सम्पादकीय

संसदका मान गिराती असंसदीय भाषा


भाषा अभिव्यक्तिका सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। मनुष्यको सभ्य बनानेके लिए शिक्षा जरूरी है और सभी प्रकारकी शिक्षाका माध्यम भाषा ही है। किसी जमानेमें संसदकी भाषाको श्रेष्ठ और मर्यादित माना जाता था। अब १९९० के दशकके बाद यह धारणा लगातार खंडित हो रही है, क्योंकि हमारी विधायिका और कार्यपालिकाकी भाषा विकृत होती जा रही है। कमोबेश वह असंसदीय, अमर्यादित और अश्लील हो गयी है। असंसदीय भाषा अक्सर माननीयों द्वारा प्रयोगमें लायी जाती है। यह दीगर है कि विधायिकाकी कार्यवाहीके रिकॉर्डमें इन शब्दोंको दर्ज नहीं होने दिया जाता। लोकतंत्र सिर्फ संसद और विधानसभातक ही सीमित नहीं है। यकीनन वे सदन गणतंत्रके गरिमामयी मंदिर हैं और लोकतंत्रको मूर्त रूप देते हैं। राजनीतिमें भाषाकी एक मर्यादा होती है। इस कसौटीपर हमारी राजनीतिक पार्टियां और नेतृत्व कहां ठहरता है? हमारे जन-प्रतिनिधि सदनमें क्या बोलते हैं और किसके पक्षमें मतदान करते हैं, उसे देशकी किसी भी अदालतमें चुनौती नहीं दी जा सकती। संविधानका अनुच्छेद १०५ (२) उनकी प्रतिरक्षा करता है। लोकसभाके नियम ३८० के तहत स्पीकर या पीठासीन अधिकारीको विशेषाधिकार प्राप्त होता है कि वह किन तथ्यों और शब्दोंको काररवाईके अधिकृत रिकॉर्डमें दर्ज होने दे अथवा उन्हें खारिज कर दे। ऐसे ही अधिकार राज्यसभामें सभापति और उपसभापति तथा विधानसभा अध्यक्षोंको भी हासिल हैं।

जहांतक मुझे जानकारी है सदनमें रिश्वत, लानत, धोखा, ठग, कट्टरपंथी, चरमपंथी, भगोड़ा, डॉर्लिंग, अनपढ़ या अंगूठा-छाप सरीखे शब्द बोलनेपर निषेध है। परस्पर गाली देना, हाथापाई करना अथवा विधेयक फाडऩा भी निषिद्ध हैं, लेकिन संसदके भीतर ही ऐसी कई घटनाएं देखी जा सकती हैं। बेशक स्पीकर या पीठासीन अधिकारीने ऐसे शब्दोंको काररवाईके रिकॉर्डमें दर्ज नहीं होने दिया, लेकिन यह आधुनिकतम प्रौद्योगिकीका दौर है। सवाल यह है कि भाषायी मर्यादा भंग करने और मवालियोंकी भाषाके इस्तेमालकी नौबत ही क्यों आती है? बहुत पुराने प्रसंगोंको छोड़ भी दें, तो मौजूदा कालखंडमें प्रधान मंत्री मोदी ऐसी शख्सियत हैं, जो सर्वाधिक नफरत और आक्रोशके बिंदु बने हैं। यह दीगर है कि देशने उनके नेतृत्वको भरपूर जनादेश देकर प्रधान मंत्री बनाया है। कांग्रेसके बड़े नेताओं, सांसदों और पूर्व केंद्रीय मंत्रियोंने प्रधान मंत्री मोदीके लिए कातिल, हत्यारा, यमराज, राक्षस, सांप, बिच्छू, चायवाला, तेली,बंदर, मौतका सौदागर और जहरकी खेती आदि न जाने कितने अपशब्दोंका इस्तेमाल किया है। कुछ शब्द तो ऐसे हैं कि हमारी नैतिकता उन्हें लिखनेको रोकती है। यह शब्द बोलनेवाले नेता संवैधानिक पदोंपर रह चुके हैं और आज भी अधिकतर सांसद हैं। प्रधान मंत्रीके लिए ‘फेंकू’ विशेषण तो टीवी चौनलोंकी चर्चाओंमें, कांग्रेस प्रवक्ताओंके मुखसे, लगभग हररोज सुना जा सकता है। बदलेमें भाजपा प्रवक्ता और नेतागण कांग्रेस सांसद एवं पार्टीके पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधीको सार्वजनिक तौरपर, सरेआम ‘पप्पू’ और ‘५० सालका बालक’ कहकर संबोधित करते हैं। आखिर यह किस लोकतंत्रकी भाषा और अभिव्यक्ति है और ऐसी अभद्र, अश्लील भाषाके प्रयोग करनेके मायने क्या हैं?

संसदके बाहर भी माननीय भाषाकी मर्यादा अक्सर भूल जाते हैं। बीते नवम्बरमें टीएमसी नेता कल्याण बनर्जीने कांग्रेसके नेता अधीर रंजन चौधरीपर बीजेपीके एजेंट होनेका आरोप लगाया। इसपर अधीर रंजन चौधरीने कल्याण बनर्जीपर पलटवार करते हुए कल्याण बनर्जीके लिए ममताके ‘पालतू कुत्ते’ जैसे शब्दका इस्तेमाल कर दिया। कल्याण बनर्जीके आरोपोंपर अधीर रंजन चौधरीने उनके लिए जिन शब्दोंका इस्तेमाल किया वह संसदीय भाषाके अनुरूप तो बिल्कुल भी नहीं कहे जा सकते। अधीर रंजन चौधरी ‘अल्सेसियन कुत्तेÓ जैसे शब्दका भी इस्तेमाल कर दिया। अधीर रंजन चौधरीने कहा कि ममताके प्रति वफादारी साबित करनेके लिए कल्याण बनर्जी उनके ‘पालतू कुत्ते’ की तरह काम कर रहे हैं और ऐसे बयान दे रहे हैं। भारतीय लोकतंत्रकी सेहतका पैमाना यदि किसीको मापना हो तो वह राजनीतिमें इस्तेमाल होनेवाली भाषापर गौर करे। हमारी सेहतमें थोड़ा-सा भी उतार-चढ़ाव होता है तो हम फौरन डॉक्टरके पास पहुंच जाते हैं। लोकतंत्र बेचारा क्या करे, जब इसकी सेहत डाउन होती है तो इसके तीमारदार (राजनेता) इसपर और प्रहार करते हैं। चुनावमें एक-दूसरेपर आरोप-प्रत्यारोप और असंसदीय भाषाका चलन बढ़ जाता है। २०१९ के लोकसभा चुनाव प्रचारके दौरान कुछ एतिहासिक एवं अविस्मरणीय वाक्य देखने को मिले।

भाषण देना राजनीतिकी प्राथमिकता है यह अत्यंत आवश्यक है परन्तु भाषाकी अपनी एक मर्यादा होती है। लोकसभा चुनाव प्रचारोंमें राजनीतिक विरोधियों और दूसरी विचारधाराके लोगोंके खिलाफ गुस्सा और उनसे अलग मत जाहिर करनेके लिए भाषाई अनुदारवाद का बेरोक-टोक इस्तेमाल किया गया। कई दिग्गज नेताओंको भाषाकी मर्यादाको खोते देखा गया। ये दल या समाज इसपर चिंता जाहिर नहीं करना चाहता है। यह एक काफी परेशान करनेवाली बात है एवं अत्यंत गंभीर विषय है। संसदीय कार्यवाहीका सीधा प्रसारण लोकसभा और राज्यसभा टीवी चौनलोंके जरिये किया जाता है। नतीजतन ऐसे घोर आपत्तिजनक शब्द आम आदमीतक पहुंच ही जाते हैं। क्या ऐसा लोकतंत्र कभी महान माना जा सकता है? मौजूदा दौरमें किसान आंदोलन ८१ दिनोंसे जारी है। सिंघु बॉर्डरपर कुछ महिलाओंके चित्र सार्वजनिक हुए, जिनमें ‘मर जा मोदीÓका प्रलाप किया जा रहा था और औरतें स्यापा पीट रही थीं। क्या आंदोलनके लोकतांत्रिक दायरेमें ऐसे चरित्र भी आते हैं? आखिर हमारे नेता भाषाकी मर्यादाको क्यों लांघ जाते हैं?

इस सवालके आते ही दिमागमें विचारोंकी झड़ी लग जाती है। अपने वैचारिक क्षमताके अनुसार सब सोचने लग जाते हैं। सच पूछो तो राजनीतिमें भाषाकी कोई मर्यादा ही नहीं तय होनी चाहिए। ये तो दीयेको रोशनी दिखानेकी बात हो गयी न। बेचारे नेताओंको कितना कष्ट होता है चुनावी सभाओंमें। उनको मर्यादाकी कितनी समझ है तुम क्या जानो। यदि शीर्ष नेताओंके बोल बिगड़े होंगे तो उन्हें अपना नायक माननेवाले और उनके पीछे चलनेवाले कार्यकर्ताओंका राजनीतिक प्रशिक्षण कैसा होगा? कहनेको भारत दुनियाका सबसे बड़ा लोकतंत्र है। परन्तु यह तथ्य भारतकी विशाल आबादीकी तरफ संकेत करता है या हमारी लोकतांत्रिक चेतनाके विकासकी तरफ? चूंकि लोकतंत्रमें पक्ष-विपक्षके लिए मिलकर कार्य करनेकी अनिवार्यता होती है। ऐसेमें अमर्यादित भाषासे अंतत लोकतंत्रको ही नुकसान पहुंचता है। ऐसा होनेपर लोकतंत्रके क्षीण होनेका खतरा हमेशा सामने रहेगा।