सम्पादकीय

सबहिं नचावत राम गोसाईं


हृदयनारायण दीक्षित

व्यक्ति असाधारण संरचना है। शरीर प्रत्यक्ष है। अंत:करण अप्रत्यक्ष है। हमारे कर्म तप भौतिक हैं। इनके प्रेरक तत्व हमारे भीतर हैं। इसकी वाह्य गतिविधि दिखाई पड़ती है। जब हर्ष, उल्लास दुख-सुखके भाव बाहर प्रकट होते हैं।

भारतके मनीषियों एवं चिन्तकोंने अंत:करणके उल्लास-संवद्र्धनके लिए अनेक उपाय खोजे हैं। ईश्वरका आनन्ददाता कहा गया है भक्ति, भजन, ज्ञान संन्यासको भी आनन्दमार्ग बताया है। यही सब अध्यात्म कहा जाता है। भारतीय दर्शनका अध्यात्म सुखदाता और आनन्ददाता हैं। आनन्दकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति नृत्य है। भारतका अध्यात्म भी नृत्य करता है। नृत्य परिपूर्ण अध्यात्मिक आनन्द है। बोधगम्य होकर भी अबोध गम्य। नृत्य अद्वितीय कृत्य है। यह आनन्दरस पूर्ण है। नृत्य व्यक्तिगत कृत्य है लेकिन आध्यात्मिक कृत्य भी है। मेघ आते हैं, कड़कते गजरते। भारतीय सौन्दर्यबोधमें नाचते हुए। जलरस आकाशसे झरता है। मोर अपनी पुलकमें उछलते हैं। संवेदनशील पूर्वजोंने इसे नृत्य कहा है। ऋग्वेदका सोम रस भी नाचते हुए कलशमें गिरता है। सोम पदार्थ है। सोम देवता भी है। इसलिए अध्यात्म भी है। गीत और नृत्य उल्लासमें उगते हैं। आंतरिक उल्लास अध्यात्म है। नृत्य समूची भाव उल्लास राशिको देहपर प्रकट करता है। जान पड़ता है कि नृत्य गीतसे ज्यादा प्राचीन है। गीतका जन्म भाषा-बोलीके बाद हुआ। आदिम समाजमें एक समय बोली-भाषा थी ही नहीं। देह ही भाषाका काम करती थी। आज हाव-भाव प्रकट करनेके लिए कंधे उचकाना आदिको ‘बाडी-लैंगवेजÓ कहा जाता है। लेकिन आदिम कालमें आंख या हाथके संकेत ही भाषाका विकल्प थे।

प्रीति, मुद, मोद और प्रमोदके संकेत भी दैहिक थे। तभी किसी रसपूर्ण मुहूर्तमें परिपूर्ण आनन्दके पर्यायवाची अध्यात्मके प्रभावमें दैहिक कृत्यसे नृत्यका जन्म हुआ। अस्तित्व नृत्यमगन है। अध्यात्म अस्तित्वकी प्रीति है। इसने भारतके मनको लगातार मोहित किया है। अस्तित्व अपनी मूल प्रकृतिमें सत्चित् आनन्द है। सो नृत्य मगन है। श्रीकृष्ण भी नाचते थे। उन्होंने अर्जुनको बताया कि ईश्वर सबके हृदयमें बैठा है और सबको नचाता है। मेरे संशयी चित्तमें कई बार प्रश्न उठा कि आखिर क्यों नचाता है हमको ईश्वर? जान पड़ता है कि नृत्य सर्वोत्तम उल्लास है अस्तित्वका। तुलसीदासने भी गीताकी ही परम्परामें लिखा है- सबहिं नचावत राम गोसाईं। अस्तित्वका प्रेम निमंत्रण है- नाचो। अपनी परिपूर्णतामें नाचो। अपनी धुरीमें नाचो। देह परिधिसे भीतर जाकर देखो, नाचता हुआ अन्त: क्षेत्र। निमंत्रणदाता वही है उल्लास है उत्साहका। नृत्य उत्सवमें अस्तित्वके साथ एक होनेका आनन्द लो। यह आध्यात्मिक है।

नृत्यमें ध्यान योग है। इस समय दूसरा कोई काम नहीं कर सकते। दूसरा कोई विषय सोच भी नहीं सकते। नृत्यमें सोच-विचारका अतिक्रमण होता है। सोच-विचारका अतिक्रमण अध्यात्म है। नृत्यमें बुद्धि, विचार और तर्क गिर जाते हैं। तब अन्दरका आनन्द ही देहपर प्रकट होकर नृत्य बनता है। नृत्यमें गति है, इस गतिपर भावका उत्प्रेरण है। नर्तक भी एक प्राणी है इसलिए दिक्ïकालके भीतर है लेकिन नृत्यकी सम्पूर्णतामें वह दिक्कालका भी अतिक्रमण भी करता है। तब नर्तक नहीं बचता, नर्तक स्वयं नृत्य बन जाता है। ऊर्जाका ऐसा रूपान्तण रसपूर्ण है। नृत्य अध्यात्मका भौतिक प्रस्तुतिकरण है। ब्रह्मïको मायामें लानेकी काररवाई। आध्यात्मिक ऊर्जा आनन्द बनती है। शरीर, मन और बुद्धिका हरेक अणु-परमाणु कम्पित होता है आनन्द अतिरेकसे। नृत्य सामान्य दृश्य नहीं होता। वैसे भी दृश्य और कृत्यमें अन्तर होते हैं। दृश्य एक विषय है। हम उसे देखते हैं। भोक्ता होते हैं। नृत्य भी दृश्य होता है। लेकिन नृत्य करनेमें हम पहले कर्ता होते हैं, फिर क्रिया बनते हैं। आनन्द अतिरेकके चरमपर हम कर्ता नहीं होते। तब नृत्य हमारा कृत्य नहीं होता। हम स्वयंको पुनजीर्वित करते हैं, प्रतिपल, हर नये पल। जान पड़ता है कि माता पृथ्वी भी पिता आकाशकी प्रीति में आह्लाद और प्रसाद रसके अतिरेकमें सूर्यदेवके चक्कर लगाती हैं नाचते हुए ही।

नृत्य प्राचीन भारतीय अभिव्यक्ति और कला है। नृत्य भी अन्तत: मुक्त करता है। यूरोप आदि क्षेत्रोंमें कलाका उद्देश्य रमण सुख है, मनोरंजन ही है। मनोरंजनमें मर्यादाकी रेखा होती नहीं। यह अधिकतम देह दर्शनतक जाता है। तब भव्य भी भदेस हो जाता है। लेकिन भारतमें गीत-संगीत और नृत्यका उद्देश्य लोकको आनन्दरससे परिपूरित करना रहा है। आनन्द रस आपूरित लोक इस रसको फिर लौटाता है इसी लोकमें। ऋतुएं भी यहां नाचते हुए आती हैं। वर्षा ऋतु स्वयं नृत्य विशारद है। बादल नाचते हुए आते हैं। विद्युत नायिका जैसी देहयष्टि दिखाती है। लपालप लेकिन क्षणभंगुर। वर्षा भारतके मनको लहकाती और नचाती रही है। इसलिए यहां अनेक उत्सव हैं। उत्तर भारतमें जलविहार उत्सव होते हैं। गांवके किसी तालाब या नदी तटपर नाच गाना और गलमिलौवल। श्रीकृष्ण जन्मके नृत्य उत्सव इसी ऋतुमें है और नागपंचमी एवं रक्षाबंधन भी। लेकिन कजरीतीज गायन नर्तनका ही पर्व है। गणेश चतुर्थी, दुर्गापूजा और इसके बाद विजयपर्व सहित सभी उत्सव एकाकी मनुष्यको लोकमधुमें डुबोते हैं। होलीका रस ऐसा ही है।

लोकका हरेक अंश नृत्यमगन है। यहां कुछ भी स्थिर नहीं। परमाणुका अन्तर्जगत भी नाचमें मस्त है। शिव सभी लोकोंकी नृत्यमगन आनन्द आपूरित चेतना हैं और श्रीकृष्ण भी। शिव मनुष्य नहीं। विराट अस्तित्वकी महाऊर्जा हैं। श्रीकृष्ण मनुष्य हैं। उनकी अनेक कथाएं हैं लेकिन वह पूर्ण दिखाई पड़ते हैं नृत्यमें। श्रीकृष्ण एक हैं लेकिन एक ही समय अनेकके साथ नृत्य करते हैं। ऋग्वेदके सत्यकी तरह। सत्य एक है, विद्वान उसे अनेक नामोंसे गाते हैं। नाचते कृष्ण भी एक हैं लेकिन नाचते हुए अनेक दिखाई पड़ते हैं। श्रीकृष्णकी परिपूर्णता नृत्यमें प्रकट हुई और इसी परिपूर्णताका आख्यान गीता है। नृत्यशास्त्रके पंडित इस कलाका इतिहास खोजते हैं। यूरोपीय विद्वान सब कुछ जाननेका ढोंग करते हैं। भारतीय नृत्य १९२०-३० ई. के आसपास यूरोप पहुंचा। उन्हें अद्भुत और अद्वितीय लगा। दुखी मनुष्य पूरा नहीं होता। अधूरा रहता है। अध्यात्मके साथ उसकी संगति नहीं। उसकी जीवन वीणामें संगीत नहीं। सुखी भी अधूरा है। गीत नहीं, प्रीति नहीं। सुख भी क्षणभंगुर है। आनन्दित मनुष्य साधारण नहीं रह जाते। वह असाधारण होते हैं। उनके चित्तमें गीत उगते हैं, नृत्य खिलते हैं। नृत्यके चरममें नर्तक संज्ञा नहीं क्रिया हो जाता है। अपने प्रारम्भिक चरणमें कर्तासे जुड़ा हुआ। उसके प्रयासका भाग। लेकिन नृत्यके चरममें कर्ता डूब जाता है। नर्तक नृत्य हो जाता है। डब्लू.बी. यीटस्की समस्या है, नृत्यमें हम नर्तकको कैसे पहचानें? समस्या बड़ी है भी। तब नर्तक होता ही नहीं। यीट्सने भी भारतीय प्रतीति दोहराई है। भारतीय चिन्तनका अध्यात्म बड़ा प्यारा है। लोक अस्तित्वका प्रतिनिधि है। अध्यात्म इसका केन्द्र है। इसलिए अध्यात्म भी नाचता हुआ हमको नृत्यके लिए प्रेरित करता है।