सम्पादकीय

शीर्ष न्यायालयकी नाराजगी


नये कृषि कानूनोंके खिलाफ पिछले ४७ दिनोंसे चल रहे किसानोंके प्रदर्शनसे सम्बन्धित याचिकाओंपर सोमवारको सुनवाईके दौरान सर्वोच्च न्यायालयने नाराजगी जताते हुए न केवल तल्ख टिप्पणी की, अपितु सरकार और किसान संघटनोंको भी कटघरेमें खड़ा कर दिया है। कोरोना और बर्ड फ्लू संकटके साथ ही कड़ाकेकी ठण्डमें किसानोंके प्रदर्शनको लेकर सर्वोच्च न्यायालयने जो बातें रखी हैं वह भी काफी महत्वपूर्ण हैं। आठ दौरकी वार्ताके बाद भी किसान संघटन और सरकार समाधान ढूंढऩेमें पूरी तरहसे विफल रहे हैं। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए. बोबड़ेने साफ शब्दोंमें सरकारसे पूछा कि आप बताइये कि नये कानूनोंपर रोक लगायेंगे या नहीं, अन्यथा हम रोक लगा देंगे। जिस तरहसे सरकार इस मामलेको हैंडिल कर रही है उससे हम खुश नहीं हैं, हमें पता नहीं है कि सरकार कैसे इस मसलेको डील कर रही है? कानून बनानेसे पहले किससे चर्चा की? प्रधान न्यायाधीशने यह भी कहा कि हम अपना इरादा साफ कर देना चाहते हैं कि इसका हल निकाली जाय। यदि आपमें समझ है तो कानूनके अमलपर जोर मत दीजिये, फिर बात शुरू कीजिये। हमने भी रिसर्च किया है और एक कमेटी बनाना चाहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायालय किसी भी नागरिकको यह आदेश नहीं दे सकता है कि वह प्रदर्शन नहीं करे। हां, यह अवश्य कह सकता है कि आप इस स्थानपर प्रदर्शन करें। यदि कुछ घटित होता है तो उसके लिए सब जिम्मेदार होंगे। हम नहीं चाहते कि हमारे हाथ रक्तरंजित हों। जिस तरहसे धरना-प्रदर्शनपर हरकतें हो रही हैं उससे लगता है कि कुछ घटित हो सकता है। न्यायमूर्ति बोबड़ेने यह भी कहा कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं, सुविधाओंका संकट है, सामाजिक दूरीका भी पालन नहीं हो रहा है। किसान संघटन जवाब दें कि आखिर ठण्डमें महिलाएं और वृद्ध लोग प्रदर्शनमें क्यों हैं? उन्होंने सरकारसे यह भी कहा कि आप कानूनोंको होल्डपर क्यों नहीं रख देते, रोज हालात खराब हो रहे हैं। जबतक कमेटी रिपोर्ट न दे दे तबतक कानूनको होल्डपर रखें। सर्वोच्च न्यायालयकी नाराजगी और तल्ख टिप्पणियोंकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। न्यायालयने जो बातें रखी हैं उसपर सरकार और किसान संघटन दोनोंको अत्यन्त गम्भीरतासे सोचनेके साथ ही लचीला रुख अपनाते हुए समाधानपर शीघ्र पहुंचनेकी आवश्यकता है। महिलाओं और वृद्धोंको भी अपने घरोंको लौटना होगा अन्यथा स्थिति और खराब हो सकती है। दुर्भाग्यवश यदि कोई अप्रिय घटना होती है तो उसके लिए सभी जिम्मेदार माने जायंगे।

ग्रामीणोंका पलायन

कोरोना संकटके दौरमें एक ओर जहां देशकी अर्थव्यवस्थापर काफी प्रतिकूल असर पड़ा है वहीं दूसरी ओर लोग बड़ी संख्यामें बेरोजगार हुए हैं। लाकडाउनके दौरान आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह ठप हो जानेसे ग्रामीण कामगार अपने गृह जनपदोंको लौटनेके लिए बाध्य हुए लेकिन यहां भी रोजगारकी समुचित व्यवस्था न होनेसे उनके समक्ष अजीविकाका संकट उत्पन्न हो गया है। सरकारकी ओरसे इन्हें इनके ही क्षेत्रोंमें रोजगार दिलानेकी बात कही गयी है लेकिन धरातलपर ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है। कोरोनाकी मार सबसे अधिक शहरोंपर पड़ी है बावजूद इसके रोजी-रोटीके लिए लोग शहरोंकी ओर रुख कर रहे हैं। इस सम्बन्धमें विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की रिपोर्ट चौंकानेवाली है। रिपोर्टमें कहा गया है कि हर मिनट २५-३० लोग गांवोंसे शहरकी ओर पलायन कर रहे हैं, जो गम्भीर चिन्ताका विषय है। देशके अधिकतर बड़े शहरोंमें आर्थिक विषमताके कारण झुग्गी-झोपडिय़ों एवं बस्तियोंके बढऩेके साथ शहरी गरीब आबादी बढ़ी है। इससे महामारीके बाद शहरी चुनौतियां और अधिक बढ़ गयी है। ऐसेमें गांवोंसे शहरोंकी ओर लोगोंका पलायन शहरोंकी समस्याको और बढ़ायेगा। ग्रामीणोंके पलायनको शुरुआती दौरमें ही रोकनेके लिए कारगर कदम उठानेकी जरूरत है। इस विकट स्थितिसे निबटनेके लिए जरूरी है कि केन्द्र और राज्य सरकारें रोजगारके अवसर बढ़ायें। छोटे शहरों और गांवोंमें निवेश बढ़ानेकी आवश्यकता है। इससे न सिर्फ स्थानीय स्तरपर रोजगारके अवसर बढ़ेंगे, बल्कि लोगोंका बड़े शहरोंकी ओर पलायन भी रुकेगा। इससे छोटे शहरों और गांवों दोनोंका विकास भी होगा। ऐसे क्षेत्रोंको प्रोत्साहित करनेकी जरूरत है जहां रोजगारके अवसर अधिक हैं। परम्परागत गृह उद्योगोंको बढ़ावा देना श्रेयस्कर होगा। गृह उद्योगसे जहां परिवारकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी, वहीं प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीकी आत्मनिर्भर भारतकी महत्वाकांक्षी योजनाको भी बल मिलेगा।