सम्पादकीय

विश्वका रूपान्तरण 


ओशो 

तुम दुख पैदा करते हो। ऐसा नहीं कि तुम जान बूझकर करते हो, परन्तु तुम ही दुख हो, तुम जो भी करो सब ओर दुखके बीज बोते हो। तुम्हारी अकांक्षा व्यर्थ है, तुम्हारा होना महत्वपूर्ण है। तुम सोचते हो कि दूसरोंकी सहायता कर रहे हो, परन्तु तुम बाधा ही डालते हो। तुम सोचते हो कि तुम दूसरोंसे प्रेम करते हो, परन्तु शायद तुम दूसरोंकी हत्या ही कर रहे हो। क्योंकि तुम चाहते हो, तुम जो सोचते हो, तुम अकांक्षा करते हो, वह महत्वपूर्ण नहीं है। तुम क्या हो, यह महत्वपूर्ण है। प्रतिदिन मैं लोगोंको देखता हूं जो एक-दूसरेसे प्रेम करते हैं, लेकिन वह मार रहे हैं एक-दूसरेको। वह सोचते हैं वह दूसरेके लिए जी रहे हैं और उनके बिना उनके परिवार, उनके प्रेमियों, उनके बच्चों, उनकी पत्नियों, उनके पतियोंका जीवन दुखसे भर जायगा। लेकिन वह लोग इनके साथ दुखी हैं। वह हर तरहसे सुख देनेकी कोशिश करते हैं, परन्तु वह जो भी करें, गलत हो जाता है। ऐसा होगा ही, क्योंकि वह गलत हैं। करना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, जिस व्यक्तित्वसे वह उठ रहा है, वह अधिक महत्वपूर्ण है। यदि तुम अज्ञानी हो तो तुम संसारमें नरक बनानेमें मदद कर रहे हो। यह पहले भी नरक है, यह तुम्हारी ही निर्मिति है। जहां भी तुम स्पर्श करते हो नरक बना लेते हो। यदि तुम बुद्धत्वको उपलब्ध हो जाते हो तो तुम कुछ भी करो या तुम्हें कुछ करनेकी भी जरूरत नहीं है, बस तुम्हारे होनेसे तुम्हारी उपस्थितिसे दूसरोंको खिलनेमें, सुखी होनेमें, आनंदित होनेमें सहायता मिलेगी। लेकिन इसकी चिंता तुम्हें नहीं लेनी है। पहली बात तो यह है कि बुद्धत्वको कैसे उपलब्ध होना है। तुम मुझसे पूछते हो कि मैं बुद्धत्वको उपलब्ध होना चाहता हूं। लेकिन यह चाह बड़ी नपुंसक मालूम होती है, क्योंकि इसके तुरंत बाद तुम कहते हो लेकिन। जब भी लेकिन बीचमें आ जाता है तो उसका अर्थ अभीप्सा नपुंसक है। लेकिन संसारका क्या होगा। तुम हो कौन। अपने बारेमें तुमने सोच क्या रखा है। क्या संसार तुमपर निर्भर है। क्या तुम इसे चला रहे हो। स्वयंको इतना महत्व क्यों देते हो। यह भाव अहंकारका हिस्सा है और दूसरोंकी यह चिंता तुम्हें कभी भी अनुभवके शिखरपर नहीं पहुंचने देगी। क्योंकि वह शिखर तभी उपलब्ध होता है, जब तुम सब चिंताएं छोड़ देते हो। तुम चिंताएं इक_ी करनेमें इतने कुशल हो कि बस अद्भुत हो। अपनी ही नहीं दूसरोंकी भी चिंताएं इक_ी किये चले जाते हो। जैसे कि तुम्हारी अपनी चिंता पर्याप्त नहीं है। तुम दूसरेके बारेमें सोचते रहते हो और तुम क्या कर सकते हो। तुम बस और अधिक चिंतित और पागल हो सकते हो। हर कोई यही सोचता है कि जैसे वही केंद्र है और उसे ही पूरे संसारकी चिंता करनी है और पूरे संसारको बदलना है, रूपांतरति करना है, आदर्श संसार बनाना है। तुम बस इतना ही कर सकते हो कि स्वयंको बदल लो। तुम संसारको नहीं बदल सकते।