प्रणय कुमार
आजादीका अमृत महोत्सव जन-जनकी चेतनाको स्वतंत्रताके संघर्षकी महान गाथाओं, उसकी पृष्ठभूमिमें व्याप्त मूल प्रेरणाओं, आकांक्षाओंसे जोडऩेका अनूठा एवं अनुपम महोत्सव है। हम उस ऐतिहासिक अवसर एवं कालखंडके साक्षी बनने जा रहे हैं, जहां ठहरकर हर भारतवासीको सिंहावलोकन करना चाहिए कि स्वतंत्रताके पीछेकी मूल भावना-प्रेरणा, आदर्श-आकांक्षा, ध्येय-स्वप्नको हम कितना एवं किस अनुपातमें साकार कर पाये हैं। यह सनातनके गौरव और आधुनिककी चमकको याद करनेका अभूतपूर्व अवसर है। यह अपनी विरासत और अतीतके आलोकमें वर्तमानका आकलन कर भविष्यकी दिशा एवं मार्ग तय करनेका अवसर है। एक समाज एवं राष्ट्रके रूपमें यह अपने स्वाभिमान तथा गौरवके पुनस्र्मरण एवं पुनस्र्थापनका अवसर है। यह सत्य है कि पांच हजार वर्षसे भी अधिक प्राचीन राष्ट्रके लिए ७५ वर्षका कालखंड बहुत लंबा और विस्तीर्ण नहीं होता। वैदिक कालसे लेकर अबतककी सुदीर्घ यात्रामें एक राष्ट्रके रूपमें हमने तमाम उतार-चढ़ाव देखे और हर पराजय या विध्वंसके पश्चात फिर उठ खड़े हुए। हमारा इतिहास पीड़ा एवं पराजयका नहीं, संघर्ष और लोक-मंगलकी स्थापनाका इतिहास है। हम शोकवादी नहीं, उत्सवधर्मी संस्कृतिके वाहक हैं। उसीका परिणाम है कि प्रतिकूलता एवं पराधीनताके घोर अंधेरे कालखंडमें भी हमने अपने महान भारतवर्षकी सांस्कृतिक अस्मिता, मूलभूत पहचान, परंपरागत वैशिष्ट्य तथा सनातन-शाश्वत जीवन-दृष्टि एवं मानबिंदुओंको अक्षुण्ण रखा। उसपर कोई आंच नहीं आने दी। अपसंस्कृतिके कूड़े-करकटको प्रक्षालित कर कालकी कसौटीपर खरे उतरनेवाले जीवन-मूल्यों एवं मान्यताओंको पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित किया। ये वही मूल्य थे जिनके बलपर भारत भारत बना रहा, जिनके बलपर वह पूरी दुनियामें विश्वगुरुके पदपर प्रतिष्ठित हुआ। यह महोत्सव ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा, तकनीक एवं अत्याधुनिक संसाधनोंके मामलेमें विकसित देशोंके साथ कदमसे कदम मिलाते हुए अपनी जड़ों एवं संस्कारोंसे जुड़े रहने और शाश्वत-सार्वकालिक-महानतम भारतीय मूल्योंको पुन: सहेजने और स्थापित करनेका भी महोत्सव है।
यह अवसर वेदोंकी ऋचाओं, पुराणोंकी कथाओं, महाकाव्योंके छंदों एवं उपनिषदोंके ज्ञानको केवल वाणीका विलास नहीं, आचरणका अभ्यास बनानेका अवसर है। यह अवसर श्रीरामकी मर्यादा, श्रीकृष्णकी नीतिज्ञता, महावीरकी जीव-दया, बुद्धके बुद्धत्व, परशुरामके सात्विक क्रोध, विश्वामित्रके तेज, दधीचिके त्याग, चाणक्यके चिंतन, शंकरके अद्वैत, कबीर-गुरुनानक-सूर-तुलसीके समन्वय, रहीम-रसखान-दारा शिकोहके सौहाद्र्र, शिवाजी-महाराणा, गुरु गोबिंद सिंह, बंदा बैरागीके तेज, शौर्य एवं पराक्रम, रानी लक्ष्मीबाई, वीर कुंवर सिंह, तात्या टोपे, नाना साहब, मंगल पांडेयकी वीरता, जीवटता एवं संकल्पबद्धता, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, महर्षि अरविंदके आध्यात्म, बंकिम-शरत-रवींद्रके औदात्य, आजाद, अशफाक, बिस्मिल, भगत सिंहके त्याग एवं बलिदान, तिलक एवं सावरकरकी लोकोन्मुखी वृत्ति एवं दूरदृष्टि, महात्मा फुले और बाबा साहेबकी समरस सामाजिक चेतना, सुभाषके साहस, संघर्ष एवं नेतृत्व तथा सत्य, स्वदेशी एवं स्वावलंबनके प्रति गांधी जीके प्रबल आग्रहको जीवनमें उतारनेका स्वर्णिम अवसर है। यह प्रश्न बहुत कठिन है कि किन-किन मनीषियों-महापुरुषों, आंदोलनोंका नाम लें और किन्हें छोड़ें। हर मनीषीने भारतीय मनीषा एवं चिंतनको समृद्ध किया और महत उद्देश्यसे प्रेरित-संचालित हर आंदोलनने राष्ट्रकी सुसुप्त चेतनाको झंकृत कर अवरुद्ध सांस्कृतिक धाराका मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय दृष्टिमें राष्ट्र, राज्य या स्टेटका पर्याय नहीं, वह पश्चिमकी भांति केवल एक राजनीतिक सत्ता नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा है। यह महोत्सव इस अवधारणाको ही समझने और आत्मसात करनेका महोत्सव है।
भारतके स्वाधीनता संग्रामको केवल दो-चार सौ वर्षोंके सीमित दायरेमें आबद्ध करना न्यायसंगत नहीं होगा, बल्कि शकों-हूणों-कुषाणों आदिको भारतीय संस्कृतिकी सर्वसमावेशी धारामें रचा-बसा लेनेके पश्चात भारतका सामना अरबों-तुर्कों-मंगोलोंसे हुआ और भयानक लूटपाटके बावजूद वे न तो संपूर्ण भारतवर्षपर निर्बाध शासन ही कर सके, न हम भारतीयोंकी सत्यान्वेषी चेतनाका ही समूल नाश कर सके। तमाम राष्ट्रनायकोंने जहां एक ओर अंग्रेजोंसे पूर्वके भारतमें निरंकुश, असहिष्णु, विस्तारवादी एवं वर्चस्ववादी इस्लामिक सत्ताका प्रतिकार एवं प्रतिरोध कर भारतके स्वत्व एवं स्वाभिमानकी रक्षा की तो वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी सत्ताके विरुद्ध थोड़े-थोड़े अंतरालपर विद्रोह एवं आंदोलनोंका नेतृत्व कर महान स्वतंत्रतासेनानियों एवं मातृ-भूके अमर सपूतोंने स्वतंत्रताकी अलखको प्रज्ज्वलित रखा। स्वत्व, स्वाभिमान, स्वतंत्रता एवं स्वावलंबनकी उसी चेतना एवं भावनाको आत्मसात कर स्वतंत्र भारत भी निरंतर प्रगति-पथपर अग्रसर है। समुद्रसे लेकर अंतरिक्ष, शिक्षासे लेकर चिकित्सा, विज्ञानसे लेकर तकनीक, खाद्यान्नसे लेकर उत्पादन, सुरक्षासे लेकर न्याय, समता-समानतातक हम निरंतर सफलताके सोपान तय कर रहे हैं। आपातकालके अपवादको छोड़कर हमारा लोकतंत्र भी दिन-प्रतिदिन मजबूत एवं परिपक्व हुआ है। शून्य स्तरका सैन्य हस्तक्षेप, निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव, सत्ताका सहज हस्तांतरण, बहुदलीय व्यवस्था, जन-मनकी परोक्ष-प्रत्यक्ष भागीदारी हमारे लोकतंत्रकी मजबूती एवं परिपक्वताके प्रमाण हैं। अपितु यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं कि हमारा मूल एवं सांस्कृतिक चरित्र ही लोकतांत्रिक है। आजादीका यह अमृत महोत्सव स्वतंत्र एवं स्वतंत्रता-पूर्वके भारतकी ऐसी तमाम महत्वपूर्ण एवं गौरवपूर्ण उपलब्धियोंसे प्रेरणा ग्रहण कर साझे प्रयासोंके बल और संकल्पोंको पूरा करनेका महोत्सव है।