उठानेके बजाय उनका अपमान ही करती नजर आती है। लगता है कि बहुत कम लोगोंको पता है कि भारत सरकारने बुजुर्गोंकी सुरक्षाके लिए माता-पिता, वरिष्ठï नागरिकोंकी देखभाल एवं कल्याण अधिनियम बनाया है। इस कानूनके तहत बुजुर्गोंका परित्याग और उनका उत्पीडऩ करना दंडनीय अपराध है। इस अपराधके लिए तीन महीनेकी कैद और पांच हजार रुपये जुर्मानेका प्रावधान है। यह कानून संतानों और परिजनोंपर कानूनी जिम्मेदारी डालता है, ताकि वह अपने माता-पिता और बुजुर्गोंको सम्मानके साथ सामान्य जीवन बसर करने दे। इसके बावजूद बुजुर्गोंकी हालत दिनों-दिन खराब होती जा रही है। अपने देशमें इस समय बुजुर्गोंकी संख्या दस करोड़ ३८ लाख है। बुजुर्गोंकी बढ़ती आबादीके कारण उनके बीच कई तरहकी समस्याएं पैदा हो गयी हैं। हालमें केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालयकी ओरसे बुजुर्गोंकी आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्यकी दृष्टिïसे कराये गये एक शोधके मुताबिक आज देशमें प्रत्येक दसवां व्यक्ति बुजुर्ग है। हरेक चारमेंसे तीन बुजुर्ग किसी न किसी गम्भीर बीमारीसे ग्रस्त है। हर चौथा बुजुर्ग एकसे ज्यादा बीमारियोंका शिकार है और हर पांचवां बुजुर्ग मानसिक बीमारीसे परेशान है। इस तरह हमारे बुजुर्ग बीमारी और उससे मुक्तिके लिए पर्याप्त उपचारकी व्यवस्था नहीं होनेके अलावा और भी बहुत-सी मुश्किलोंसे घिरे हुए हैं। नतीजा यह है कि हमारे बुजुर्ग अवसादके शिकार हो रहे हैं। फिर उनको अपनी जिन्दगी बेकार लगने लगती है।  जिस उत्साहसे हम वेलेंटाइन-डे आदि मनाते हैं, बुजुर्ग दिवस नहीं मनाते। मतलब हम उनके प्रति बेफिक्र ही रहते हैं। उनकी पीड़ा हमें झकझोरती ही नहीं। देशमें अवसादसे शिकार होनेवाले बुजुर्गोंकी संख्यामें कमी आनेके बजाय वृद्धि ही हो रही है, क्योंकि उनकी देखभालके लिए सरकार और समाज दोनों पूरी तरहसे उदासीन हैं।

केन्द्रीय सामाजिक न्यायके मुताबिक २०१४ से बुजुर्गोंके कल्याणके लिए विभाग द्वारा एक कार्य नीति तैयार की गयी है। उसके मुताबिक बुजुर्गोंके लिए आश्रम बनानेके साथ उनके कल्याणके लिए विभिन्न योजनाओंका संचालन किया जा रहा है। वयोश्री योजनाके तहत बुजुर्गोंको सुननेवाली मशीन, ह्वïील चेयर, आरामदायक जूते, बैसाखी, कृत्रिम दांत और चश्मे आदि दिये जा रहे हैं। इनके अलावा वय वंदन योजना इंदिरा गांधी राष्टï्रीय वृद्धाश्रम पेंशन योजना, स्वावलंबन योजना और अटल पेंशन योजना भी संचालित की जा रही है लेकिन यह योजनाएं ऊंटके मुंहमें जीरेके समान हैं। यह बहुत चिन्ताकी बात है कि अब बुजुर्गोंपर उनकी सन्तानें ही जुल्म ढाने लगी हैं। जो माता-पिता अपने जिन बच्चोंको पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाते हैं वही बच्चे उनकी धन-सम्पत्ति हथियानेके लिए उनके दुश्मन बनने लगे हैं। सन्तानें सम्पत्तिके लिए बुजुर्गोंपर अत्याचार करने, उन्हें घरसे निकालने और उनकी हत्यातक करने लग गये हैं। आये दिन पीडि़त माता-पिता पुलिस थानेके चक्कर लगानेको विवश हो गये हैं।

बुजुर्गोंकी सुरक्षाके लिए माता-पिता और वरिष्ठï नागरिक देखभाल और कल्याण अधिनियम २००७ बना ही है, इसके अलावा हिमाचल प्रदेशमें राज्य सरकारने २००२ में बुजुर्ग माता-पिता और आश्रित भरण-पोषण कानून बनाया था। इस दिशामें सबसे ज्यादा प्रभावी काररवाई महाराष्टï्रमें अहमदनगर और लातूरकी जिला परिषदोंने की है। लातूर जिला परिषदने अपने सात कर्मचारियोंके जनवरीके वेतनमेंसे ३० प्रतिशत राशि काटकर उनके माता-पिताके बैंक खातोंमें भेज दी। उत्तर प्रदेश सरकार भी माता-पिताके साथ दुव्र्यवहार करनेवाली सन्तानोंको सम्पत्तिसे बेदखल करनेका कानून बनाने  जा रही है। सरकारने कानून बनाकर बुजुर्गोंको सुरक्षा देनेकी कोशिश की है, लेकिन यह सिर्फ कानूनके सहारे नहीं होगा। इसके लिए समाज और परिवारको भी सच्चे मनसे संवेदनशील होना होगा।